
-डॉ. कशमीर सिंघ नूर
महिलाओं के मान-सम्मान और कल्याण को मुख्य रखते हुए प्रत्येक वर्ष ८ मार्च को ‘ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जाता है। आज के दौर में स्त्री को समाज में योग्य स्थान देने हेतु, उसका उत्पीड़न, शोषण रोकने हेतु, उसकी प्रगति के लिए संविधान में अनेक कानून बने हुए हैं, अनेक योजनाएं, नीतियां बनी हुई हैं, फिर भी प्रश्न एक नहीं अनेक हैं। क्या कन्या भ्रूण हत्या पूरी तरह से रुक पाई है? क्यों मानव को एक स्त्री के रूप में जन्म लेने से रोक दिया जाता है? २१वीं शती में भी कई प्रांतों में स्त्रियों को समाज में पुरुषों के बराबर दर्जा क्यों नहीं मिल पाया है? भले ही सती की कुप्रथा बंद हो चुकी है, परंतु दहेज की खातिर किसी औरत को जिंदा जलाकर मार देना कदापि उचित नहीं है। आए दिन औरतों को घरों, दफ्तरों, कारखानों, खेत-खलिहानों में और अन्य कई जगहों पर जिस्मानी छेड़छाड़ का, आर्थिक व मानसिक शोषण का शिकार होना पड़ता है। औरतों को इस तथाकथित आधुनिक व सभ्य, अति विकसित समाज में मान-सम्मान के साथ जीने का, जीविका कमाने का अधिकार एवं अवसर नहीं दिया जाता । प्रतिदिन असंख्य बच्चियों, युवतियों तथा महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। उनकी रक्षा हेतु बने कानून नाकाम सिद्ध हो रहे हैं। औरतों की हत्याएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं।
सिक्ख धर्म के संस्थापक व प्रवर्तक, जगत् गुरु श्री गुरु नानक देव जी के इस लोक में पावन आगमन के पूर्व समाज में महिलाओं की दशा, स्थिति अति शोचनीय थी । उन्हें समाज में वो आदर-सम्मान नहीं दिया जाता था जिसके लिए वे पात्र व अधिकारी थीं। श्री गुरु नानक देव जी ने लिंग के आधार पर स्त्रियों के साथ किए जाते भेदभाव का कड़ा विरोध किया। उन्होंने जहां जाति, जन्म और जिस्म के एक होने की बात कही, वहीं लिंग के आधार पर होते भेदभाव को भी समाप्त करने पर बल दिया ।
पश्चिम के कुछ चिंतकों ने स्त्री को प्रकृति की एक ‘मज़ेदार भूल’ कहकर तिरस्कृत किया, दुत्कारा यूनानी चिंतक व दार्शनिक अरस्तू ने स्त्री को ‘अपूर्ण प्रगति’ कहा। तुलसीदास ने पशु, गंवार के साथ-साथ ना को ताड़न अर्थात् डांट-डपट की पात्र कहा तथा साथ ही उसे आधा विष, आधा अमृत बताया। महात्मा बुद्ध ने तो यहां तक कह दिया कि स्त्री में आत्मा ही नहीं होती । इसलाम ने दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर बताई गई है। अभी भी कुछ मुस्लिम देशों में महिलाओं को मत (वोट) देने के अधिकार से वंचित रखा गया है और उन्हें मोटरगाड़ियां चलाने की आज्ञा भी नहीं दी गई है। खैर, बुर्का – प्रथा तो जारी ही है। घूंघट निकालने की प्रथा हमारे देश के कई अंचलों में अब भी मौजूद है। कुछ समय पूर्व साऊदी अरब में युवा महिलाओं को मोटरगाड़ियां चलाने की आज्ञा दे दी गई है।
श्री गुरु नानक देव जी ने बाणी में फरमान किया— — “सो किउ मंदा आखीऐ जितु जंमहि राजान ।।” अर्थात् औरत को क्यों बुरा कहा जाए, उसकी कोख से तो पुरुष, उत्तम पुरुष, महापुरुष, राजा, महाराजा जन्म लेते हैं।
स्त्री में एक नहीं, अनेक गुण हैं। घर का आभूषण होती है स्त्री ।
