गुर रामदास राखहु सरणाई

हिन्दी
October 02, 2025

श्री गुरू रामदास जी दया व प्रेम की मूर्ति, नम्रता के पुंज, संगीत-कला व विद्या के प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। आप जी का समूचा जीवन गुरमति विचारधारा एवं सिख जीवन-शैली की अद्वितीय मिसाल है। भट्ट विद्वानों ने अपनी बाणी, जिसे ‘भट्टां दे सवैये’ के नाम से जाना जाता है, में गुरू साहिब की स्तुति इस प्रकार की है: गुरु नानकु निकटि बसै बनवारी ॥
तिनि लहणा थापि जोति जगि धारी ॥
लहणे पंथु धरम का कीआ॥
अमरदास भले कर दीआ॥
तिनि स्री रामदासु सोढी थिरु थप्यउ ॥
हरि का नाम अखै निधि अप्यउ ॥ (पन्ना १४०१) अर्थात् श्री गुरू नानक देव जी प्रभु के निकट रहते हैं। उन्होंने भाई लहणा जी (श्री गुरू अंगद देव जी) को गुरू स्थापित करके उनमें ईश्वरीय ज्योति का प्रकाश कर दिया। भाई लहणा जी ने धर्म का मार्ग चलाया और फिर उसे श्री गुरू अमरदास जी के सपुर्द कर दिया। श्री गुरू अमरदास जी ने श्री गुरू रामदास जी को गुरगद्दी व कभी न खत्म होने वाला हरि-नाम का खजाना बख़्श दियाः

गुरु नानकु अंगदु अमरु भगत हरि संगि समाणे ॥ इहु राज जोग गुर रामदास तुम्ह हू रसु जाणे ॥
(पन्ना १३९८)

अर्थात् श्री गुरू नानक देव जी, श्री गुरू अंगद देव जी और श्री गुरू अमरदास जी जैसे प्रभु-भक्त प्रभु में विलीन हो गए हैं। हे गुरू रामदास जी ! अब आप राज व योग का आनंद ले रहे हो।
ऐसे राजयोगी चौथे पातशाह श्री गुरू रामदास जी का प्रकाश, भाई हरिदास जी के गृह माता दया कौर जी की कोख से २५ आश्विन, सं. १५९१ (२४ सितंबर, १५३४ ई) को चूना मंडी लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुआ। गुरू जी के बचपन का नाम ‘जेठा जी’ था। छोटी आयु में ही भाई जेठा जी के माता जी का स्वर्गवास हो गया, फिर सात वर्ष की अल्प आयु में पिता का साया भी सिर से जाता रहा। आपके नानी जी आपको आपके छोटे भाई और बहन के साथ अपने ग्राम बासरके (जिला अमृतसर) ले आए। आपका बचपन बेहद गरीबी और मुश्किलों में गुजरा। अत्यधिक सहनशीलता, नम्रता व मिठास आपके स्वभाव का अभिन्न अंग बन गए।

ग्राम बासरके से भाई जेठा जी रोजगार की तलाश में नये बने नगर ‘गोइंदवाल’ चले आए जिसकी तामीर श्री गुरू अंगद देव जी के हुक्म द्वारा गुरू अमरदास जी की देख-रेख व सिख संगत के सहयोग से हुई थी। यहां रहते ) हुए भाई जेठा जी खडूर साहिब श्री गुरू अंगद देव जी के दर्शन करने जाते रहे और इस तरह आपका मन श्रद्धा और सेवा के रंगों में रंगा गया। श्री गुरू अमरदास जी ने गुरगद्दी पर विराजमान होकर जब गोइंदवाल साहिब को अपना स्थायी निवास बनाया तो भाई जेठा जी भी उनकी शरण में आकर सेवा व सुमिरन में जुट गए। आपके शुभ गुणों को देखकर श्री गुरू अमरदास जी ने १५५३ ई में अपनी सपुत्री बीबी भानी जी का विवाह आपके साथ कर दिया। विवाह के पश्चात इस सुभागी जोड़ी ने श्री गुरू अमरदास जी की अथाह सेवा की, बेटी और दामाद बनकर नहीं बल्कि सच्चे सिख बनकर।

श्री गुरू अमरदास जी ने भाई जेठा जी के निर्मल जीवन, ऊंचे आचरण, प्रभु-प्रेम, निष्काम सेवा-भावना, जरूरतमंदों की मदद और गुरू की आज्ञा सत्य करके मानने के जज्बे को देखकर गुरगद्दी की जिम्मेदारी भाई जेठा जी को सौंपकर उन्हें श्री गुरू रामदास जी में परिवर्तित कर दिया। श्री गुरू रामदास जी के गुरगद्दी पर विराजमान होने का वर्णन भाई गुरदास जी इस प्रकार करते हैं:

