नानकशाही नववर्ष के शुभारंभ पर विशेष
– डॉ. सत्येन्द्र पाल सिंघ*
श्री गुरु नानक साहिब का सिक्ख उस एक परमात्मा में विश्वास रखता है जो सम्पूर्ण सृष्टि
का रचयिता, पालक और सहायक है :
बेद पुराण कथे सुणे हारे मुनी अनेका ॥
अठसठि तीरथ बहु घणा भ्रमि थाके भेखा ॥
साचो साहिबु निरमलो मनि मानै एका ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १००८ )
गुरसिक्ख उस परमात्मा में विश्वास रखता है जो मनुष्य के ज्ञान से परे है, धर्म-कर्म, वेश, हठ से भी परे है। वह सर्वसमर्थ है और एकमात्र निर्मल शक्ति है। श्री गुरु नानक साहिब ने कहा कि परमात्मा सृष्टि की रचना से भी पूर्व था और कितने ही युग उसने गुबार, अंधकार में ही व्यतीत कर दिये। उस अथाह शक्तियों के स्वामी ने अपने एक साधारण से संकेत द्वारा अपार सृष्टि रच दी। वह युगों का सृजनकर्ता है और अपनी इच्छानुसार युगों को चला रहा है :
जुग छतीह तिनै वरता ॥
जिउ तिसु भाणा तिवै चलाए ॥
तिसहि सरीकु न दीसै कोई आपे अपर अपारा हे ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १०२६)
दिन, महीने, वर्ष नहीं, सारे युग, जिनकी गणना मनुष्य काल के संदर्भ में करता है, परमात्मा के बनाये हुए हैं। सभी युग उसके अधीन हैं और उसकी आज्ञा में ही घटित हुए है। इसमें किसी अन्य शक्ति का कोई योगदान नहीं है क्योंकि परमात्मा के तुल्य कोई है ही नहीं। परमात्मा की शक्ति ऐसी है कि उसने शून्य से ही सारी सृष्टि रच दी । काल भी उसने शून्य से ही रचा है :
सुनहु राति दिनसु दुइ कीए । (श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १०३७ )
सरल शब्दों मे कहें तो परमात्मा कुछ नहीं को सब कुछ कर देने वाला है। उसकी शक्ति की कल्पना भी संभव नहीं है । वह उसे भी संभव करने वाला है जिसे मनुष्य असंभव मान लेता है। मनुष्य ने जीवन की अपनी गणनायें बना ली हैं । किन्तु, यह बड़ा भ्रम है। परमात्मा के लिए मनुष्य की गणनाओं का कोई अर्थ है। वह जो चाहता है वही करता है, सृष्टि में वैसा ही घटित होता है :
साहा गणहि न करहि बीचारु ॥
साहे ऊपरि एकंकारु ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना ९०४ )
मानव-सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य के ज्ञान का क्षेत्र व्यापक होता गया । मनुष्य की सबसे बड़ी उत्सुकता सृष्टि का रहस्य जान लेने की रही है। वह सृष्टि पर अपना हुक्म चलाने को भी आदि काल से ही लालायित रहा है। उसने सृष्टि का रूप भी विकृत करने में कोई संकोच नहीं किया है। मनुष्य ने निज स्वार्थ में पहाड़ काट दिये, नदियों का रुख मोड़ दिया, जंगल साफ कर दिये, रात के अंधकार को उजाले में बदल दिया, बादल बना लिये, कृत्रिम शीत और ऊष्मा भी तैयार कर ली है। अपना विधाता स्वयं बन जाने की उसे धुन लगी हुई है। यह धुन ही उसके दुखों का कारण बनती है, क्योंकि यह उसे परमात्मा से विमुख करती है । गुरु साहिबान का मार्ग मानवता को परमात्मा के साथ एक दास, सेवक की भांति जोड़ने और उसकी आज्ञा, इच्छा के अधीन रहने का मार्ग था, इसीलिये गुरु साहिबान ने किसी भी गणना, हठ, कर्मकांड, शुभ–अशुभ के भ्रम से दूर रह कर मात्र परमात्मा की कृपा में रहने के लिये प्रेरित किया और परमात्मा की कृपा प्राप्त करने का मार्ग भी दिखाया :
