– स. गुरदीप सिंघ*
अकाली फूला सिंघ जी महाराजा रणजीत सिंघ के सिरमौर जरनैलों में से थे। आपने सिक्ख राज्य की प्रफुल्लता के लिए तन, मन, धन एवं निष्काम भावना से सेवा की। आपने पंथक प्यार के अधीन सिक्ख राज्य की रक्षा के लिए अपना आप कुर्बान कर दिया ।
अकाली फूला सिंघ जी का जन्म बांगर इलाके के गांव सीहां में सन् १७६१ ई में हुआ। आपके पिता भाई ईशर सिंघ मिसल निशानां वाली से संबंध रखते थे। वे अहमदशाह अब्दाली के छठे आक्रमण के समय शहीद हो गए थे। शहीद होने से पहले उन्होंने मिसल शहीदां के जरनैल बाबा नरैण सिंघ को अकाली फूला सिंघ जी की बांह पकड़ा दी थी । १० वर्ष की आयु में अकाली फूला सिंघ ने नित्तनेम की बाणी के अलावा और भी काफी बाणी कंठस्थ कर ली थी। बाबा नरैण सिंघ की शहीदी के बाद आप मिसल शहीदां के जत्थेदार बन गए जो निडर, जांबाज़ और पंथ की चढ़दी कला के लिए हर समय मर मिटने के लिए तैयार रहने वाला निहंग सिंघों का जत्था था ।
अकाली फूला सिंघ ने अपना समूचा जीवन गुरमति – प्रचार, अमृत- संचार, गुरुद्वारों के प्रबंध-सुधार और खालसा पंथ की सेवा में व्यतीत किया। आप जिंदगी भर चढ़दी कला में रहे। आप अनेक मुश्किलों और मुसीबतों का सामना करते हुए तनिक भी विचलित न हुए । महाराजा रणजीत सिंघ के संपर्क में आने पर आपने कसूर, कश्मीर, मुलतान, पेशावर आदि के युद्ध में पूरे जोश के साथ योगदान दिया। मुलतान की घमासान लड़ाई में बरसती हुई गोलियों और तोपों के बीच में से निकलकर नवाब मुजफ्फर ख़ान पर टूट पड़ना, नि:संदेह उनकी वीरता की मिसाल है । आप में निर्भयता कूट- कूटकर भरी हुई थी । १८०६ ई. में जब लाहौर दरबार में मोरां नाम के सिक्के ढलकर श्री अकाल तख़्त साहिब पर प्रवानगी के लिए आए तो आपने यह कहकर स्वीकार न किए कि गुरु साहिबान या फिर गुरसिक्खों के नाम के अतिरिक्त किसी अन्य नाम का सिक्का स्वीकार नहीं किया जा सकता।
जब शहज़ादा प्रताप सिंघ जींद ने अंग्रेजों के विरुद्ध होकर श्री अनंदपुर साहिब में शरण ली तो डोगरों के बहकावे में महाराजा ने दीवान मोतीराम को श्री अनंदपुर साहिब पर धावा बोलने और अकाली फूला सिंघ को पकड़कर लाने का हुक्म दिया। सिक्ख कौम ने अकाली फूला सिंघ जी के आगे बिना लड़ाई किए हथियार डाल दिए । इसी प्रकार नाभा के महाराजा जसवंत सिंघ की फौज अकाली फूला सिंघ जी को पकड़ने के लिए श्री अनंदपुर साहिब पहुंची तो उस फौज ने भी अकाली जी को घेरे में लेने से मना कर दिया। यह सब अकाली फूला सिंघ जी के गुरसिक्खी जीवन और उनके तेज प्रताप का परिणाम था। पंथक प्यार आपकी रग-रग में भरा हुआ था । कौम की चढ़दी कला के लिए आपने अनेक यातनाएं और कष्ट भी सहन किए।