बैठा सोढी पातिसाहु रामदासु सतिगुरू कहावै। पूरनु तालु खटाइआ अंम्रितसरि विचि जोति जगावै। (वार १:४७)

श्री गुरू रामदास जी ने श्री अमृतसर की स्थापना की व इसे ‘सिखों के केन्द्रीय स्थान’ के रूप में विकसित किया। इस प्रकार ‘श्री अमृतसर’ सिखों के महान तीर्थ के रूप में प्रकट हुआ। आप ने सूही राग में ‘चार लावां’ के नाम से जानी जाती बाणी उच्चारण की जो सिख धर्म को आपकी महान देन है। सिखों में विवाह की रस्म ‘आनंद कारज’ के समय इस बाणी का पाठ विशेष रूप से किया जाता है। गुरमति लहर को आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए आप ने ‘दसवंध’ की परंपरा आरंभ की, जो कि श्री गुरू अरजन देव जी के समय पूर्ण रूप में विकसित हुई। गुरसिखी के प्रचार व प्रसार के लिए आप ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सिख प्रचारक नियुक्त किए जिन्हें ‘मसंद’ कहा जाता था। इसके अतिरिक्त आपने दहेज-प्रथा, सती-प्रथा और पर्दा-प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाई।

जैसे: आपकी बाणी के मुख्य विषय- विरह, वैराग और प्रभु-मिलन की चाह आदि हैं,

कोई आणि मिलावै मेरा प्रीतमु पिआरा

हउ तिसु पहि आपु वेचाई ॥ (पन्ना ७५७)

– अंतरि पिआस उठी प्रभ केरी

सुणि गुर बचन मनि तीर लगईआ ॥ (पन्ना ८३५)

इसके अतिरिक्त श्री गुरू रामदास जी की बाणी में गुरमति सिद्धांतों का भरपूर वर्णन है, जैसे- प्रभु की रजा में रहना, प्रभु-स्तुति, प्रभु की टेक, नाम-सुमिरन, विषय-विकारों पर नियंत्रण, माया से निर्लेप रहना, सेवा-भावना, नम्रता, मीठा बोलना इत्यादि। प्रिंसीपल कुलदीप सिंघ के शब्दों में, ‘उनकी रचना स्वयं बहने वाले झरने की तरह है जिसका अनुभव करने से हृदय को शीतलता व शांति मिलती है व अमृत के स्रोत फूट पड़ते हैं… उनकी बाणी उनके जीवन की तरह ही प्रभु-प्रेम से रंगी हुई है।’

श्री गुरू रामदास जी ने निम्नलिखित ३० रागों मे बाणी लिखी है:

सिरी राग, राग माझ, गउड़ी, आसा, गूजरी, देवगंधारी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठि, धनासरी, जैतसरी, टोडी, बैराड़ी, तिलंग, सूही, बिलावल, गोंड, रामकली, नट नाराइन, माली गउड़ा, मारू, तुखारी, केदारा, भैरों, बसंत, सारंग, मल्हार, कानड़ा, कलिआन, प्रभाती।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में सम्मिलित गुरू जी की कुल रचना इस प्रकार है:

सबद-२४६, असटपदियां-३३, छंत-२८, सलोक-१३५, वारों की पउड़ियां-१८३, पहरे-१ सबद, करहले-२ सबद, सोलहे-२ सबद, वणजारा-१ सबद, घोड़ियां-२ सबद ।

श्री गुरू रामदास जी ने अपने दोनों बड़े पुत्रों- प्रिथीचंद व बाबा महादेव की जगह अपने छोटे सुपुत्र श्री (गुरू) अरजन देव जी में ईश्वरीय गुणों की बहुतायत देखी, इसीलिए २ आश्विन सं. १६३८ (१ सितंबर, १५८१ ई) में आप ने गुरगद्दी की महान जिम्मेदारी उनके कंधों पर डाल दी और आप श्री अमृतसर से गोइंदवाल चले गए। गोइंदवाल में ही आप मात्र ४७ वर्ष की आयु में २ आश्विन सं. १६३८ (१ सितंबर, १५८१ ई) को परम ज्योति में विलीन हो गए। श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज आप जी अपनी बाणी द्वारा आज भी अपने प्यारे गुरसिखों को प्रेम से समझा रहे हैं:

हरि जपदिआ खिनु ढिल न कीजई मेरी जिंदुड़ीए मतु कि जापै साहु आवै कि न आवै राम ॥
सा वेला सो मूरतु सा घड़ी सो मुहतु सफलु है मेरी जिंदुड़ीए जितु हरि मेरा चिति आवै राम ॥
जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए जमकंकरु नेड़ि न आवै राम ॥

(पन्ना ५४०)

– भाई सतनाम सिंघ