– स. बिक्रमजीत सिंघ*
सिक्ख गुरु साहिबान ने अपने-अपने जीवन काल के दौरान जहां-जहां भी चरण डाले वह धरती सर्वदा के लिए सौभाग्यवान हो गई। जंगली एवं वीरान इलाके पावन धार्मिक स्थान बनने के साथ-साथ शहरों, कसबों आदि में तबदील हो गए। बंज़र ज़मीनें पुनः हरियाली से ओत-प्रोत होकर समूची मानवता के लिए वरदान बन गईं। गुरबाणी में फरमान है :
सा धरती भई हरीआवली जिथे मेरा सतिगुरु बैठा आइ ॥ ( पन्ना ३१० )
वह धरती सदा के लिए पूजने योग्य हो गई, जहां किसी गुरु साहिब ने सिक्खी के प्रचार-भ्रमण के दौरान पड़ाव किया। सिक्खों ने उस स्थान पर यादगार के रूप में गुरुद्वारा साहिबान स्थापित कर दिए ।
इसी संदर्भ में जब श्री गुरु तेग बहादर साहिब जी को भाई मक्खण शाह ने ‘बकाला’ गांव की धरती पर ‘गुरु लाधो रे’ का नारा बुलंद कर संगत में ‘नवम् गुरु के रूप में प्रकट किया तो इसके उपरांत श्री गुरु तेग बहादर साहिब ‘बकाला’ गांव से भाई मक्खण शाह और अपने कुछ अन्य सिक्खों के साथ श्री अमृतसर में श्री हरिमंदर साहिब के दर्शन – दीदार करने पधारे। उस समय श्री हरिमंदर साहिब पर ‘मसंदों’ का कब्ज़ा होने के कारण उन्होंने गुरु जी को दर्शन न करने दिये और श्री हरिमंदर साहिब के किवाड़ बंद कर लिए। वास्तव में मसंदों को यह डर था कि श्री गुरु तेग बहादर साहिब कहीं श्री हरिमंदर साहिब पर कब्जा न कर लें ।
मसंदों की इस करतूत की वजह से गुरु जी श्री अकाल तख़्त साहिब के निकट परिक्रमा में एक ‘वृक्ष’ के नीचे बने थड़े पर बैठ प्रभु भक्ति में विलीन हो गए। वर्तमान में इस स्थान पर ‘गुरुद्वारा थड़ा साहिब’ सुशोभित है। तत्पश्चात गुरु जी इस स्थान से चलकर श्री अमृतसर शहर से बाहर की तरफ रवाना हो गए। श्री हरिमंदर साहिब से लगभग ३ कि. मी. की दूरी पर पहुंचने के बाद आप ने एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया जहां आजकल ‘गुरुद्वारा दमदमा साहिब’ सुशोभित है। वर्तमान में यह गुरुद्वारा श्री अमृतसर-वल्ला रोड पर स्थित है। गुरु जी कुछ समय इस स्थान पर आराम करने के बाद थोड़ा-सा और आगे आ गए। यह जगह श्री अमृतसर से लगभग ६ कि. मी. की दूरी पर स्थित गांव ‘वल्ला’ थी, जहां आप जी एक वृक्ष के नीचे विराजमान हो गए। इसी गांव की एक श्रद्धालु स्त्री बीबी हरीआं ने बहुत ही प्रेम और श्रद्धा से गुरु जी को अपने घर में ले जाकर अपने कोठे (मकान) में विश्राम करवाकर भोजन इत्यादि छकाया ।
दूसरी तरफ जब श्री अमृतसर की संगत को गुरु जी के श्री अमृतसर आगमन और मसंदों की करतूत की ख़बर मिली तो वह बहुत उदास हुई। समूची संगत गुरु साहिब को ढूंढती हुई ‘वल्ला’ गांव में पहुंच गई और मसंदों की करतूत पर खेद व्यक्त करते हुए क्षमा मांगी तथा वापिस श्री अमृतसर पधारने के लिए निवेदन किया। गुरु जी ने श्री अमृतसर की महिला – संगत की श्रद्धा को देखते हुए उन्हें ‘माईआं रब्ब रजाईआं’ कहा। फिर गुरु जी भाई मक्खण शाह और अपने अन्य सिक्खों के साथ पुनः बकाला गांव रवाना हो गए ।
माई हरीआं का वह ‘कोठा’ ( मकान ) जहां पर गुरु जी ने अपने चरण रखे थे, वह गुरु जी के चरण- स्पर्श से सदा के लिए ‘कोठा साहिब’ बन गया और वर्तमान में गुरुद्वारा कोठा साहिब (गांव वल्ला) के नाम से विख्यात है। इतिहासकारों के मुताबिक महाराजा रणजीत सिंघ ने अपने राज्य काल के दौरान २० बीघा ज़मीन इस गुरुद्वारा साहिब के नाम लगवाई थी ।
माघ मास की पूर्णिमा को गुरुद्वारा कोठा साहिब गांव वल्ला (श्री अमृतसर) में बहुत भारी जोड़-मेला लगता है, जो कई दिनों तक चलता है। संगत नवम् गुरु जी की पवित्र आमद की याद को ताज़ा करती हुई दूर-दूर से आकर इस स्थान के दर्शन कर निहाल होती है।