-डॉ. परमजीत कौर
जुल्म, जब्र और अन्याय को खत्म करने के लिए सरवंश कुर्बान कर देने वाले कलगीधर पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने श्री गुरु नानक देव जी द्वारा दिखाए गए सिद्धांतों के निर्माण के लिए और गुर विचारधारा को मज़बूत आधार देने के लिए गुरसिक्खों को अमृत की अद्वितीय अनमोल रहमत के साथ निवाज कर खालसा पंथ की सृजना की । इस कार्य के लिए गुरु जी ने पांच बार शीश की मांग की। जिन्होंने अपने शीश भेंट किए, वे पांच जगमग, नूरानी, खिले हुए चेहरों वाले गुरु के लाल, गुरु के प्यारे बन गए। खालसे की सृजना का दिन मानवता के इतिहास में एक नये क्रांतिकारी युग का आरंभ था। अमृत की दात ने सिक्खों के अंदर आत्म-सम्मान, स्वाभिमान और निर्भयता की भावना पैदा करके उनकी काया कल्प कर दी ।
जात-पात, भेदभाव, मेर-तेर, नफरत, संकीर्णता, भ्रम-पाखंड, लोकाचार, चालाकियां, सियानपें आदि का त्याग करके अपना सिर अर्पण कर देने वाला, अपना आप न्यौछावर कर देने वाला, अपने आप को गुरु के हवाले कर देने वाला ही खालसा कहलवाने का अधिकारी माना गया :
खालस खास कहावै सोई ।
जा के हिरदे भरम न होई ।
भरम भेख ते रहै निआरा ।
सो खालस सतिगुरू हमारा ॥ ( श्री गुर सोभा )
श्री गुरु रामदास जी फरमान करते हैं कि गुरु ही मेरी जाति है, गुरु ही मेरी इज्ज़त है। मैंने अपना सिर गुरु के पास बेच दिया है और मेरा नाम गुरु-चेला ( गुरु का सिक्ख ) पड़ गया है :
हमरी जाति पाती गुरु सतिगुरु
हम बेचिओ सिरु गुर के ॥
जन नानक नामु परिओ गुर चेला
गुर राखहु लाज जन के ॥
( पन्ना ७३१ )
वास्तव में श्री गुरु नानक देव जी से लेकर श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी तक सारे गुरु साहिबान का मनोरथ सिक्खों में जागृति पैदा करके एक ऐसी कौम का निर्माण करना था, जो आचार-विचार और धार्मिक विश्वासों में दूसरे से अलग हो। श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए खालसा पंथ की सृजना करके खालसे को अलग रूप, अलग शक्ल का स्वामी बना दिया। इस अनमोल दात ने खालसे को नाम, दान, स्नान, किरत करने और बांट कर छकने के गुरमति-मार्ग का यात्री बना दिया। निर्मल चित्त के साथ परमात्मा का नाम जपना और अकाल पुरख के प्रेम की प्राप्ति के लिए सिर तली पर रखना अर्थात् अपना अहं त्यागना बहुत ज़रूरी है। श्री गुरु नानक देव जी का फरमान है कि प्रभु-प्रीति के इस रास्ते पर तभी पैर रखा जा सकता है जब सिर भेंट किया जाए। लोक-लाज, बुद्धिमत्ता, चालाकियां और अहं त्यागने में कोई संकोच न किया जाए:
जउ तर प्रेम खेलण का चाउ ॥
सिरु धरि तली गली मेरी आउ ॥
इतु मारग पैरु धरीजै ॥
सिरु दीजै काणि न कीजै ॥
( पन्ना १४१२ )