सन् १८१८ ई. में महाराजा रणजीत सिंघ ने पेशावर पर विजय प्राप्त कर यार मोहम्मद ख़ान को अपने अधीन वहां का हाकिम बनाया था। मोहम्मद ख़ान का भाई अजीम खान, जो काबुल का वज़ीर था, उसे यह बात अच्छी न लगी । उसने बहुत बड़ी सेना लेकर पेशावर (पिशौर) पर आक्रमण कर दिया और बिना किसी प्रकार के युद्ध के पेशावर पर कब्ज़ा कर लिया। जब महाराजा रणजीत सिंघ को इस बात का पता चला तो उन्होंने भी युद्ध का नगाड़ा बजा दिया । अजीम खान ने अपने भतीजे मुहम्मद जमान को जहांगीरे का किला जीतने के लिए भेजा। महाराजा की सेना के साथ अकाली फूला सिंघ जी, स. देसा सिंघ मजीठिया और स. फतहि सिंघ आहलूवालिया जैसे महान योद्धा थे । महाराजा फौज सहित अटक के किनारे पहुंच गए। जहांगीरे के पास खूनी युद्ध हुआ । सिक्खों ने जीत प्राप्त की । पठानों के छक्के छूट गए और उन्होंने नौशहरा की तरफ कूच कर दिया ।
महाराजा ने पठानों पर हमला करने के लिए पूरी योजनाबंदी की। फौज के चार हिस्से किए। एक हिस्से की कमान अकाली फूला सिंघ को दी गई। दूसरे हिस्से की कमान स. देसा सिंघ मजीठिया और स. फतह सिंघ को दी गई। तीसरी कमान में शहजादा खड़क सिंघ, स. हरी सिंघ नलूआ, जनरल वेंतुरा थे, जिन्होंने अजीम खान को लंडा दरिया पार करके पठानी लश्कर के साथ मिलने से रोकना था। चौथा हिस्सा महाराजा ने आरक्षित रखा, जिसने जहां पर भी ज़रूरत हो सहायता देनी थी । १४ मार्च, १८२३ ई को अमृत वेला में दीवान सजाए गए और समूह खालसाई फौजों ने अपने जत्थेदारों सहित हाज़री भरी। आने वाली नौशहिरे की लड़ाई के बारे में सिंघ जरनैलों और महाराजा ने विचार- विमर्श किया। विचार-विमर्श के उपरांत फैसला करके तुरंत हमला करने के लिए प्रस्ताव पारित कर, अरदासा सोधकर नगाड़ा बजा दिया गया । ‘बोले सो निहाल, सति श्री अकाल’ के जैकारे लगाता हुआ खालसाई फौज का एक-एक दस्ता महाराजा रणजीत सिंघ के आगे से निकलता और महाराजा स्वयं अपने शूरवीरों को रण-भूमि में जाने के लिए विदा करते। तभी जासूसी करते हुए जासूस ने आकर बताया कि काबुल की तरफ से दुश्मन की मदद के लिए दस हज़ार फौज, ४० बड़ी तोपें और आ गई हैं। सारे हालात का जायज़ा लेते हुए महाराजा इस नतीजे पर पहुंचे कि धावा बोलने का कार्यक्रम दूसरे दिन के लिए रख दिया जाए, क्योंकि मुकाबला बड़ा ज़बरदस्त था और शाम तक खालसाई तोपखाने के पहुंच जाने की भी पूरी आशा थी ।
अकाली फूला सिंघ जी को जब यह ख़बर मिली कि महाराजा सुबह के किए गए फैसले में कुछ बदलाव कर रहे हैं तो अकाली फूला सिंघ महाराजा के पास आए और वीर रस में आकर कहने लगे कि “मान लिया दुश्मन बहुत ताकतवर है, पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में अरदासा सोधकर उसके विपरीत चलना खालसे का नियम नहीं है। भले ही शीश चला जाए, परंतु सतिगुरु की हजूरी में किए फैसले की लाज हर कीमत पर रखी जानी चाहिए।” महाराजा रणजीत