महाराजा रणजीत सिंघ की पंथक सोच

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October 05, 2025

सिक्ख कौम महाराजा रणजीत सिंघ पर फख्र करती है, क्योंकि वे पंजाब के ही नहीं बल्कि हिंद उप महाद्वीप के आखिरी स्वतंत्र, आज़ाद और खुदमुख्तार शासक थे, जिनकी कीर्ति पूरे संसार में फैली हुई थी। उन्होंने ऐसा सिक्ख राज (सत्ता) कायम किया, जिसमें तीन कौमें-सिक्ख, हिंदू और मुसलमान बराबर की हिस्सेदार थीं। उन्होंने गुरु-आशय के अनुसार सरबत्त के भले का मार्ग चुना, जहाँ उन्होंने शासन-काल में हर किसी को अपने-अपने धर्म के अनुसार जीने की आज़ादी थी। उन्होंने सिक्खों के धार्मिक स्थानों के साथ-साथ एवं बड़ी राशि जागीर हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक स्थानों के नाम अलाट की, जो अब तक भी कायम हैं। वे जब भी मुल्क में दूर-दराज दौरे पर निकलते तो वे अपने धार्मिक स्थानों के साथ-साथ हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक स्थानों पर भी पहुँच कर अपने श्रद्धा-सुमन भेंट करते। उन्होंने पंजाब में पंजाबियों का सांझा राज स्थापित किया, जिस सबसे अधिक आबादी उस समय मुसलमानों की थी, फिर हिंदुओं की और सबसे कम सिक्खों की, जो कुल आबादी की मात्र १० प्रतिशत ही थी। वे सिक्खों के ही नहीं, बल्कि सभी लोगों के बादशाह थे और सभी उनको प्यार से देखते थे। हज़ारों वर्ष बाद पंजाब में सिक्खों की सत्ता स्थापित हुई थी, जो पंजाब की सीमा से आगे फैलती हुई अफगानिस्तान, चीन व तिब्बत तक जा फैली थी।

उन्हें विरासत में अपना मिसलदारी राज मिला था, जिसकी बुनियाद मुग़ल हाकिमों और अफगानी हमलावरों के अत्याचार के समय से ही रखी जा चुकी थी। वे मिसलदारों के ऊँचे सिक्खी इखलाक एवं आचरण से भी वाकिफ थे, जो अपनी कौम का वजूद बचाने के साथ-साथ मुगलों और विदेशी हमलावरों- नादिर शाह तथा अहमद शाह अब्दाली जैसे आक्रमणकारियों के साथ टक्कर लेते हुए हिन्दोस्तान की महिलाओं की मान-मर्यादा के रक्षक बने हुए थे।

इतना कुछ हासिल करने के बावजूद महाराजा ने अपनी पंथक सोच न गंवायी। उन्होंने अपने मुल्क के राजाओं और अमीरों को जीतने के बाद उन्हें गलियों में नहीं रुलने दिया, बल्कि उनके निर्वाह के लिए जागीर उनके नाम लगा दी। उन्होंने अपने आप को राजा या महाराजा न कहलवाया और न ही सरकारी दस्तावेजों में लिखवाया। वे अपने आप को ‘खालसा जी’ कहलवाते रहे और सरकारी दस्तावेजों में भी अधिक से अधिक ‘सरकार खालसा जी’ लिखते रहे। महाराजा का दरबारी इतिहासकार लाला सोहन लाल सूरी अपने फ़ारसी में लिखे हुए इतिहास ‘उमदात-उत-तवारीख’ में भी उन्हें ‘खालसा जी’, ‘सरकार खालसा जी’ ही लिखता
रहा। अन्य इतिहासकारों ने उन्हें ‘महाराजा’ लिखा है।महाराजा अहम फैसले श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के दिशा-निर्देशा में लेते थे और गुरु महाराज का प्रकाश हमेशा उनके अंग-संग रहता था, जो उनके अंत समय तक भी रहा। महाराजा अंग्रेज़ों के साथ कुटिल नीति हुए उनके साथ सभ्यक ढंग से पेश आते रहे। वह अंग्रेजों के नापाक इरादों से वाकिफ थे, जो अपने साम्राज्य की सीमा अफगानिस्तान तक लाना चाहते थे। इस सम्बन्ध में आज के प्रसिद्ध लेखक सरदार अजमेर सिंघ लिखते हैं कि महाराजा इन नापाक मंसूबों से शुरू से ही वाकिफ़ थे और पंथक सोच रखते हुए अंग्रेज़ों को यमुना तक ही रोक देना चाहते थे, मगर अंग्रेज़ों के इन कुटिल नीति वाले पंथ-विरोधी मंसूबों को रोकने की बजाय, महाराजा रणजीत सिंघ का साथ न देते हुए, सिक्ख कौम के कुछ रजवाड़े, खास कर सतलुज पार मालवा क्षेत्र के, महाराजा के इस कौमी जज्बे को नुकसान पहुंचाने में पंथ-विरोधी भूमिका निभा रहे थे।

