चढ़दी कला का प्रतीक : होला महल्ला

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March 17, 2025

-डॉ. कुलदीप सिंघ हउरा*

किसी विद्वान का कथन है, “जो कौम मरना जानती है, उसको जीने का लालच नहीं
होता । उस कौम को विश्वास होता है। :
मरणु मुसा सूरिआ हकु है जो होइ मरनि परवाणो ॥ ( पन्ना ५७९)
यह श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी द्वारा बताई हुई मरने की युक्ति ही थी, जिसने वैरागी माधोदास को कर्म – योगी, संत – सिपाही बनाकर ज़ालिम और जाबिर हकूमत के साथ लड़ाया ।

डॉ. गोकुल चंद नारंग के लिखने के अनुसार ‘सिंघ होना’ मौत लाड़ी के साथ विवाह करने के समान होता था । अगर एक स्त्री दूसरी से पूछती है, “तुम्हारे कितने पुत्र हैं तो वह कहती, बहन ! पुत्र तो चार थे, परंतु एक अमृत छककर सिंघ सज गया। जिसका भावार्थ यह होता था कि संघ सजना, अपनी मौत को गले लगाने के समान होता था ।

सर जादू नाथ सरकार ने लिखा है- “५ मई, १७३९ ई को १५ करोड़ नकद और ५० करोड़ का सामान और तख़्त-ए-ताऊस आदि दिल्ली से लूट, ५० हज़ार हिंदू लड़के-लड़कियां कैदकर, नादिर शाह जब अपने देश वापिस जा रहा था तो स. जस्सा सिंघ आहलूवालिया ने उसको लूटा तथा उसका वज़न कम किया और लड़के-लड़कियों को छुड़वाकर उनके घर पहुंचाया। नादिर शाह हैरान और परेशान होकर ज़करिया खां को पूछने लगा कि ये कौन लोग हैं? जिन्होंने मेरे और मेरी फौज के होते हुए भी मेरी लूट का माल छीनने से संकोच नहीं किया।

ज़करिया खां ने उसको बताया, “ये लोग हिंदू, मुसलमानों से विलक्षण हैं। जंगलों और पर्वतों पर रहते हैं, घोड़ों की काठियां इनके ठिकाने हैं। हम इनको मार-मारकर थक चुके हैं परंतु ये समाप्त ही नहीं होते।” नादर शाह ने सुनकर अंगुली दांतों तले ले ली और कहा, “वो समय दूर नहीं जब ये लोग देश के मालिक होंगे।”

नादिर शाह ने कहा, अगर सच में ही सिंघ ऐसे हैं, जैसा तूने मुझे बताया है तो
“ते इह मारे न मरे जीत सकै इन कौन ।
नाहत सहत कलेश तुम देख देन इन जौन ।
मरत हो तुम आप ही आपने पैर कुठार |
कुछ दिन को सिंघ होइ है भूपत मुलक मझार ।”
इस पर ज़करिया खां गुस्से और रोष में आ गया तथा सिंघों को पकड़-पकड़कर लाहौर लाने का हुक्म दे दिया। जो सिंघ पकड़ कर लाये जाते, उनको निखास चौक में लाकर, अकहनीय और असहनीय यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता । ऐसा करके हकूमत समझती थी कि सिंघ अब खत्म हो चुके हैं, परंतु समय मिलने पर सिंघ अपनी तेग के जौहर दिखा जाते थे। सरकार द्वारा श्री अमृतसर के दर्शन-स्नान करने पर पाबंदी लगा दी गई। प्राचीन पंथ प्रकाश में एक घटना का वर्णन इस तरह मिलता है, “भाई सुक्खा सिंघ माड़ी कम्बो की वाले दिन में ही अमृत सरोवर में स्नान कर गए तो उन्होंने गरजकर कहा :
सुक्खा सिंघ तब यों कहयो रात नाउं तब चोर ।
नावै गए हम दिन बिखै, श्री सतिगुर के जोर । (प्राचीन पंथ प्रकाश)

