प्रिं नरिंदर सिंघ ‘सोच’ (दिवंगत)
(प्रिंसीपल नरिंदर सिंघ ‘सोच’ सिक्ख जगत के पाठकों के लिए किसी पहचान के मुहताज नहीं हैं। उनकी रचनाओं में नितांत गहराई तथा भाषा में सरलता है और लेखन शैली की अमीरी पाठकों की चेतना को अंदर तक स्पर्श करती है। प्रिंसीपल साहिब का ‘गुरमति प्रकाश’ (पंजाबी – मासिक ) के अगस्त १९६७ तथा अगस्त २०१६ अंक में प्रकाशित हुआ यह आलेख ‘गुरमति ज्ञान’ में प्रकाशित करने की खुशी ले रहे हैं। इस आलेख में कनाडा से आए एक दंपती को लेखक दंपती अपने घर बुलाता है। वे आपस में बातचीत करते हैं। -संपादक)
… बातें चल रही थीं कि उनकी पंद्रह महीने की बच्ची खेल छोड़ कर दूध जैसा सफेद कपड़ा उठाकर ले आई। बीबी कौर ने अपनी घड़ी की तरफ देखा और कहा, “मेरी घड़ी से मेरी बच्ची की घड़ी का टाइम हमेशा ठीक रहता है। अब आठ बज गए हैं और यह अपना कपड़ा लेकर सोने के लिए आ गई है। मुझे इस तरह प्रतीत होता है, जैसे इस कपड़े में नींद की गठरी बंधी हुई है । ”
बीबी कौर ने अपनी बच्ची के दिन के कपड़े उतार कर रात के (खुले ) कपड़े पहना दिए। सरिये के जंगले वाली पलंगड़ी पर सफेद बिछाई कर दी गई। उसे दोहरे कपड़े का लंगोट – सा बांध दिया और दूध की बोतल उसके मुंह में लगा दी। मां ने अपनी बेटी की नींद के लिए ‘सोहिला साहिब’ का पाठ किया। इधर ‘सोहिला साहिब’ के पाठ का भोग पड़ा (संपूर्ण हुआ), उधर बोतल का दूध खत्म हो गया। मां ने दूध के साथ-साथ ‘सोहिला साहिब’ का पाठ सुनाया। पंद्रह महीने की बच्ची ने अपनी मां से दूध पीया और साथ-साथ पाठ को ध्यान से सुना । मुझे ऐसे लगा जैसे मां ने अपनी बेटी के चारों तरफ एक और सुरक्षा का सुनहरी जंगला खड़ा कर दिया हो; जैसे कूंज ने लंबी उड़ान भरने से पहले अपने अंडों को सायबेरिया की गर्म बर्फ की तह में छिपा दिया हो; जैसे मादा कछुआ ने अपने अंडे बाहर धरती पर रख कर नदी में जाने की तैयारी कर ली हो; जैसे प्रह्लाद भक्त को यकीन दिलाने के लिए कुम्हारिन ने बिल्ली के छोटे-छोटे बच्चे जलते आवे में ‘प्रभु रक्षक’ कह कर छोड़ दिए हों । बीबी कौर ने ममतामयी हृदय से अरदास की। बीबी कौर की पंद्रह महीने की बच्ची ने अरदास सुनी। बीबी कौर ने बच्ची को हाथ जोड़ कर ‘सति श्री अकाल’ बुलाई। बच्ची ने हाथ जोड़ कर ‘सति श्री अकाल’ का उत्तर दिया।
हमें बीबी कौर ने उठने का इशारा किया। हम दोनों उठ कर कमरे से बाहर आ गए। बाहर आकर उसने धीरे से दरवाज़ बंद कर दिया। दरवाज़े के बंद होने से बीबी कौर की पंद्रह महीने की छोटी-सी बच्ची ने नींद से भरी हुई पलकों को बंद कर दिया । ‘सोहिला साहिब’ की गोद में पंद्रह महीने की बच्ची की पवित्र आत्मा सो गई । आज उसकी रात की नींद की चार सौ पचपनवी बारी थी। वह बच्ची जन्म से लेकर आज तक रात को अपनी मां की गोद में नहीं सोई, बल्कि मां ने हमेशा (अपनी गोद से बहुत ऊंची) ‘सोहिला साहिब’ की गोद में अपनी बच्ची को सुलाया था।