गुरु साहिब द्वारा निर्धारित पांच ककारी रहित और केशों की बेअदबी, कुट्ठा खाना, पर-स्त्री या पर- पुरुष का गमन, तंबाकू का सेवन इन चार कुरहितों की मनाही रूप संयम ने खालसे को सारे संसार में सर्वोत्तम बना दिया। इनमें से दो बज्जर कुरहितों — पर – स्त्री या पर-पुरुष का गमन और तंबाकू के सेवन से बचने के लिए आज सारा संसार यत्नशील है । आज विज्ञान ने यह साबित कर दिया है कि तंबाकू कैंसर रोग का एक बड़ा कारण है । सारा संसार इस नासूर से मुक्त होने के लिए चिंतित है । दूसरा रोग जो संसार में फैला हुआ है, वो है – एड्स, जिसका मूल कारण पर- स्त्री या पर-पुरुष का गमन है। करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, परंतु समस्या फिर भी गंभीर रूप धारण करती जा रही है। पातशाह ने गुरसिक्खों को अमृत की अनमोल रहमत के साथ सम्मान देकर सारी सिक्ख कौम को इस रोग से बचने का निर्देश दिया है ।
संसार के किसी भी धर्म में किसी गुरु, पैगंबर, पीर आदि ने अपने शिष्य, चेले या मुरीद के साथ अभेदता प्रकट नहीं की । गुरु साहिब ने पांच प्यारों से अमृत की दात लेकर खालसे के साथ अपन अभेदता प्रकट की। भाई गुरदास जी फरमान करते हैं :
— पीर मुरीदी गाखड़ी को विरला जाणै ।
पीरा पीरु वखाणीऐ गुरु गुरां वखाणै ।
गुरुचेला चेला गुरू करि चोज विडाणै ।
(वार १३:१)
— वह प्रगटिओ मरद अगंमड़ा वरीआम इकेला ।
वाह वाह गोबिंद सिंघ आपे गुरु चेला ॥
( वार ४९:१७ )
आप जी ने खालसे को अपना इष्ट, मित्र, सखा, सज्जन आदि कह कर सम्मान ही नहीं प्रदान किया, बल्कि उसे अपना रूप स्वीकार किया है :
खालसा मेरो रूप है खास ।
खालसे महि हउ करउ निवास ।…
खालसा मेरो इसट सुहिरद ।
खालसे मेरो कहीअत बिरद ।…
खालसा मेरो मित्र सखाई ।
खालसा मात पिता सुखदाई ।…
खालसा मेरो पिंड परान ।
खालसा मेरी जान की जान । …
( सरब लोह ग्रंथ )
साथ ही गुरु साहिब ने शर्त रख दी कि जब तक खालसा खालिस है, न्यारा है, तब तक आप जी का बख़्शिश किया हुआ सारा तेज़ उसके अंदर है, परंतु जब वह बिपरवादी रीति अपना लेता है तो वह तेजहीन हो जाता है और गुरु साहिब की प्रतीति गंवा बैठता है :
जब लग खालसा रहे निआरा ।
तब लग तेज दीओ मैं सारा ।
जब इह है बिपरन की रीत ।
मैं न करों इन की परतीत ।
( सरब लोह ग्रंथ )
वहम-भ्रम, शगुन-अपशगुन, दिन- मुहूर्त, यंत्र-तंत्र, धागे – ताबीज़ में विश्वास, मढ़ी – मसान की पूजा, ज्योति जगाना, दीये जलाकर आरती करना, व्रत, तीर्थ आदि फोकट कर्म-कांडों में लीन रहना, फकीरों, ज्योतिषियों के द्वारों पर भटकना, जात-पात, छूआ-छूत का विचार आदि बिपरन की रीति ही है । अमृत की दात सिर देकर प्राप्त की जाती है, यह इसका मुख्य पहलू है :
–तनु मनु धनु सभु सउप गुर कउ
हुकमि मंनिऐ पाईऐ ॥ ( पन्ना ९१८)
— हरि हरि अरथि सरीरु हम बेचिआ
पूरे गुर कै आगे ॥
सतिगुर दातै नामु दिड्राइआ
मुखि मसतक भाग सभागे ॥ (पन्ना १७१)
जब तक गुरु को अपना आप समर्पित नहीं किया जाता, गुरु की मति धारण नहीं की जाती, गुरु से दूरी बनी रहती है, गुरु के प्यारे नहीं बन सकते। अपनी मति का अहंकार करने वाले, तन, मन, धन सब अपना समझने वाले मनमुख साकत कहलवाते हैं। गुरु साहिब समझा रहे हैं कि माया-मोह के अंधेरे में हुए जीव के अंदर गुरु ही ज्ञान का दीया जलाता है। गुरु के दिए ज्ञान के द्वारा ही प्रभु-चरणों में लगन लगती है। अज्ञानता का अंधेरा नष्ट हो जाता है, हृदय – घर में प्रभु का नाम – पदार्थ मिल जाता है। माया को अपनी ज़िंदगी का आसरा बनाने वाले मानव अकाल पुरख से टूट जाते हैं, निर्दयी हो जाते हैं। वे मानव सतिगुरु के आगे अपना सिर नहीं बेचते। वे अपने अंदर से हउमैं का त्याग नहीं करते। वे जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं :
अधिआरै दीपक आनि जलाए
गुर गिअनि गुरू लिव लागे ॥
अगिआनु अंधेरा बिनसि बिनासिओ
घर वसतु ही मन जागे ॥३॥
सात बधिक माइआधारी
तिन जम जोहनि लागे ॥
उन सतिगुर आगै सीसु न बेचिआ
ओइ आवहि जाहि अभागे ॥४॥
हमरा बिनउ सुनहु प्रभ ठाकुर
हम सरणि प्रभू हरि मागे ॥
जन नानक की लज पाति गुरु है
सिरु बेचिओ सतिगुर आगे ॥५॥
( पन्ना १७२)
गुरु ही अंदर बसते परमात्मा को प्रकट करता है:
हरि हरि निकट वसै सभ जग कै
अपरंपर पुरखु अतोली ॥
हरि हरि प्रगटु कीओ गुरि पूरै
सिरु वेचिओ गुर पहि मोली ॥
( पन्ना १६९)
जिसने साधसंगत की बरकत से अपना सिर गुरु के हवाले कर दिया, अपनी हउमै त्याग दी, अपना मन, तन सब गुरु को सौंप दिया, गुरु ने उसके हृदय में बसता प्रभु उसे दिखा दिया। प्रभु के वियोग वाला उसका सारा दुख दूर हो गया :
हउ मनु अरपी सभु तनु अरपी अरपी सभि देसा ॥
हउ सिरु अरपी तिसु मीत पिआरे जो प्रभ देइ सदेसा ॥
अरपिआ त सीसु सुथानि गुर पहि संगि प्रभू दिखाइआ ॥
खिन माहि सगला दूखु मिटिआ मनहु चिंदिआ पाइआ ॥
(पन्ना २४७)
जिसने शीश अर्पण कर दिया, वह गुरु का हो गया; जिसने गुरमति अपना ली, उसके भ्रम दूर हो गए, माया के बंधन टूट गए; वह प्रभु में लीन हो गया। गुरु जी फरमान करते हैं कि जो सिक्ख गुरु के बताये मार्ग पर चलते हैं, मैं उनके गुलामों का गुलाम हूं। जिनके मन प्रभु नाम के गहरे रंग में रंगे हुए हैं, उनके चोले अर्थात् शरीर प्रभु के प्यार में भीगे हुए हैं । हे नानक ! उनको प्रभु ने कृपा करके गुरु के साथ मिलाया है और उन्होंने अपना सिर गुरु के आगे बेच दिया है :
–जो सिख गुर कार कमावहि
हउ गुलमु तिना का गोलीआ ॥
हरि रंगि चलूलै जो रते
तिन भिनी हरि रंगि चोलीआ ॥
करि किरपा नानक मेलि
गुर पहि सिरु वेचिआ मोलीआ ॥
( पन्ना ३११ )
— आपनड़ा मनु वेचीऐ सिरु दीजै नाले ॥
गुरमुख वसतु पछाणीऐ अपना घरु भाले ॥
( पन्ना ४२० )
जिस मानव पर प्रभु स्वयं कृपा करते हैं, वह अपना सिर गुरु के आगे भेंट कर देने में समर्थ होता है अर्थात् वह गुरु की सेवा में लग जाता है; तन, मन, धन, सब गुरु को अर्पण कर देता है, अहंकार नहीं करता। इस सेवा का स्वभाव यह है कि यह हरि-रस देती है, जिससे जीव का जी भर जाता है 1 फिर कोई भूख, कोई तृष्णा नहीं रह जाती :
— जिसु हरि आपि क्रिपा करे
सो वेचे सिरु गुर आगै ॥
जन नानक हरि रसि त्रिपतिआ
फिरि भूख न लागै ॥ ( पन्ना १६७)
–सतिगुर आगै सीसु भेट देउ
सतगुर साचे भावै ॥
आपे दइआ करहु प्रभ दाते
नानक अंक समावै ॥
( पन्ना १११४)