प्रत्येक वर्ष सिर्फ एक दिन ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मना लेना काफी नहीं है। ऐसा सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, कामकाजी सुरक्षित माहौल बनाना होगा कि प्रत्येक उम्र की स्त्री स्वयं को हर पल सुरक्षित समझ सके । उसका किसी भी तरह का शोषण व उत्पीड़न न किया जाए। उसे किसी भी तरह से सताया न जाए । बाल-विवाह का विरोध किया जाना चाहिए । विधवा विवाह को और भी ज्यादा बढ़ावा दिया जाना चाहिए। स्त्री को भी स्वतंत्रता के नाम पर अपने पारिवारिक मान-सम्मान को, सामाजिक मर्यादा को ठेस नहीं पहुंचानी चाहीए । स्त्री से भी ऐसी ही आशा की जाती है । चरित्रवान होना पुरुष व स्त्री दोनों के लिए सफल जीवन का प्रथम सोपान है।
सदियों से हमारे समाज में विधवा स्त्री को सती कराने की कुप्रथा चली आ रही थी। कुछ महापुरुषों व संतों-महात्माओं ने इसका विरोध किया। तीसरे पातशाह श्री गुरु अमरदास जी ने इस कुप्रथा के खिलाफ बहुत ज़ोरदार ढंग से आवाज़ उठाई और इसे बंद करने पर जोर दिया। उन्होंने इस बुरी रस्म के विरुद्ध प्रचार करते हुए फरमान किया :
सतीआ एहि न आखीअनि
जो मड़िआ लगि जलन्हि ॥
नानक सतीआ जाणीअन्हि
जि बिरहे चोट मरंन्हि ॥ १ ॥
भी सो सतीआ जाणीअनि
सील संतोख रहंन्हि ॥
सेवनि साई आपणा
नित उठि संम्हालंन्हि ॥(पन्ना ७८७)
इतिहासकार मुहम्मद लतीफ लिखता है कि श्री गुरु नानक देव जी के पद्- चिन्हों पर चलते हुए श्री गुरु अमरदास जी ने साफ व स्पष्ट शब्दों में सती होने की रस्म को अस्वीकार किया। इससे भी बढ़कर, उन्होंने विधवा विवाह रचाने की रीति चलाई। उस समय के रूढ़िवादी व पिछड़े समाज में गुरुओं के क्रांतिकारी व अमूल्य विचारों एवं कदमों ने स्त्रियों की दशा व स्थिति सुधारने में बहुत बड़ा व महत्त्वपूर्ण कार्य किया । हरेक अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर तथा अन्य अवसरों पर सिक्ख गुरुओं के महान समाज-सुधारक कार्यों को अवश्य स्मरण करना चाहिए और उनके विचारों से प्रेरणा व आगवानी लेते रहना चाहिए।
स्त्रियों के साथ क्रूर, जालिमाना, अन्यायपूर्ण, हिंसक व्यवहार करना बहुत बड़ा गुनाह है। ऐसा व्यवहार अमानवीय है। संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक विश्व भर में महिलाओं के लिए उनका घर ही सबसे अधिक खतरनाक स्थान सिद्ध हो रहा है।
दहेज प्रथा की समस्या के कारण ही कन्या-भ्रूण हत्या की समस्या पर पूरी तरह से काबू नहीं पाया जा सका है। भारत में दहेज प्रथा की वजह से होने वाले कत्ल ध्यान देने योग्य एक गंभीर विषय है । अध्ययन के अनुसार ‘राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’ से प्राप्त आंकड़ों से पता चला है कि भारत में प्रत्येक वर्ष महिलाओं के हैने वाले कत्ल में ४० से ५० प्रतिशत कत्ल दहेज की समस्या के कारण होते हैं। ‘मेरा भारत, श्रेष्ठ भारत’ कहने भारत श्रेष्ठ नहीं बन सकता। भारत को पूर्ण रूप से अपराध मुक्त बनाकर ही श्रेष्ठ और महान् बनाया जा सकता हैं।