एक अन्य घटना भाई बोता सिंघ और भाई गरजा सिंघ से सम्बंधित इस तरह है :
दोनों सिंघ श्री अमृतसर के दर्शन – स्नान कर, शहर से बाहर छिपते छिपाते जा रहे थे कि किसी ने ताना मारा, “यह सिंघ नहीं लगते, सिंघ होते तो छिपते क्यों ?” यह ताना सुनकर उनके अंदर चढ़दी कला वाला जज़्बा जागृत हुआ और उन्होंने नूर की सराय के पास सड़क पर खड़े होकर कर वसूलना शुरू कर दिया और लाहौर के सूबे को एक पत्र ऐसे लिखा :
चिट्ठी सुन हे खान कोता । आना गड्डा पैसा खोता ।
इह लगा लैत सिंघ बोता । हथ महि राखत मोटा सोटा |
तेरा आकबत करहै खोटा । मेरा कहीं सुनेहा जाइ ।
भाबी खानो को समझाइ । तेरा थार सिंघ जो बोता ।
तैनूं रिहा उडीक खलोता। आइ सराए नूर दी पास।
तू वी जोता लगवा लै खास ।

इस तरह वंगार कर सरकार को बताया कि अति कठिन समय में भी सिंघ चढ़दी कला में रहते हैं। सरकार द्वारा पूरी सख्ती के बावजूद जब भी मौका मिलता, सिंघ जंगलों से निकलते, लूट- मार करते और ज़रूरत की वस्तुएं ले जाते।

यहीआ खां हैरान भी था और परेशान भी । वह सोचता था कि हम इनका नामो निशान मिटाने पर तुले हुए हैं, परंतु ये भूखे प्यासे रहकर, फटे कपड़े पहनकर भी हमें चैन नहीं लेने देते। सिंघों का संकटकालीन हालत में भी चढ़दी कला में रहने का वर्णन लिखित रूप में इस तरह मिलता है :
फिड्डा जैसा टटूआ औ जुलाडू की काठी पाइ,
रसडू लगाम ते रसड्डू रकाब जू ।
पाटिआ सा कछडू ते नीलड्डू सा चादरू,
डूचो जैसे पगडू बनाया सिर ताज जू ।
टुट्टआ जैसा तंगडू तेलीगडू मिआन जा को,
गठ गठ गातरा बणाइआ सभ साज जू ।
नाम उन अकालडू सो फिरै बुरै हालडू,
सो लुट्ट कुट्ट खावणे को डाढे उसताद जू ।

(पंथ प्रकाश)
इस तरह दुख और भूख सहनकर भी सिंघ चढ़दी कला में रहते थे और धार्मिक तथा राजसी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते थे, प्रयत्नशील रहते थे। हालात यह थे कि दिल्ली और पंजाब की सरकार एक तरफ और उनकी हां में हां मिलाने वाले पिठुयों, सिंघों को खत्म करने पर तुले हुए थे परंतु सिंघ सदैव आत्मिक रूप में चढ़दी कला में रहते और अरदास करते थे:

“जहां जहां खालसा जी साहिब, तहां तहां रछिआ रिआइत, देग तेग फ़तहि, बिरद की पैज, पंथ की जीत, श्री साहिब जी सहाइ, खालसा जी के बोल बाले, बोलो जी वाहिगुरु । ”
खालसा जी साहिब और खालसा जी के बोल बाले वाक्यांश खालसे की चढ़दी कला के प्रतीक ही नहीं, खालसे की चढ़दी कला के प्रत्यक्ष परिणाम हैं।

समय-समय पर सरकारें खालसे की चढ़दी कला के नज़ारे देखकर खालसे के साथ समझौता भी करती रही हैं। ऐसा ही एक समझौता करने के लिए १७४८ ई में अदीना बेग फौजदार जलंधर ने स. जस्सा सिंघ आहलूवालिया को मुलाकात के लिए संदेश भेजा परंतु पता चला कि समझौते की आड़ में सरकार की बेईमानी छिपी हुई है, तो स. जस्सा सिंघ आहलूवालिया ने अदीना बेग को लिख भेजा “मुलाकात तां हमारी तुम्हारी लड़ाई के मैदान में ही होगी और जौन से हथियार ऊहां छूटेंगे, सोइ दिल की बात जाहर होंगी । ”

उपरोक्त वर्णन से सिंघों की चढ़दी कला की संक्षिप्त जानकारी का पता चल जाता है । श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी एक संत – सिपाही शूरवीर थे । वह चाहते थे कि सिंघों के भीतर चढ़दी कला के नज़ारे देखकर ऐसी भावना सदैव ही बनी रहे। इसलिए अपने युद्ध – शिक्षा के अभ्यास को सदैव निरंतर रखने के लिए ‘होला महल्ला’ मनाने की परंपरा आरंभ की।

