
वातावरण की अशुद्धता : समस्या और समाधान
– डॉ. इंदरजीत सिंघ ‘वासु’* मानव प्रकृति का गौरव और विशेष चमत्कार है, जो लाखों वर्षों से प्रकृति के संग सफ़र कर रहा है। व्याकुलता और तलाश की प्राथमिक रुचियों के कारण मानव इसके खजानों की खोज के प्रति समर्पित रहा है। आज के युग में पहुँच कर इसने टेक्नॉलॉजी और आर्थिक आधार वाली शहरी सभ्यता को स्थिर कर लिया है। इस समूची प्रक्रिया के दौरान इसके प्रकृति से सम्बन्ध टूट गए हैं। अब मानव ने प्रकृति को पहले की तरह विस्मय का स्त्रोत नहीं, बल्कि भौतिक जरूरतों का स्रोत बना लिया है। जीवन स्तर के बदलाव ने वस्तुओं की अनेक जरूरतें उत्पन्न की, जिनकी पूर्ति के लिए मानव ने वनस्पति और जंगल आदि साफ़ कर वातावरण असंतुलित कर दिया। प्राकृतिक खनिजों से भरपूर धरतियां ताकतवर देशों की ललचाई नज़र का केंद्र बन गईं। परिणामस्वरूप भयानक युद्ध सामने आए और अमृतमयी वातावरण जहरी हथियारों के जहर से प्रदूषित हो गया। मानव की इन अमानवीय गतिविधियों के कारण अब वातावरण की समस्या उत्पन्न हो गई है, जिससे मानवीय अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया है। इस समूचे संदर्भ में गुरमति मानव को ब्रह्मांड, जगत, प्रकृति और मानव के प्रति विशेष दृष्टिकोण प्रदान करती है। गुरमति की रौशनी में वातावरण समस्या के संदर्भ में निम्नलिखित पक्ष सामने आते हैं :-
१. वातावरण की अशुद्धता का मूल स्रोत निम्न दर्जे की सोच
२. पदार्थक दृष्टिकोण
३. गुरमति का नेतृत्व
(अ) मानवीय प्रकृति का दैवीकरण
(आ) वातावरण के प्रमुख तत्वों के प्रति सकारात्मक दृष्टि
(इ) मानव की सुरक्षा और सम्मान
४. विश्वीकरण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गुरमति के आदर्श
(अ) विनम्र अनुशासन
(आ) विशुद्ध रहन-सहन
(इ) वातावरण की एकात्मकता
५. सारांश
१. वातावरण की अशुद्धता का मूल स्रोत वातावरण की अशुद्धता का मूल स्रोत मानव की निम्न दर्जे की सोच है, जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की मानव- कमजोरियां जन्म लेती हैं। काम वाशना मानव-जीवन में घोर तबाही का कारण बनती है। विशेषतः जब कोई प्रसिद्ध हस्ती इस भावना का दुरुपयोग करती है तो देश स्तर पर राजनीतिक उथल-पुथल सामने आती है। भक्त नामदेव जी ने “पापी का घर अगने माहि” कह कर इसके भयानक प्रभाव से मानव को सुचेत किया है। इस संदर्भ में उनके गुरबाणी फरमान इस प्रकार हैं :
— जैसा संगु बिसीअर सिठ है रे
तैसो ही इहु पर ग्रिहु । (पन्ना ४०३)
-घर की नारि तिआगै अंधा ॥
पर नारी सिठ घालै धंधा ॥…
पापी का घरु अगने माहि ॥
जलत रहै मिटवै कब नाहि ॥ ( पन्ना १९६४)