गणत गणीऐ सहसा दुखु जीऐ ॥
गुर की सरणि पवै सुखु थीऐ ॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना ९०४ )
गुरसिक्ख गणना, शुभ-अशुभ, मुहूर्त का मार्ग नहीं अपनाता, क्योंकि यह दुख उत्पन्न करता है। इसके विपरीत वह परमात्मा की शरण लेता है और सुख की अवस्था प्राप्त करता है। समाज में समय की गणना के भ्रम अति गहरे थे। दिन ही नहीं, पलों की गणना भी शुभ-अशुभ की दृष्टि से की जाती थी। मनुष्य धर्म-कर्म के लिये भी समय, मुहूर्त का विचार करता था, जैसे अमावस्या को विशेष पूजा, दान- स्नान आदि का विचार किया जाता था । श्री गुरु नानक साहिब ने कहा कि अमावस्या तो झूठ, असत्य व अन्याय है और वास्तविक चंद्रमा सत्य है, जो झूठ को दूर करने वाला है—– “कूडु अमावस सचु चंद्रमा दीसै नाही कह चड़िआ ॥” सर्वश्रेष्ठ सत्य है, चंद्रमा नहीं। चिंतित करने वाला असत्य है, अमावस्या नहीं। अमावस्या का अंधकार कितना ही घना हो, असत्य उससे अधिक स्याह होता है । अंधकार कैसा भी हो परमात्मा की महिमा का गायन प्रकाश बन सर्वत्र प्रकाशित कर देता है- “ कलि कीरति परगटु चानणु संसारि ॥” भी अशुभ मानता है, जिससे भयभीत होता है वह अंधकार है। परमात्मा कृपालु हो तो सारे अंधकार दूर हो जाते हैं- “मिटिओ अंधेरु मिलत हरि नानक जनम जनम की सोई जागी ॥ ” परमात्मा जन्मों-जन्मों के अंधकार मिटाने वाला है। गुरसिक्ख ऐसे महान परमात्मा की शरण लेकर काल, मुहूर्त, गणना के सारे भ्रम से मुक्त हो जाता है । वह चिंतामुक्त हो जाता है। श्री गुरु अरजन साहिब ने कहा है कि परमात्मा की कृपा समय को अनुकूल करने वाली है :
माह दिवस मूरत भले जिस कउ नदरि करे ॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३६ )
गुरु साहिबान भारतीय भू-भाग में बसने वाले मानव समाज की मानसिकता और स्थाप विश्वासों को भली-भांति जानते थे। मानव समाज द्वारा पाले गए भ्रम आदि आत्मिक विकास और परमात्मा के संग मेल के मार्ग में बाधक थे। वर्ष आरंभ होने से पूर्व ही गणनायें और भविष्यवाणियां होने लगती थीं। श्री गुरु नानक साहिब ने इस भ्रम से मुक्त करने के लिये वर्ष के सभी बारह महीनों की व्याख्या वाली बाणी उच्चारण की जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब में तुखारी राग के अधीन ‘बारह माहा’ शीर्षक के अंतर्गत पन्ना १९०७ से पन्ना १११० तक अंकित है। श्री गुरु अरजन देव जी ने भी ‘बारह माहा’ शीर्षकाधीन मांझ राग में बाणी उच्चारण की है जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब में पन्ना १३३ से पन्ना १३६ तक अंकित है । इस बाणी का सार श्री गुरु अरजन साहिब ने उपरोक्त एक पंक्ति में समाहित किया है कि उस मनुष्य के सभी महीने, सभी दिन, सभी पल शुभ फल देने वाले हो जाते हैं जिस पर परमात्मा की कृपा होती है । गुरु साहिब ने प्रेरित किया है कि मनुष्य का हित परमात्मा की कृपा प्राप्त करने में है । वह इसके लिये ही यत्न करे, किसी अन्य भ्रम में न पड़े। गुरु साहिब जानते थे कि मनुष्य को प्राप्त यह जीवन अत्यंत दुर्लभ अवसर की तरह है। व्यर्थ के भ्रम, आशंकाओं में यह अवसर व्यर्थ न चला जाये, इसलिये गुरु साहिब ने पूर्ण एकाग्र हो परमात्मा की भक्ति के लिये प्रेरित किया। श्री गुरु अरजन साहिब ने इसके लिये अत्यंत सशक्त तर्क दिया :
किरति करम के वीछुड़े करि किरपा मेलहु राम ॥ चारि कुंट दह दिस भ्रमे थकि आए प्रभ की साम ॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३३ )
मनुष्य अपनी बुद्धि और बल का प्रयोग करते हुए धरती के चारों कोनों, आठों दिशाओं में, ऊपर-नीचे अर्थात् कहीं भी खोज ले, कोई भी प्रयास कर ले, कैसा भी विधि-विधान, युक्ति कर ले, उसे निराशा ही मिलती है। उसके दुख, संताप बने रहते हैं। अपने ऐसे आचरण के कारण वह परमात्मा से दूर ही रहता है। अंत में परमात्मा की शरण ही बचती है जहां उसके दुखों का अंत हो सकता है। यदि चारों ओर से थके हारे मनुष्य को यह समझ आ जाये तो वह परमात्मा से कृपा की प्रार्थना करे। गुरु साहिब ने कहा कि परमात्मा की कृपा मनुष्य के जीवन को वैसे ही सार्थक बनाती है जैसे दूध किसी गाय को स्वीकार्यता प्रदान करता है। जिस गाय में दूध नहीं, उस गाय को कहीं भी ठौर नहीं । परमात्मा की कृपा दूध के समान ठौर देने वाली है। गुरु साहिब ने दूसरा उदाहरण खेत की फसल का दिया है, जो जल के बिना सूख जाती है। ऐसी फसल का कोई मूल्य नहीं मिलता । परमात्मा की कृपा जल की तरह है जो मनुष्य के जीवन को गुणवान बनाती है, ताकि उसके दुख दूर हो सकें। गुरु साहिब ने आगे समझाते हुए कहा है कि परमात्मा की कृपा का मनुष्य के जीवन में वह स्थान है जो एक स्त्री के जीवन में उसके पति का होता है। पति का होना पत्नी को निश्चिंत करता है । परमात्मा की कृपा मनुष्य को आश्वस्त करती है। मनुष्य के पास जो भी है वह नाशवान है। परमात्मा की कृपा नहीं तो कितने भी संबंधी, मित्र आदि हों, सहायक सिद्ध नहीं होते। जैसे मात्र पति ही अंतत: पत्नी का हित करता है वैसा ही परमात्मा है। श्री गुरु अरजन साहिब ने दूध न देने वाली गाय को भ्रम, बिना जल की खेती को कर्मकांड, पति से बिछड़ी पत्नी को अधर्म, सांसारिक पदार्थों को असत्य और सांसारिक संबन्धों को मिथ्या विश्वास के प्रतीक बना कर उनके जाल से बाहर निकालने का उपकार किया। गुरु साहिब ने अपने विचार का विस्तार करते हुए वर्ष के सभी महीनों की चर्चा की।