सिंघ ने कहा कि “अकाली जी! रणनीति के अनुसार चलने में कोई नुकसान नहीं है । यदि यह हमला एक दिन बाद भी कर दिया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा।” अकाली फूला सिंघ जी ने पूर्ण विश्वास से कहा, “हमने आज ही युद्ध करने की अरदास की है। चाहे दुश्मन की फौज इससे भी दस गुना ज्यादा हो जाए और हमें युद्ध में शहीद हो जाना पड़े, हम आज ही हमला करेंगे। अपने वचन को पूरा करने में हमारी सहायता के लिए गुरु कलगीधर पातशाह जी हमारे अंग-संग हैं। ”
अकाली फूला सिंघ जी परमात्मा का ध्यान धरकर अरदास करने लगे कि “हे सतिगुरु जी ! हमें ताकत बख़्शो ताकि हम अपना शीश देकर धर्म के इस राज्य (सिक्ख राज्य) को, देश की इज्जत, मान-मर्यादा, गैरत, आन-शान को बचा सकें । ” वीर रस से परिपूर्ण इस अरदास ने खालसा फौज के मन में जादू भरा असर किया । ‘बोले सो निहाल, सति श्री अकाल’ के जयकारों से आकाश गुंजायमान हो उठा। खालसा फौज ने निडर आगे बढ़ना शुरू कर दिया। गाजियों की तरफ से गोलियों की बौछार लगातार होती रही ।
महाराजा रणजीत सिंघ फौज लेकर सिक्ख शूरवीरों की मदद के लिए आगे बढ़े और उन्होंने गाजियों की फौज पर धावा बोल दिया जो खालसा सेना को अपने घेरे में लेने के लिए प्रयत्न कर रही थी। गाजियों की तरफ से भी अंधाधुंध गोलियां बरसाई जा रही थीं । अचानक एक गोली अकाली फूला सिंघ के घोड़े के पेट में लगी और घोड़ा नीचे गिर गया। अकाली जी बड़ी फुर्ती से हाथी पर सवार हो गए। अकाली जी ने फौज को हाथों हाथ लड़ाई करने का हुक्म दिया। पूरा जत्था घोड़ों को छोड़कर तेगों सहित वैरी पर टूट पड़ा। सिंघों ने अपनी तूफानी तेगें इस प्रकार चलाईं कि गाजियों के होश उड़ने लगे। खालसाई तोपखाना भी मैदान में पहुंच गया। पठानों ने अपने पैर जमाए रखने के लिए पूरा दम लगा दिया परंतु सिंघों की काल रूपी तेग के आगे वे ज्यादा देर तक टिक नहीं पाए । इसी बीच शहज़ादा खड़क सिंघ का जत्था मदद के लिए पहुंच गया । सारा दिन भयंकर मार-काट चलती रही। शाम तक गाजियों के हौसले पस्त हो गए और वे भाग खड़े हुए। सिंघों की फौज शानदार जीत हासिल कर रही थी। सिंघों ने अच्छी तरह गाजियों का पीछा किया ताकि वे दोबारा इधर मुंह न कर सकें। इसी बीच एक पठान ने, जो कि एक पत्थर की ओट में था, पीछे से अकाली फूला सिंघ को अपनी गोली का निशाना बना लिया। इस प्रकार नौशहिरे के युद्ध में वीरता से जूझते हुए अकाली फूला सिंघ जी शहीदी प्राप्त कर गए।
धर्म और न्याय से परिपूर्ण खालसा राज्य कायम रखने की पूरी तन्मयता रखने वाले, सतिगुरु जी की हजूरी में किए गए प्रण को शीश देकर पूरा करने वाले अमर शहीद अकाली फूला सिंघ जी का महान जीवन कौम के नौजवानों में सदा ही धर्म, वीरता और कुर्बानी के जज्बे का संचार करता रहेगा ।