संक्षेप में कहा जा सकता है कि खंडे – बाटे की पाहुल लेकर नाम – अमृत की प्राप्ति के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ज़रूरी है कि अपना सिर गुरु को भेंट किया जाए अर्थात् अपने आप को गुरु के हवाले कर दिया जाए, गुरु की शरण ले ली जाए। पूर्ण समर्पण की भावना से ही गुरमति का धारक बना जा सकता है। भाई गुरदास जी लिखते हैं कि जैसे गाय को सभी पदार्थ खली, भूसा आदि खिलाए जाते हैं और बदले में उसका दूध दुह कर पिया जाता है, इसी तरह सतिगुरु की शरण में जाकर पहले अपना आप गंवाने के लिए तन, मन, धन सब कुछ गुरु को सौंप दिया जाता है और सतिगुरु से नाम – गुरु-मंत्र का दान लेकर मुक्ति-पद प्राप्त किया जाता है और सदीव काल के लिए ज़िंदा रहा जा सकता है अर्थात् जन्म- मरण से रहित हुआ जा सकता है:
जैसे गऊ सेवा कै सहेत प्रतिपालीअत,
सकल अखाद वा को दूध दुहि पीजीऐ ।
तैसे तन मन धन अरप सरनि गुर,
दीखिआ दान लै अमर सद सद जीजीऐ ॥५८४॥
( कबित्त सवय्ये)
पूर्ण समर्पण के अभाव के कारण मनमुख परमात्मा से अलग अपनी हस्ती बना बैठता है, अपने आप को सब कुछ करने वाला मान कर अहंकार करता है और लोभ, मोह, अहंकार, लोकाचार, मेर-तेर, झगड़े-झंझट में फंसा हुआ उस पत्थर की तरह बन जाता है जो पारस के स्पर्श से पारस नहीं बनता, क्योंकि उसमें कुल का अभिमान होता है कि पारस भी उसी की तरह का पत्थर है। यदि उसे पानी में फेंकें तो भार के अभिमान के कारण जल्दी डूब जाता है, परंतु कठोर होने के कारण भीगता नहीं सूखा ही रहता है और केवल घड़े तोड़ने ही अच्छा समझता है। दूसरा दृष्टांत सांप का देते हुए भाई गुरदास जी समझाते हैं कि सांप शीतल चंदन के साथ लिपटा हुआ भी बड़ी उम्र के अहंकार के कारण ज़हर नहीं छोड़ता। इसी तरह हृदय में कपट, अहंकार, झूठ रखने वाले और ऊपर से गुरु के साथ प्यार जताने वाले मानव का जीवन व्यर्थ है :
— पथरु पारसि परसीऐ
पारसु होइ न कुल अभिमाणै ।
पाणी अंदरि सटीऐ तड़भड़ डुबै भार भुलाणै ।
चित कठोर न भिजई
रहै निकोरु घड़े भनि जाणै ॥
( वार १७:११)
–अहिनिसि अहि लपटानो रहै चंदनहि,
तजत न बिखु तऊ हउमै अहंकार है ।
कपट सनेह देह निहफल जगत मै,
संतन को है दोखी दुबिधा बिकार कै ॥ ३२९ ॥
(कबित्त सवय्ये)
जो खालसा बन जाता है, गुरमति मार्ग पर चल पड़ता है, वह अपने आप को जताता नहीं। वह संसारी लोगों में विचरण करता हुआ, लोकाचारी के अलग-अलग रंग गंवा कर एक निरंकार के रंग वाला हो जाता है :
लोगन मै लोगाचार गुरमुखि एकंकार,
सबद सुरति उनमन उनमानीऐ ॥३९॥
(कबित्त सवय्ये)
वही मानव असली सेवक है जो चतुराइयों, चालाकियों, अपनी अक्ल का गर्व छोड़ कर सतिगुरु की शरण में आता है, ईश्वरीय आदेश मानता है और गुरु के शब्द को हृदय में रखता है । प्रबल माया-मोह के जाल से अपना आप गंवा कर ही मुक्ति संभव है। जो मानव अपना सिर गुरु के हवाले करता है, मनमति त्याग कर गुरमति के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, वह परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त करता है :
— सतिगुर का भाणा मंनि लए
सबदु रखै उर धारि ॥
(पन्ना १२४७)
-गुर की सेवा सो करे जिस आपि कराए ॥
नानक सिरु दे छूटीऐ दरगह पति पाए ॥
(पन्ना ४२१)