इसी प्रकार आज की दुनिया में ईरान, अफगानिस्तान आदि देशों में अमेरिका द्वारा मचाई तबाही, बगदाद तथा अन्य शहरों में बम धमाकों से सम्बन्धित एवं न्यूक्लियर हथियारों द्वारा, दरियाओं का पानी जहरीला होने के कारण अमेरिका के प्रबल क्रोध को ही प्रकट करते हैं। यह इस प्रकार प्रकट होता है कि आधुनिक मानव फिर कबीलावाद और जंगली सभ्याचार की तरफ लौट रहा है। लोभ की प्रवृत्ति ने दिखावे के रहन-सहन की भावना को बढ़ाया है। इमारतों के निर्माण के लिए लकड़ी का प्रयोग बढ़ा है, जिसके लिए जंगलों की कटाई की जाती है। ज़मीन वस्त्रहीन होने के कारण बारिश के समय भूमि कटान की समस्या उत्पन्न हुई है। अन्न उपजाऊ जमीन की कमी के कारण अन्न की कमी सामने आई हैं, जिस कारण कई देशों में दंगे-फसाद सामने आए हैं।
इसी प्रकार मोह की प्रवृत्ति ने भ्रष्टाचार को बढ़ाया है और आम जनता को टूटे अस्पताल, टूटी सड़कें टूटी बसें मिलती हैं। उड़ती धूल ने प्रदूषण को बढ़ाया है। अहंकार की प्रवृत्ति ने मानवीय जीवन में अफरा-तफरी बढ़ाई है। इसी भावना के अधीन ताकतवर मुल्कों ने गरीब मुल्कों के आर्थिक साधनों की लूट मचायी है। गुरबाणी ने इन पाँच तृष्णाओं की मानव के आंतरिक गुणों को लूटने वाले पाँच चोरों के साथ तुलना की है और मानवीय वातावरण की सुरक्षा के लिए इनसे सुचेत रहने के लिए कहा है :
एक नगरी पंच चोर बसीअले
बरजत चोरी धावै ॥
त्रिहदस माल रखै जो नानक
मोख मुकति सो पावै ॥ (पन्ना ५०३)
२. पदार्थक दृष्टिकोण : उपरोक्त कर्मादिक भावनाओं ने मानव के जीवन-दृष्टिकोण को मात्र पदार्थों तक सीमित कर दिया है, जिस कारण यह स्वार्थ की मानव-विरोधी भावना का शिकार हो गया है। इसके पास से ब्रह्मांडीय एकता का संकल्प छिन गया है। यह अलग हस्ती की स्थापना का शिकार हो गया है और इसके अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। अब मानवीय जीवन में खपतकारी सभ्याचार का प्रवेश हुआ है, जिससे मानव जीवन- मूल्यों का पतन सामने आ रहा है। मानवीय जीवन में खुदगर्जी, लालच, फिजूलखर्ची, दिखावा, दुविधा आदि प्रवृत्तियों का आरंभ हुआ है। मानव वैज्ञानिक प्राप्तियों के साथ-साथ अपनी रूह को विकसित नहीं कर सका। निजी इच्छाओं की पूर्ति के कारण पारिवारिक संस्था तबाह हो रही है। विश्वास की कमी के कारण मानव की रूहानियत डगमगा गई है। मानव मूल्यों की तोड़फोड़ सामने आई है। उदासी, निराशा, सामाजिक टकराव, शोषण, नफ़रत, वैर और हिंसा आदि दुष्प्रवृत्तियां मानव-जीवन में घर कर रही हैं, जिस कारण उत्तम मानव की सृजना होने की कोई भी संभावना नज़र नहीं आ रही है। संसार जंग का मैदान बन गया है। लड़ाई का नजला धरती पर गिर रहा है और धरती व इसकी सुंदर वादियां बमों की भेंट चढ़ रही हैं।
३. गुरमति का नेतृत्व : उपरोक्त गैर मानवी चक्र को गुरमति आसान बनाने का मार्ग प्रशस्त करती ताकि छिनी हुई वातावरण की शुद्धता मानव को दोबारा मिल सके। इस संबंध में गुरबाणी ने निम्मलिखित कार्य-योजना प्रस्तुत की है