सिक्ख विद्वान भाई वीर सिंघ जी ने महल्ला शब्द को ‘मय हल्ला’ भाव बनावटी हल्ला कहा है। इसी तरह भाई कान्ह सिंघ जी कर्ता ‘महान कोश’ ने कहा है ‘होला महल्ला’ एक बनावटी हल्ला होता है। इसमें पैदल और सवार शस्त्रधारी सिंघ दो दल बनाकर एक अहम स्थान पर हल्ला करते हैं।
( गुरमति प्रभाकर, पन्ना ५०७ )

किंतु होली एक मौसमी त्योहार है। सर्दियां समाप्त होने पर जब मौसम सुहावना हो जाता है, न सर्दी होती है न गर्मी, तो लोग अपनी खुशी का प्रकटावा करने के लिए नाचते-उछलते, हंसते-खेलते और गाते हैं। वनस्पति मौली ( हर्षित) होती है। वृक्ष हरे-भरे और खिले होते हैं। प्रकृति की तरह मनुष्य भी खुश होते हैं और प्राकृतिक नज़ारों को देखकर आनंदित होते हैं तथा खुशी का प्रकटावा करते हैं।

सिंघों के भीतर चढ़दी कला की भावना प्रकट करने हेतु युद्ध – शिक्षा के अभ्यास को बरक़रार रखने के लिए ज़रूरी समझा गया । इसलिए कलगीधर पातशाह जी ने नये ढंग से सिंघों के भीतर होला महल्ला मनाने की रीति आरंभ की।

खालसा सृजना के उपरांत आप ने संवत् १७५७ चेत वदी एकम को एक नया स्थान ‘होलगढ़’ रचकर ‘होला महल्ला’ खेलने की नयी रीति चलाई। दो जत्थे बना दिए गए और एक को होलगढ़ पर कब्ज़ा कर मोर्चा कायम करने के लिए कह दिया गया। दूसरे जत्थे को होलगढ़ पर चढ़ाई करने का हुक्म दे दिया गया। डेढ पहर दोनों तरफ से घमासान युद्ध हुआ । तीर और गोली चलाने की मनाही थी, क्योंकि दोनों तरफ खालसाई फौजें थीं। दोनों फौजों में अंतर रखने के लिए होलगढ़ पर काबिज़ जत्थे के वस्त्र सफेद थे और दूसरे दल के हलके केसरी।

आज भी होले महल्ले की परंपरा सिंघों में उसी तरह चली आ रही है। श्री नंद साहिब के अतिरिक्त श्री अमृतसर में भी निशान साहिब की ताबिया, श्री अकाल तख़्त साहिब से महल्ला चढ़ता है, जो शहर की परिक्रमा करता हुआ, बुर्ज बाबा फूला सिंघ पर समाप्त होता है। इस महल्ले में कई प्रकार के जौहर दिखाने वाले जत्थे, घुड़सवार निहंग, गतका पार्टियां, मोटर साईकिल और स्कूटर सवार नवयुवक और बैंड पार्टियां, स्त्री जत्थे, सिंघ सभा तथा अन्य सभा सोसायटियां और संगत शामिल होती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय रूप में कई शहरों, कसबों, नगरों और गांवों में भी ‘होला महल्ला’ मनाया जाता है।

यह चढ़दी कला वाला त्योहार भारत वर्ष के अतिरिक्त विदेशों में भी बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह अलग बात है कि स्थानीय रूप में इस त्योहार को मनाने के ढंग तरीकों में विभिन्नता हो ।
‘होला महल्ला’ एक वह पवित्र त्योहार है, जो कलगीधर पातशाह जी ने भारतीय समाज, संस्कृति और सभ्याचार को एक अनूठे और अद्वितीय ढंग से मनाने के लिए नए सिरे से प्रेरणा बख़्शश करते हुए, शुरू किया था। गुरु जी का मनोरथ और मंशा थी कि दबे-कुचले भारतीयों में शूरवीरता, आत्म सम्मान और सांझीवालता के जज़्बे का संचार किया जाए ।

धर्म की रक्षा हेतु, मानवीय कदरों – कीमतों की सच्चे सुच्चे ढंग से स्थापना करने के लिए झूठ और पाखंड के मुकाबले हेतु सच तथा चढ़दी कला के जज़्बों के संचार के लिए होले महल्ले जैसा कौमी त्योहार, ऐसा रंग लाया। इस पक्ष से खालसा जी का यह त्योहार सदैव चढ़दी कला वाले त्योहार के रूप में मनाए जाने की मांग करता है।