यह बच्ची प्रातः काल अपनी घड़ी के अनुसार सात बजे जाग जाएगी, अपनी ओदने वाली दूध जैसी सफेद चादर को पैर मार कर दूर फेंक देगी, जैसे सूरज रात को दूर फेंक देता है । बीबी कौर की बच्ची चादर को ऊपर नहीं ले सकती। वह केवल उससे मुंह छिपा लेती है या छोड़ देती है।
बच्ची के आसमानी रंग के कमरे में एक धीमा – सा बल्ब जलता रहता है। बच्ची जब कभी जागती है, वह बल्ब की तरफ देखती है। उसका वही चांद है, वही सूरज है, उसी एक की अनेक ऋतुएं हैं। वह देखते-देखते फिर सो जाती है, क्योंकि उसकी घड़ी पर अभी तक ठीक सात नहीं बजे । यह ‘सोहिला साहिब’ की करामात है ।
मेरी पत्नी ने बहन कौर से कहा, “यह बहुत अच्छी बात है। इससे बच्चा किसी पर निर्भर होने की आदत से बच जाता है और अपनी मुश्किलों के साथ खुद ही लड़ने का सामर्थ्य पैदा कर लेता है।”
बीबी कौर हंस कर बोली, “बहन जी! यह बात मैंने आपसे ही सीखी है। आपने अपने छोटे लड़के को तारे दिखाई देने पर सोने की आदत डाल दी थी और जब वह तारे निकलते देखता था उसी समय ‘तारे लटक गए’ कह कर अंदर अंधेरे कमरे में जाकर अकेला सो जाता था । समय पर सोना और समय पर जागना लगातार सालों के अभ्यास का अमृत फल है।”
धर्म का भी बीज बोया जाता है; धर्म की भी कलम लगाई जाती है; धर्म की भी पौध उखाड़ कर खुली क्यारी में लगाई जाती है। कोई बीज धरती के बिना नहीं उगता, कोई फूल सूरज और चांद की किरणों के बिना नहीं खिलता, कोई भी कली अपने पोषक सूरज-किरणों के रंगों के बिना रंग नहीं सकती, कोई भी फूल धरती की गोदी के बिना सुगंध प्राप्त नहीं कर सकता। जब एक मां सेवा करती- करती बिना उफ किए चौंकी के नुकीले कील पैर की छत पर चुभोकर पानी को लहू-लुहान कर सकती है तो उसी की कोख को सफल – कर्ता गरम तवी पर बैठ सकता है और गर्म बालू सिर पर डलवा कर बिना उफ किए पाठ कर सकता है। जिनके इतिहास में स्त्रियां मंनू के भोरे में कैद रहती हैं, उनके घर में खोपड़ियां उतरवाने वाले, बंद बंद कटवाने वाले और आरे से शरीर चिरवाने वाले पैदा होते हैं।
आज के मनोविज्ञानी मानते हैं कि पचानवे फीसदी मनुष्यों पर वातावरण का प्रभाव होता है। अगर विरसा नाम की कोई चीज़ है तो वह केवल पांच फीसदी होती है और वह भी ज्यादातर शारीरिक होती है। माता या पिता विरासत में बिल्ली जैसी आंखें या घुंगराले बाल तो पुत्र-पुत्रियों को दे सकते हैं, मगर बिल्ली जैसी आंख के साथ-साथ अपनी जिंदगी का दृष्टिकोण नहीं दे सकते। माता-पिता अपने बच्चों को धार्मिक वातावरण दे सकते हैं और इस काम के लिए माता-पिता समर्थ होते हैं ।
सबसे पहली संस्था घर ही होता है, जहां बच्चों की आने वाली जिंदगी की नींव रखी जाती है। मेरे सामने एक गुरसिक्ख की तस्वीर सामने आई, जिनकी गोद में उनकी बिना मां की बच्ची होती थी और वे सर्दी की रातों में तीन बजे स्नान करके अकेले ही अपने घर कीर्तन करने बैठ जाते थे। उनके दाएं हाथ में एक तारा होता था और बाएं हाथ में खड़तालें । उनकी आवाज़ न सुरीली थी और न रसीली, परंतु उनके दिल में गुरबाणी – प्रेम की लहरों वाला दरिया बहता था । उनकी लय काफी तेज़ थी और वे सात-सवा सात बजे तक सारी ‘आसा की वार’ और ‘सुखमनी साहिब’ के