‘बारह माहा’ नामक अपनी बाणी में श्री गुरु अरजन साहिब ने मनुष्य को परमात्मा के संग जोड़ने के लिये प्रत्येक माह के गुणों-दोषों को आधार बनाया। इससे बाणी जहां रोचक हुई वहीं गुरु साहिब की प्रेरणा सीधे मन में उतरती गई । हिन्दू वर्ष की तरह सिक्ख वर्ष भी ‘चैत्र’ माह से आरंभ होता है जिसे चेत कहा गया है। अंतिम माह फाल्गुन है, जिसे ‘फग्गण’ कहा जाता है। (वर्तमान काल में ) चेत माह में अंग्रेजी महीने मार्च का द्वितीय पखवाड़ा और अप्रैल महीने का प्रथम पखवाड़ा आता है । इसी तरह क्रम आगे बढ़ता जाता है। अंतिम महीने फग्गण (फाल्गुन) में फरवरी का पूर्वार्ध और मार्च का उत्तरार्ध शामिल होता है। क्योंकि गुरबाणी समय शुभ-अशुभ का कोई विचार नहीं करती, अतः महीनों के विचार का उद्देश्य मात्र सिक्ख को इससे संबन्धित समस्त भ्रम, दुविधाओं से मुक्त कर सारे समय का उपयोग मन को परमात्मा के साथ जोड़ना और सदैव परमात्मा में रमे रहना है। समय कैसा भी हो ‘बारह माहा’ का विचार सिक्ख को उसका उपयोग परमात्मा की भक्ति में करने का सामर्थ्य और भावना प्रदान करना है। समय सदैव एक समान नहीं रहता । इसका अनुभव हमें वर्ष के बारह महीने कराते हैं। सिक्ख वर्ष का आरंभ बसंत ऋतु से हुआ था, जिसका प्रभाव चैत्र और वैशाख महीने में रहता है। यह मधुर और सरस समय माना जाता है। समय बदलता है । सरसता अब ताप में बदल जाती है। ज्येष्ठ और आषाढ़ माह इसके प्रभाव में रहते हैं । ताप भी सदैव नहीं रहता। अब वर्षा ऋतु अपना प्रभाव दिखाती है और सावन, भादों के महीने जल भरे होते हैं। इसके पश्चात शरद की शीत ताप दूर कर शीतलता प्रदान करती है । तत्पश्चात् शरद का उग्र रूप ठिठुरन और बर्फीले अनुभव देने वाला होता है।
श्री गुरु अरजन साहिब ने समय के भिन्न-भिन्न प्रभावों और परिवर्तनशीलता को जीवन के सच के साथ से जोड़ कर ‘बारह माहा’ की रचना की। इस पावन बाणी का पहला संदेश है कि समय सदैव एक-सा नहीं रहता। सुख है तो सदैव सुख नहीं रहेगा। दुख है तो सदैव दुख नहीं रहेगा। मनुष्य परिवर्तन के लिए सदैव तैयार रहे। गुरबाणी ने कहा कि मनुष्य न सुख सहेजने की चिंता करे, न दुख में निराशा का भाव उत्पन्न कर हताश हो जाये । समय कैसा भी हो, उसका प्रभाव मनुष्य के मूल जीवन – उद्देश्य को प्रभावित और विचलित न करे । इसका मार्ग श्री गुरु अरजन साहिब ने ‘बारह माहा’ नामक बाणी में क्रमानुसार दिखाया है।
अपने जीवन में आनंद सभी चाहते हैं । सांसारिक कारणों से प्राप्त आनंद में ही मनुष्य लिप्त हो जाता है। गुरु साहिब ने इसे अस्थायी बताते हुए सच्चे आनंद के दर्शन कराये हैं :
चेति गोविंदु अराधीऐ होवै अनंदु घणा ॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३३ )
सच्चा आनंद क्या है, इसे जानना आवश्यक है। गुरसिक्ख जानता है कि परमात्मा की भक्ति में ही सच्चा और परम आनंद है। जिसे परमात्मा की भक्ति का रस आ गया उसका ही