(अ) मानवीय प्रकृति का दैवीकरण: गुरमति ने मानव के सामने उसकी प्रकृति का संपूर्ण दृष्टिकोण रखा है। श्री गुरु नानक देव जी के अनुसार जहाँ शरीर में विकारों की अग्नि है, वहीं उसमें शांत स्वभाव की वनस्पति भी है जहाँ उसमें सूरज का तेज है, वहीं चंद जैसी शीतलता भी है। जहाँ शरीर काम-क्रोध का नगर है, वहीं यह हरि का महल भी है। श्री गुरु नानक देव जी ने मानव शरीर के संपूर्ण आनंद और ख़ुशहाली के लिए क्रोध को हथियार बनाकर खुशहाल परिसर के गिर्द उत्पन्न विकारों के खरपतवार को उखाड़ बाहर फेंकने का उपदेश दिया है। यह परिवर्तन की प्रक्रिया अथवा समूचा दैवीकरण गुरु के नेतृत्व में ही संभव है। इस सम्बन्ध में गुरबाणी के कुछ फरमान निम्नलिखित हैं :
-कामु क्रोधु दुइ करहु बसोले
गोडहु धरती भाई ॥ …
भीतरि अगनि बनासपति मठली
सागरु पंडै पाइआ ॥ (पन्ना ११७१)
-बलिहारी गुर आपणे दिउहाड़ी सद वार ॥
जिन माणस ते देवते कीए
करत न लागी वार ॥ (पन्ना ४६२)
(आ) वातावरण के प्रमुख तत्वों के प्रति सकारात्मक दृष्टि पवन, पानी और धरती वातावरण के प्रमुख तत्व हैं। श्री गुरु नानक देव जी ने अपने एक फरमान “पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु” में तीनों को सम्मानित दर्जा दिया है। पवन, मानसून (पानी) के रूप में धरती पर बरस कर, मानव को उपज के साथ मालामाल कर देती है और गुरु मानव को श्रमकार की जीवन- जाच के साथ-साथ दुनियावी और रूहानी दौलत से भरपूर कर देता है। इसीलिए पवन गुरु है, जिसकी पवित्रता और शुद्धता की तरफ श्री गुरु नानक देव जी ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है। पानी पिता की भांति मानव का प्रतिपालक है और मानवीय जीवन एवं वनस्पति जगत पानी पर निर्भर है। पानी के बिना खेती मुरझा जाती है और देश की आर्थिकता डगमगा जाती है। पानी समुद्र का रूप धारण कर व्यापार तथा यातायात के साधन के रूप में देश के अनंत विकास का कारण बनता है। गुरबाणी के निम्नलिखित फरमान पानी की सुरक्षा, पवित्रता एवं शुद्धता की स्थाप्ति के सम्बन्ध में विशेष हैं :
– पहिला पाणी जीठ है
जितु हरिआ सभु कोइ ॥ ( पन्ना ४७२ )
– जल बिनु साख कुमलावती
उपजहि नाही दाम ॥ (पन्ना १३३)
धरती को श्री गुरु नानक देव जी ने माँ होने का रुतबा दिया है, ताकि मानव इसके प्राकृतिक स्रोतों की सुरक्षा के लिए जागरूक हो सके। धरती एक ऐसा महत पदार्थ है, जो अपने माल -धन के साथ मानवीय जीवन को चलायमान रखने के समर्थ है। धरती की कोख में से निकलते नाना प्रकार के खनिज पदार्थ जहाँ उद्योगों का आधार हैं, वहीं मानव की अमीरी एवं शान का भी प्रतीक हैं। श्री गुरु नानक देव जी ने धरती को ‘धरमसाल’ कहा है, ताकि मानव इसका इस्तेमाल धर्म कमाने के लिए करे। धरती की कुल लीला नियमबद्ध है। मानव धरती के ‘धर्म’ अथवा कर्त्तव्य के प्रति सुचेत हो । धरती को कार्यशील करने वाले नियमों पर चलना ही मानव का धर्म अथवा कर्त्तव्य है ।
(इ) मानव की सुरक्षा और सम्मान : श्री गुरु अमरदास जी के अनुसार मानव का शरीर हरि मंदिर का रुतबा रखता है। परमात्मा ने मानव को अपने जितनी चेतनता देकर संवारा है। मानव के सम्मान में ईश्वर का सम्मान छिपा है। मानवीय शरीर की सुरक्षा को यहूदी चिंतन में सबसे उत्तम स्थान दिया गया है। यह विचारधारा एक मानव के कत्ल को समुच्चय मानवता का कत्ल मानती है, क्योंकि एक मानव के कत्ल के साथ उससे आगे चलने वाली पीढ़ी और समुच्चय नसल का खात्मा हो जाता है। सभी मनुष्यों में रब की हस्ती का एक ही जितना सम्मिलन है। मानवीय रुतबे से सम्बन्धित गुरबाणी के कुछ फरमान हैं :
