
– डॉ. कशमीर सिंघ ‘नूर’*
भाई कान्ह सिंघ नाभा के मुताबिक दान का अर्थ है- देने का कर्म देने योग्य धन । वह वस्तु जो दान में दी गई हो तथा महसूल, कर आदि अर्थों में भी ‘दान’ शब्द का उपयोग हुआ मिलता है। गुरबाणी का कथन है :
— हउमै डंनु सहै राजा मंगै दान ॥ ( पन्ना ४१६ )
— पाप की जंग लै काबलहु धाइआ जोरी मंगै दानु वे लालो ॥ ( पन्ना ७२२ )
गुरबाणी में ‘दान’ शब्द सामान्यतः सेवा और पुण्य – कर्म के अर्थों में आया है। गुरबाणी का पवित्र फरमान है :
महा दान सतिगुर गिआनि मनि चाउ न हुटै ॥ (पन्ना १४०७)
भावार्थ यह है कि गुरु के ज्ञान वाले बड़े दानी हैं। उनके मन में सदैव ही उत्साह, चाव होता है गुरबाणी तो यह भी फरमान करती है कि ज्ञान के बिना पूजा, उपासना, दान-पुण्य आदि करने भी सफल नहीं हो सकते :
गिआन हीणं अगिआन पूजा ॥ ( पन्ना १४९१२ )
गुरमति – ज्ञान की प्राप्ति होने पर हमें समझ में आता है कि हमें परमात्मा की ओर से दिए गए दान के अधिकारी बनना है। दानी बनकर उस सच्चे, सबसे बड़े दातार के रकीब नहीं कहलवाना है । देने वाला दाता तो एक ही है । भक्त कबीर जी का कथन है :
उरवारि पारि सभ एको दानी ॥ ( पन्ना ३३७ )
दान करने वाले को दाता कहा गया है, जो गुरमति विचारधारा के अनुसार :
–दाता करता आपि तूं तुसि देवहि करहि पसाउ ॥ ( पन्ना ४६३)
— नानक दाता एकु है दूजा अवरु ना कोई ॥ (पन्ना ६५ )
उस एक दातार से हम दात दान की मांग करते हैं। मांगने वाला भिखारी या याचक है :
तू प्रभ दाता दान मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ ॥ (पन्ना ५९७ )
हमें कुछ भी दान करके दातार होने का भ्रम व हउमै नहीं पालनी चाहिए और न ही दान प्राप्त करने वाले को हीन भावना का शिकार बनने देना चाहिए। दातार – दाता तो एक ही है, वह सबको देने वाला है। हमें याद रखना चाहिए :
सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥ (पन्ना २ )
हमें सेवा और दान करते समय अहंकार से दूर रहना चाहिए। हम तन, मन, धन की सेवा करने के साथ-साथ ज्ञान बांटने की सेवा करके स्वयं को खुश रख सकते हैं, सच्ची शांति प्राप्त कर सकते हैं। गुरु के सिक्ख तो सुबह-शाम अरदास करते समय हउमै, अहंकार को मिटाकर नम्रतापूर्वक गुरु के आगे याचना करते हुए कहते हैं:
“सिक्खों को सिक्खी दान, केश दान, रहित दान, विवेक दान, विश्वास दान, भरोसा दान, दानों के सिर दान, नाम दान … बखशना ।”
सब दानों से बड़ा दान तो प्रभु के नाम का दान है। जिसे यह प्राप्त हो जाए उसे और क्या चाहिए? गुरबाणी में बार-बार हरि के नाम का दान वाहिगुरु से भिखारी बनकर मांगने के लिए कहा गया है। बेशक कोई व्यक्ति तीर्थों पर जाकर करोड़ों बार स्नान करे, डुबकियां लगाए और लाखों, अरबों, खरबों रुपए धन-दौलत के रूप में दान करे, किंतु यह सब कुछ भी उस जिज्ञासु के बराबर नहीं पहुंच सकता जिसके हृदय में वाहिगुरु के नाम का निवास है। गुरबाणी हमारा नेतृत्व यूं करती है:
कोटि मजन कीनो इसनान ॥
लाख अरब खरब दीनो दानु ॥
जा मनि वसिओ हरि को नामु ॥ (पन्ना २०२ )