उन्होंने अपनी विजय को सतिगुरु की बख्शिश बताया और राजाओं वाले चिह्न व दस्तूर न अपनाए। वे प्रत्येक विजय के बाद श्री अमृतसर साहिब पहुँचते और प्रत्येक संक्रांति को श्री दरबार साहिब में हाजिरी अवश्य भरते। उनकी जो भी सम्पत्ति थी, खजाना, हीरे-जवाहरात थे, सब लोगों के लिए और देश की उन्नति के लिए थे। उन्होंने न अपने लिए और न ही अपनी औलाद के लिए कोई महल खड़े किए या जो भी बनाए वे कौमी विरासत घोषित किए गए। महाराजा ने ऐसी खालसा फ़ौज खड़ी की, जिसके मात्र तीन ब्रिगेडों (कुल २२ ब्रिगेड) ने फिरोज
शाह की लड़ाई के समय अंग्रेज साम्राज्य को हिला दिया था और उनकी सारी फ़ौज को एक – समय पर हथियार डालने के लिए विवश कर दिया था। गद्दार कमांडरों के कारण खालसा फ़ौज अपनी इस जीत का फ़ायदा न उठा सकी।

महाराजा के दिल में पंथक-प्रेम विद्यमान था, – जो कि अपनी कौम के प्रति वफादारी निभाने के – लिए उन्हें प्रोत्साहित करता रहता था। इतिहास – में दर्ज है कि उन्होंने सतलुज पार की सिक्ख रियासतों के साथ प्यार का रिश्ता बनाए रखा और इन रियासतों के शासक महाराजा के पारिवारिक समारोहों में उपस्थित होते थे। एक बार लुधियाना स्थित अंग्रेज़ पोलिटिकल सफ़ीर कैप्टन वेड ने महाराजा के साथ हुई मुलाकात के समय कहा कि बेशक आप सतलुज से पार इन रियासतों के राजाओं को इतना आदर-मान देते हो, परन्तु आप पर आई मुश्किल के समय ये लोग अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध आपकी कोई मदद नहीं करेंगे।

ऐसे महाराजा, जो अपनी प्रजा के साथ तन-मन से जुड़े हुए थे, गुरु-घर से कभी विमुख नहीं हुए थे और अपनी हर कामयाबी का श्रेय अपनी पंथक सोच के कारण परमात्मा को ही देते थे। उनकी इसी सोच ने प्रत्येक लड़ाई जीतते हुए खालसा के विजयी होने के सिद्धांत को व्यवहारिक रूप प्रदान किया, जो उनके देहांत के बाद भी एंग्लो-सिक्ख लड़ाइयों तक जारी रहा – था। मुदकी की लड़ाई के समय केवल २००० – सिक्ख योद्धाओं ने १२००० से अधिक अंग्रेजों – की फ़ौज के मुँह मोड़ दिए थे, जो कनिंघम, कर्नल मालेसन और जॉर्ज ब्रूस सहित कई – इतिहासकारों ने दर्शाया है

-स. हरभजन सिंघ