– अवर जोनि तेरी पनिहारी ॥
इस धरती महि तेरी सिकदारी ॥ ( पन्ना ३७४ )
– हरि मंदरु एहु सरीरु है
गिआनि रतनि परगटु होइ ॥ ( पन्ना १३४६ )
– सभे साझीवाल सदाइनि
तूं किसै न दिसहि बाहरा जीउ ॥ ( पन्ना ९७ )
४. विश्वीकरण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गुरमति के आदर्श : (अ) विनम्र राज गुरमति की विश्वव्यापी विचारधारा के साथ विश्वीकरण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। इस मंजिल की तरफ पहला कदम विनम्र राज (अनुशासन) का आदर्श है, जो समूचे संसार की सुरक्षा और संभाल पर आधारित है, जिसकी पहली सूरत समूचे लोगों के दुखों का निवारण है। श्री गुरु अरजन देव जी का कथन इस सम्बन्ध में विशेष है :
हु हुकम होआ मिहरवाण दा ॥
पै कोइ न किसै रजाणदा ॥
सभ सुखाली वुठीआ
इहु होआ हलेमी राजु जीउ ॥ ( पन्ना ७४)
(आ) विशुद्ध रहन-सहन : विशुद्ध रहन-सहन पर आधारित राष्ट्रीय आचरण की अति आवश्यकता है। राष्ट्रीय आचरण के कारण अमेरिका, कनाडा आदि देशों का शहरी जीवन साफ़-सुथरा है, जबकि भ्रष्टाचार के कारण भारत का वातावरण अशुद्धता का शिकार है। जीवन की पवित्रता के बिना वातावरण की पवित्रता नहीं रखी जा सकती। आंतरिक जीवन की शुद्धता के बिना बाहरी रूप-शृंगार जीवन को व्यर्थ गंवाने के समान है। जीवन की आंतरिक पवित्रता, कर्मों को धरती बना कर, ज्ञान का बीज बोने से प्राप्त होती है, जिसके लिए सत्य के पानी और किसान की आस्था की जरूरत होती है, जैसे :
अमलु करि धरती बीजु सबदो करि
सच की आब नित देहि पाणी ॥ .
माल कै माणै रूप की सोभा
इतु बिधी जनमु गवाइआ ॥ ( पन्ना २४ )
(इ) वातावरण की एकात्मकता : सांसारिक अमन के लिए वातावरण की एकात्मकता मुख्य शर्त है। “जो ब्रहमंडे सोई पिंडे” का फरमान मानव को अपने आप की और ब्रह्मांड की एकता के लिए प्रेरित करता है। वातावरण एकात्मकता के लिए पहले पारिवारिक एकात्मकता की जरूरत है, जिसके लिए ” माई बाप पुत्र सभि हरि के कीए” के फरमान से शिक्षा लेनी चाहिए। दूसरी एकात्मकता सामाजिक एकात्मकता है, जिसकी प्राप्ति ” होइ इकत्र मिलहु मेरे भाई” के फरमान और अमल करने से हो सकती है। तीसरी एकात्मकता विश्वमयी एकात्मकता है, जो “पसरिओ आपि होइ अन तरंग” के गुरबाणी – फरमान की प्रेरणा है।
सारांश : वातावरण के बचाव के लिए ऐसी शख्सियतों की जरूरत है जो कुदरत में से कादर पहचानने वाली दृष्टि रखती हों और “बलिहारी कुदरति वसिआ” के फरमान की प्रेरणा को ग्रहण करें, जो आंतरिक परिवर्तन द्वारा सत्य व सादगी अपना कर, विशाल चेतना की धारक हों, समानता, स्वतंत्रता और न्याय के मानव मूल्यों की प्रत्येक मनुष्य को गारंटी दें, ताकि युद्ध रुक सकें, शाश्वत अमन स्थापित हो सके और वातावरण की अशुद्धता की समस्या का पूरी तरह से समाधान हो जाए।