‘नाम दान’ सर्वश्रेष्ठ दान है। जो व्यक्ति प्रभु के प्रेम के रंग में रंगा हुआ, प्रभु के नाम का ज्ञानी होगा, वही दूसरों को ज्ञान का दान दे सकता है, दूसरों को प्रभु के नाम के साथ जोड़ सकता है। अज्ञानी व्यक्ति किसी को ज्ञान का दान कैसे दे सकता है? हां! ज्ञानी मनुष्य भी केवल दिखावे के लिए ज्ञानी नहीं होना चाहिए। उसे हर समय सचेत, जागरूक, चिंतनशील होने के साथ-साथ ‘जागृत अवस्था’, ‘सहज अवस्था’ में रहना चाहिए। उसे भले-बुरे, उचित – अनुचित की पहचान होनी चाहिए । अज्ञानी मनुष्य अन्य लोगों के पीछे लगकर अपनी दौलत, पूंजी व समय की बर्बादी करता है :
गिआनी होइ सु चेतंनु होइ अगिआनी अंधु कमाइ ॥ (पन्ना ५५६)
ज्ञान, विवेक की प्राप्ति हेतु वाहिगुरु के आगे अरदास की जाती हारि परिओ सुआमी कै दुआर दीजै बुधि बिबेका ॥(पन्ना ६४१)
सिक्ख धर्म में जहां दान-पुण्य एवं अच्छे कार्यों का अति महत्व है, वहीं ‘दसवंध’ का भी बड़ा महत्व है। हमें नेक कमाई, धन-दौलत का ही नहीं बल्कि समय का दसवंध भी निकालना (देना ) चाहिए। इस दसवंध के अंतर्गत बंदगी, नाम-सिमरन, हाथों से सेवा-कर्म, गुरबाणी का पाठ व विचार, धार्मिक मूल्यों के बारे में विचार व अमल शामिल हैं। गुरमति में दान का भावार्थ सेवा है, जो सिक्ख ने अपनी किरत- कमाई में से जरूरतमंदों की मदद करके करनी होती है। गुरमति विचारधारा में “गरीब का मुंह गुरु की गोलक है।”
दसवंध की संस्था का पहला (मूल) रूप श्री गुरु रामदास जी के समय दृष्टिगोचर होता है। उस समय मसंद लोग दसवंध की रकम गुरु-घर में संगत कार्य हेतु एकत्र करके भेंट किया करते थे। गुरु-घर की ओर से नियुक्त मसंद दसबंध के रूप में एकत्र की गई ‘कार – भेटा’ किसी विशेष पर्व पर गुरु घर में आकर भेंट किया करते थे। दसवंध के निश्चित विधान के अलावा संगत अपनी सामर्थ्य के अनुसार गुरु- घर में धन, सोना, चांदी, जेवर, घोड़े तथा हथियार भेंट (अर्पित ) कर गुरु कृपा की पात्र बनती :
— दसवंध गुरु नहि देवई झूठ बोल जो खाइ ।
कहे गोबिंद सिंघ लाल जी तिस का कछू ना बिसाहि । – ( रहितनामा भाई नंद लाल जी)
–देह दसवंध गुर हित सदा ।
दारदि सदन होहि नहि कदा | -(श्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ )
अपनी किरत—कमाई की बचत का दसवां भाग परोपकारी एवं सेवा कार्यों हेतु खर्च करने को ही ‘दसवंध’ कहा गया है। श्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ में अन्यत्र जिक्र है : “जो अपनी कछु करहु कमाई । गुरु हित दिहु दसवंध बनाई ।
“एक सच्चे सिक्ख को यत्नशील होना चाहिए कि गरीबों, बेसहारों, जरूरतमंदों के लिए भोजन, वस्त्रों, दवाओं, आदि का प्रबंध करने में अपना योगदान दे, गरीब कन्याओं की शादी में सहयोग दे । गरीब बच्चों की पढ़ाई की फीस, कापियों, किताबों, बस्तों, वर्दियों के रूप में मदद करनी अति परोपकारी एवं कल्याणकारी कार्य है। गुरमति में लोक-कल्याणकारी कार्यों में योगदान, जरूरतमंदों की मदद तथा गुरुद्वारा साहिब में सेवा, संगत-पंगत की सेवा, पिंगलवाड़ा व यतीमखाने जैसी संस्थाओं में सामर्थ्य अनुसार योगदान देना ही महादान है। आंखें दान करने को, खून – दान को, अंग दान को भी महा दान कहा जाता है। भाई घनईया जी, भक्त पूरण सिंघ जी को कौन भूल सकता है? किसी किस्म का भी योगदान देते समय, दान करते समय हमें अहं-भाव से दूर रहना चाहिए। सच्ची सेवा करने पर ‘सेवक’ की उपाधि एवं आत्म – गौरव की प्राप्ति होती है।
दानशील, कर्मशील, विवेकशील, दयाशील होना और गरीब की, जीवों की रक्षा करना एक सच्चे सिक्ख की पहचान है, उच्च चरित्र का परिचय है, ऊंचे आदर्श व जीवन उद्देश्य की कसौटी है ।