श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी का सिक्खों को स्पष्ट आदेश है कि बेटियों (महिलाओं) की हत्या करने वाले व्यक्तियों से रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं रखना है । कभी किसी पराई स्त्री से शारीरिक संबंध नहीं बनाना है। उन्होंने पर-नारी – गमन का निषेध किया है। प्रचलित साखी के अनुसार उन्होंने अपने एक श्रद्धालु सिक्ख भाई जोगा सिंघ को एक कौतुक द्वारा एक वेश्या के कोठे पर जाने से रोक दिया था और उसे पतित होने से बचा लिया था । गुरु जी ने पर-तन – गामी नहीं होने का आदेश देकर स्त्री और पुरुष दोनों को अच्छे व पवित्र चरित्र वाले बनने के लिए कहा है। उच्च एवं साफ चरित्र मनुष्य को आचरण की बुलंदी पर ले जाता है। दुष्चरित्रता पतन का कुआं सिद्ध होती है।
सांस्कृतिक और सामाजिक पक्ष से भी स्त्रियों को जलील करने का कई बार प्रयत्न किया जाता है और कई पुरुषों की शब्दावली स्त्रियों को मानव मानने की अपेक्षा मात्र भोग की वस्तु समझने वाली होती है। ‘वर ( दूल्हा ) -दान’ की जगह ‘कन्या – दान’ ही क्यों कहा जाता है? निकृष्ट व घटिया मानसिकता वाले पुरुष आपसी लड़ाई-झगड़ों के दौरान मां- बहन के नाम पर गंदी गालियां देते हुए महिलाओं का घोर अपमान करते हैं। गीतों, फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों, विज्ञापनों में महिलाओं के तन का प्रदर्शन करना उनके मान-सम्मान व गरिमा को चोट पहुंचाना है । बहुत-से क्षेत्र व पक्ष हैं, जिनमें महिलाओं को बराबर अधिकार, पर्याप्त अवसर मिलने अभी शेष हैं। प्रत्येक वर्ष ‘ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर महिला सशक्तिकरण की बातें हर मंच पर बहुत बढ़-चढ़कर की जाती हैं, परंतु वास्तव में इस संबंध में उतना ठोस काम नहीं हो रहा है, जितना होना चाहिए।
हमारे देश के राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाओं को पर्याप्त अवसर प्रदान नहीं किए जा रहे हैं। सन् २०१८ में संसद में पेश किए गए आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक लोक सभा में ११.८ प्रतिशत तथा राज्य सभा में केवल ११ फीसदी महिलाएं सांसद थीं। वर्ष २०१६ में देश की विभिन्न विधान सभाओं के कुल ४११३ विधायकों में महिलाओं की भागीदारी मात्र ९ फीसद थी । सन् २०१० से लेकर २०१७ तक महिलाओं की हिस्सेदारी में एक प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। बेशक पंचायती राज्य संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व कानूनी तौर पर ५० प्रतिशत तय है, किंतु सामाजिक हालात ऐसे हैं कि निर्वाचित महिलाओं की जगह सारा सरकारी व अन्य काम उनके भाई, पिता, ससुर या उनके पति ही करते हैं। वे तो केवल जहां जरूरी हो, वहां अपने हस्ताक्षर ही करती हैं। नगर पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों में भी यही सूरते-हाल है। और तो और, किसी भी स्तर के चुनाव में महिला उम्मीदवारों के चुनावी पोस्टर्स पर उनकी तस्वीर छोटी और उनके भाई, पिता या फिर पति की तस्वीर बड़ी प्रकाशित की जाती है। यह कैसा नारी सशक्तिकरण हुआ? प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं का आत्मविश्वास, आत्मसम्मान बढ़ाया जाना जरूरी है।