संसार में आना सफल है – ” जिनि पाइआ प्रभु आपणा आए तिसहि गणा ॥ ” जीवन में सच्चे सुख की पहचान नहीं है तो सारे सुख-साधन होते हुए भी दुख ही व्याप्त रहता है— “सो प्रभु चिति न आवई कितड़ा दुखु गणा ॥ ” वैशाख के महीने को विशेष रूप से सरसता का समय माना गया है। अपने जीवन में भी कभी ऐसे कारण बनते हैं जब मन में कोमल भावनायें जन्म लेती हैं और मनुष्य मुग्ध हो जाता है। माया विभिन्न रूपों में मन को आकर्षित करती है। श्री गुरु अरजन साहिब ने कहा कि ऐसे मोह और उनसे उत्पन्न होने वाली कोमल भावनायें मिथ्या हैं :
पलचि पलचि सगली मुई झूठे धंधै मोहु ॥ (श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३३ )
इनके भ्रम-जाल में उलझ कर जीवन निरर्थक चला जाता है, कुछ भी प्राप्त नहीं होता । वैशाख निश्चित ही परमात्मा का प्रदान किया सुहावना समय है, किन्तु यह तभी अपना प्रभाव छोड़ता है जब मन परमात्मा में रमा होता है :
वैसाखु सुहावा तां लगै जा संतु भेटै हरि सोइ ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३४ )
जीवन में आनंद के कई कारण बन सकते हैं, किन्तु वे स्थायी नहीं होते । प्रायः मनुष्य उनमें मुग्ध होकर परमात्मा को विस्मृत कर देता है। इससे सुख अंततः दुख में बदल जाता है। समय कोई भी हो, मनुष्य सदैव परमात्मा का ध्यान करे और उसकी शरण में रहे ।
जैसे महीने बदलते हैं वैसे ही सुख को संताप में बदलते देर नहीं लगती । चैत्र और वैशाख आनंद दे रहे थे, अब ज्येष्ठ और आषाढ़ के महीने ताप देकर विह्वल करने आ पहुंचे हैं। इस अवधि का ताप सहन करना कठिन हो जाता है। मनुष्य विवश-सा दिखता है और अधीर होने लगता है। गुरु साहिब ने कहा है कि यह सब परमात्मा के रंग हैं कि अभी तक समय सरस था, अब त्रास देने लगा है। किन्तु, जिसने परमात्मा का आसरा लिया है उसे कुछ भी विचलित नहीं कर सकता। परमात्मा ताप को भी शीतलता में बदल देता है, वह महीने का प्रभाव हो या जीवन की परिस्थितियां। ज्येष्ठ का ही महीना था, जब श्री गुरु अरजन साहिब को कई दिन तपती तवी पर बैठाया गया था। फिर भी उनका धैर्य बना रहा । न संकल्प टूटा, न मुख से आह निकली। क्योंकि, मन में स्थायी शीतलता देने वाला परमात्मा का नाम चल रहा था :
— हरि जेठु रंगीला तिसु धणी
जिस कै भाग मनि ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३४ )
– आसाडु सुहंदा तिसु लगै
जिसु मनि हरि चरण निवास ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३४ )
महीने प्रिय और सुहावने हो जाते हैं जब मन परमात्मा को अपना स्वामी मान लेता है और उसे अपने मन में बसा लेता है। यह विश्वास मन में दृढ़ हो जाये कि जीवन सफलता के लिये परमात्मा के बिना कोई अन्य ठौर नहीं है – ” प्रभ तुधु बिनु दूजा को नही नानक की अरदासि॥” गुरसिक्ख परमात्मा की शरण ही नहीं लेता, उस पर अपना विश्वास ही नहीं रखता, वह परमात्मा से प्रेम भी करता है और उसके रंग में रंग जाता है :