कीर्तन का भोग डाल देते थे। वे कीर्तन करते-करते कुछ खास तुकों पर रुक जाते और उनको बार-बार दोहराते । मुझे इस तरह प्रतीत होता, जैसे वे अपने गुरु – पिता जी के साथ प्रेम हठ कर रहे होते हैं और गुरु जी को उनके प्रेम- हठ के आगे अपने हथियार डालने पड़ते। अगर वे बाणी के द्वारा नाम की मांग करते तो उनको नाम मिल जाता। अगर वे दर्शन की मांग करते तो उनको प्रत्यक्ष दर्शन हो जाते। अगर वे बख़्शश की मांग करते तो उन पर गुरु-कृपा की बारिश होने लग जाती । अगर वे मलिन मन की शुद्धता की मांग करते तो मन पवित्र जल की तरह निर्मल हो जाता ।
वे लगातार साठ वर्ष तक श्री गुरु रामदास जी के दरबार श्री दरबार साहिब के रोज़ दर्शन करते रहे। लगातार साठ वर्ष तक शाम को पांच परिक्रमा करते हुए ‘रहरासि साहिब’ का पाठ करते रहे। उनको रोटी से कई बार भूखे रहना पड़ा, परंतु उन्होंने कभी नित्तनेम में नागा नहीं किया । उनको कई बार प्यासे रहना पड़ा, परंतु वे हर महीने श्री गुरु ग्रंथ साहिब के पाठ का खुद भोग डालते। यह भोग वे संक्रांति वाले दिन डालते थे, जिस दिन नए महीने का नाम (पाठ) सुनाया जाता था। साथ ही एक साधारण पाठ और रखा जाता था ।
बहुत जल्दी उनकी लड़की ने उतना पाठ याद कर लिया, जितना उसके पिता जी को आता था। वह श्री गुरु ग्रंथ साहिब का बिना नागा किए पाठ करने लग गई। अब उनके घर महीने बाद दो साधारण पाठों का भोग पड़ता । उनके पिता अपनी दुबली-पतली और छोटी उम्र की लड़की के लिए बाबा जी की एक छोटी ‘बीड़’ ले आए। उनकी लड़की अब बाबा जी का खुद प्रकाश करने लगी, खुद सुखासन करने लगी, खुद महीने बाद साधारण पाठ का भोग डालने लगी, प्रातः काल उठ कर त्रिपहरे जाने लगी, नित्तनेम के साथ छबील के बर्तनों की सेवा करने लगी ।
परीक्षा का समय आया । गुरमुख प्यारे का लड़का कठिन पलों पर आ गया। अच्छी सेहत के लिए श्री अखंड पाठ साहिब प्रारंभ कर दिया गया। श्री अखंड पाठ साहिब मध्य में आ गया। गुरमुख प्यारा उठा और अरदास करने लगा। “सतिगुरु ! हम कमज़ोर कलयुगी जीव हैं। अगर अभी कोई घटना घटित हो गई तो हो सकता है हम पूरे ध्यान से आप जी की सेवा न कर सकें, पाठ में पूरा मन न लगा सकें। आप अपनी संपूर्ण बाणी का पाठ सुन लो, फिर जो आपको अच्छा लगे कर लेना ।” यह अरदास करके सिंघ जी ने गुरु को नमस्कार की ।
जैसे दीया बुझता – बुझता बुझने से पहले एक बार फिर तेज होता है, वैसे ही लड़के में फिर जीवन-गति चल पड़ी। इस तरह लगता था, जैसे लड़का बीमार हुआ ही नहीं । सारे काम उत्साह के साथ होने लगे। सभी बधाइयां देने लगे, मगर गुरमुख प्यारे साधारण हूं-हां कर देते ।
श्री अखंड पाठ साहिब का भोग पड़ा। रागियों ने बड़े उत्साह में आकर कीर्तन किया। दो दिन में सबका सामान वापिस भेज दिया गया। तीसरे दिन, जिसने सुपुत्र की रहमत प्रदान की थी, वह लेने आ गया।
गुरमुख प्यारे ने फिर अरदास की, “सतिगुरु जी ! आप जी ने बहुत ही कृपा की है। जितने समय की मैंने मांग की थी, उससे भी दो दिन ज्यादा प्रदान किए हैं। श्री अखंड पाठ साहिब की निर्विघ्न समाप्ति की है और अब हम आपके हुक्म के बाद बच्चे की आत्मा के लिए साधारण पाठ रखेंगे।