सावणि सरसी कामणी
चरन कमल सिउ पिआरु ॥
मनु तनु रता सच रंगि इको नामु अधारु ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३४ )
उपरोक्त वचन में श्री गुरु अरजन साहिब द्वारा किया गया परमात्मा के प्रति गुरसिख पूर्ण समर्पण की अवस्था का वर्णन मिलता है । जैसे सावन के महीने में मन मोहक भावनाओं से भर उठता है, वैसे ही परमात्मा के प्रति समर्पण मन को सदा के लिये मुदित कर देने वाला है। सावन तो एक ही महीने का है, जिसके जाते ही मन की अवस्था बदल जाती है, किन्तु परमात्मा को समर्पित मन सदैव मुदित रहता है, सावन हो या न हो । सुहागिन स्त्री के लिये सावन का महीना विशेष आनंद प्रदान करने वाला होता है, किन्तु वास्तविक आनंद उसे है, जिसने परमात्मा को अपना पति मान लिया है- “सावणु तिना सुहागणी जिन राम नामु उरि हारु ॥” वास्तविक सुहागिन वही है, सावन उसी के लिये आनंददायी है, जिसने परमात्मा से पति की भांति प्रेम किया है। सावन में प्रेम-गीत गाये जाते हैं । गुरसिक्ख सदैव परमात्मा-प्रेम के गीत गाता है, जिससे उसके सारे महीने सावन हो जाते हैं। ऐसे गुरसिक्ख धन्य हैं।
मनुष्य को कभी भ्रम भी बहुत दुख देते हैं। गुरबाणी में संसार को ही भ्रम कहा गया है। मनुष्य जिसे देखता है उसे सत्य मान लेता है । वह वास्तव में कुछ और होता है जो विपरीत परिणामों का जनक होता है । जिसे सुख की आशा में स्वीकार किया जाता है वह दुखदायक निकलता है। श्री गुरु अरजन साहिब ने इसके लिए भादों महीने को प्रतीक बनाया है। इस महीने में आकाश पर छा गये घने बादल देख कर लगता है कि भारी वर्षा होने वाली है, किन्तु एक बूंद भी नहीं बरसती और बादल गुम हो जाते हैं, सारी आशायें आलोप हो जाती हैं। मनुष्य ने यदि झूठ, मिथ्या धारण किया है तो परिणाम भी वैसा ही प्राप्त होगा :
जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेतु ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३४ )
अपने कर्मों का ही फल भोगना पड़ता है। झूठ, भ्रम अर्थात् सांसारिकता और माया के भ्रम में रम कर व्यतीत किया गया जीवन व्यर्थ चला जाता है। अंततः वह कुछ भी सहायी नहीं होता जिसके लिये पूरा जीवन लगा दिया जाता है । परमात्मा की शरण ही संसार के भ्रम से उबारने वाली है— “नानक प्रभ सरणागती चरण बोहिथ प्रभ देतु ॥ से भादुइ नरकि न पाईअहि गुरु रखण वाला हेतु ॥”
आगे का समय शीत काल का है। ठंड धीरे-धीरे बढ़ती हुई अपने शिखर पर पहुंच जाती है। बाद में उसका प्रभाव भी मंद गति से ही कम होता है । मनुष्य के जीवन में समस्यायें भी ऐसी ही हैं। जो समस्यायें छोटी होती हैं, उचित निदान न होने के कारण विकट हो जाती हैं। उनके समाधान में भी समय लगता है। परमात्मा से विरत मनुष्य कैसे सुखी रह सकता है !
– विणु प्रभ किउ सुखु पाईऐ दूजी नाही जाइ ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३५ )
– परमेसर ते भुलिआं विआपनि सभे रोग ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३५ )
– साध जना ते बाहरी से रहनि इकेलड़ीआह ॥
तिन दुखु न कबहू उतरै
से जम कै वसि पड़ीआह ।। (श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३५ )
श्री गुरु अरजन देव जी गुरसिक्ख को बार-बार सचेत, सावधान करते हैं कि परमात्मा की कृपा के बिना समय का प्रभाव दुखदायक हो जाता है। दुखों से मुक्त होना असंभव होता है। समय विपरीत होने से पूर्व ही मन में परमात्मा-प्रेम की भावना जाग्रत हो जाये, परमात्मा की शरण प्राप्त करने की उमंग पैदा हो जाये – “ असुनि प्रेम उमाहड़ा किउ मिलीऐ हरि जाइ ॥ मनि तनि पिआस दरसन घणी कोई आणि मिलावै माइ ॥ ” परमात्मा-प्रेम का संकल्प मन में दृढ़ होना चाहिये तब समय अनुकूल होता है। परमात्मा का प्रेम तृप्त करने वाला है । वह विकारों से मुक्त करने वाला है। सभी संशय, दुविधायें दूर हो जाती हैं। गुरु साहिब ने यह भी वचन किया है कि परमात्मा की भक्ति गुरसिक्ख को शोभा और सम्मान का पात्र बनाती है । परमात्मा की भक्ति आवागमन से भी मुक्त कर देती है :
मंघिरि प्रभु आराधणा बहुड़ि न जनमड़ी आह ॥ ( श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३५ )
गुरसिक्ख का लक्ष्य मात्र दुखों से मुक्ति नहीं है, वास्तविक दुख चौरासी लाख योनियों में आवागमन से मुक्त होना है। गुरसिक्ख की भक्ति इससे मुक्त हो परमात्मा में सदा के लिये अभेद हो जाने की है। श्री गुरु अरजन साहिब ने कहा है कि सिक्ख का जीवन सदैव एक निश्चित पथ पर चलता है। बहुत-से लोग किसी महीने विशेष, समय विशेष को धर्म-कर्म में लगाते हैं, ताकि पुण्य कमा सकें। धर्म-कर्म की भी अपनी-अपनी विधि थी। गुरु साहिब ने सरल विधि बताई :
माघि मजनु संगि साधूआ धूड़ी कर इसनानु ॥
हरि का नामु धिआइ सुणि सभना नो करि दानु ॥ (श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३५ )
श्री गुरु अरजन साहिब ने कहा कि गुरसिक्ख के लिये साधसंगत ही सबसे बड़ा तीर्थ है। साधसंगत करना, संत-सेवा करना सबसे बड़ा तीर्थ स्नान है। परमात्मा का नाम जपते हुए मन में दया, धर्म और सेवा की भावना दृढ़ होती है और मानवता के हित का संकल्प जन्म लेता है। ऐसे मनुष्य का दान, परोपकार किसी वर्ग विशेष के लिये नहीं, बिना किसी भेदभाव के पूरे समाज के लिये होता है। इससे जन्म-जन्मांतर के पाप मिट जाते हैं और सद्गति प्राप्त होती है। जीवन फाल्गुन जैसा सुहावना हो जाता है। दुख निकट भी नहीं आते — “सेज सुहावी सरब सुख हुणि दुखा नाही जाइ ॥ “
समय परमात्मा का सृजन है और परमात्मा के अधीन है। समय तब विपरीत है जब मन में परमात्मा का नाम, विश्वास नहीं है। परमात्मा की कृपा समय के दुख को सुख में बदलने वाली है। महीना, मौसम कोई भी हो, गुरसिक्ख अमृत वेले ( बेला में) उठ कर स्नान करता है और परमात्मा का ध्यान करता है । यह परमात्मा की कृपा ही है कि उसकी इस मर्यादा में कभी कोई अवरोध नहीं उत्पन्न होता है । वर्ष का आरंभ एक ही संकल्प के साथ हो कि – ” पारब्रहमु प्रभु सेवदे मन अंदर एकु धरे ॥ ” सदैव मन में एक ही विश्वास दृढ़ रहे — “जिनि जिनि नामु धिआइआ तिन के काज सरे ॥” सुख का यही मार्ग है।