अपने बच्चे को पिता बड़े उत्साह के साथ लेकर गया और सबसे कह दिया कि यह मेरा एकमात्र पुत्र है। मैं उसकी बारात लेकर जा रहा हूं। मुझे बधाई दो, परंतु मेरे साथ शोक की कोई बात न करो । विवाह के समय शोक की बातें करनी ठीक नहीं हैं।
जिस दिन इस गुरु प्यारे ने खुद प्रस्थान करना था, रात भर बेहोश पड़ा रहा। अमृत वेले उसकी नींद खुली और उसने अपनी लड़की से कहा, “त्रिपहरा हो गया है। जाओ अपने सतिगुरु का दर्शन करो। ” लड़की सीढ़ियों के द्वारा दर्शन करने के लिए जा रही थी और उसके पिता जी आकाश मार्ग के द्वारा सतिगुरु के चरणों में पहुंच रहे थे ।
उनकी लड़की को दो बार पांच-सात सौ मील की दूरी पर श्री अमृतसर से जाना पड़ा। वे बहुत बार वाहिगुरु-वाहिगुरु कहते हुए सवा तीन बजे उठ जाते और जब उनको पूछा जाता, क्या बात है, तो वे चुप कर जाते । मज़बूर करने पर वे बता देते कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब की सवारी श्री हरिमंदर साहिब जा रही है और मेरे कानों में नरसिंघों की आवाज़ आ रही है, यह सुनो! पांच या सात सौ मील की दूरी कोई दूरी नहीं, जहां नरसिंघे की आवाज़ न जा सके। आठ-नौ सौ मील की दूरी कोई दूरी नहीं, जहां पड़े हुए बच्चे के पालने को हिलाया न जा सके ।
दूर बैठ कर तराजू के बांट बदले जाते हैं; दूर बैठ कर आग बुझाई जाती है; दूर से जलती हुई भट्टी की आंच अनुभव की जा सकती है; दूर से किसी गुरसिक्ख के मुंह के द्वारा आम चूसा जा सकता है; दूर से तैयार की हुई पोशाक पहनी जा सकती है। शारीरिक पूजा से मानसिक पूजा की बाजुएं लंबी होती हैं ।
महात्मा बुद्ध ने ठीक कहा था, “एक बुद्धों का खानदान है। मैं आपके राजाओं के खानदान में से नहीं हूं। मैं बुद्धों की पुरानी पीढ़ी में से हूं।” सिक्खी का भी एक अपना खानदान होता है।
सिक्खी का पौधा माता-पिता की गोद में जड़ लगा कर ऊपर उठता है । बीबी भानी जी ने माताओं का मार्गदर्शन किया है। इन्हीं माताओं के पास सच्ची लोरी है । इसी से माताएं अपने पुत्रों को सुपुत्र बना सकती हैं। इसी से माताएं अपने पुत्रों में सिमरन की अलख जगा सकती हैं। इसी से माताएं प्रीति का मार्ग बता सकती हैं। इसी से माताएं प्रभु के कपड़े पहन कर अपने बच्चों का नंगेज ढक सकती हैं। श्री गुरु अरजन देव जी ने जो लोरियां और आशीषें अपनी माता जी से सुनी थीं, वे राग गूजरी में वर्णन की हैं :
जिसु सिमरत सभि किलविख नासहि
पितरी होइ उधारो ॥
सो हरि हरि तुम्ह सद ही जापहु
जा का अंतु न पारो ॥१॥
पूता माता की आसीस ॥
निमख न बिसरउ तुम्ह कउ हरि हरि
सदा भहु जगदीस ॥१॥ रहाउ ॥
सतिगुरु तुम्ह कउ होइ
संतसंग तेरी प्रीति ॥
कापड्डु पति परमेसरु राखी भोजनु कीरतनु नीति ॥२॥
अम्रितु पीवहु सदा चिरु जीवहु
हरि सिमरत अनद अनंता ॥
रंग तमासा पूरन आसा कबहि न बिआपै चिंता ॥३॥
भवरु तुम्हारा इहु मनु होवउ
हरि चरणा होहु कउला ॥
नानक दासु उन संगि लपटाइओ
जिउ बूंदहि चात्रिकु मउला ॥ ( पन्ना ४९६ )