सिंघ सभा लहर का उत्थान और प्रभाव

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October 20, 2025

महाराजा रणजीत सिंघ के काल के बाद पंजाब की राजनैतिक स्थिति बहुपक्षीय रूप से बदल चुकी थी। इसके साथ ही धार्मिक स्थितियां भी तेजी के साथ बदल रही थीं, जिस कारण सिक्ख धर्म की सबसे प्रमुख लहर’ सिंघ सभा लहर’ अस्तित्व में आई। इस लहर की उत्पत्ति १८७३ ई. में हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य सिक्ख धर्म में फैल चुकी अनेक कुरीतियों को दूर करना और गैर-सिक्ख धार्मिक लहरों के प्रभाव से ऊपर उठना था, क्योंकि ईसाई मिशनरी और आर्य समाजी बड़े स्तर पर पंजाब में पैर पसार रहे थे। बेशक उस समय निरंकारी लहर और नामधारी लहर भी वजूद में आ चुकी थीं, जो व्यक्ति-विशेष को प्रमुखता (देहधारी गुरु) तथा अन्य कई कारणों से ज्यादा सफल न हो सकीं। डॉ. खुशवंत सिंघ इन लहरों के बारे में लिखते हैं :

“तीनों ही लहरें (निरंकारी, राधास्वामी और नामधारी) अपने सांप्रदायिक झुंड के रूप में विकसित हुईं और अपने-अपने विशेष गुरु की भक्ति एवं अपने गुप्त व रहस्यमयी धार्मिक संसारकों (संस्कारों) के प्रयोग में मस्त रहीं। जिन बुराइयों को खत्म करने के लिए ये लहरें शुरू की गई थीं, वे उसी तरह ही बेरोक जारी रहीं।”

सिंघ सभा लहर के उद्भव का कारण जहाँ सिक्ख धर्म में आई कुरीतियां थीं, वहीं कुछ समकालीन कारण भी थे, जिसने सिक्ख चिंतकों और पैरोकारों को झकझोर दिया था। ईसाई मिशनरियों द्वारा महाराजा रणजीत सिंघ के सुपुत्र कुंवर दलीप सिंघ को ईसाई बनाना मूलभूत कारणों में आता है। यहीं पर बस नहीं, बल्कि उसके द्वारा ५०० रुपए सालाना ईसाई मिशन को देने के लिए उसे रजामंद भी कर लिया गया। ईसाई मिशनरियों द्वारा ईसाई अत के प्रचार के लिए लाहौर, श्री अमृतसर साहिब, कोटगढ़, पिशौर, कांगड़ा, कश्मीर, नारोवाल, मुलतान, बटाला आदि स्थानों पर शैक्षणिक केंद्र स्थापित कर लिए गए थे। इसके अलावा ईसाइयों द्वारा दयाल सिंघ मजीठिया को प्रेरित कर श्री अमृतसर साहिब में एक बाग़ भी लिया गया और मजीठा में एक गिर्जाघर खोला गया। १८७३ ई. में श्री अमृतसर साहिब के मिशन स्कूल के चार विद्यार्थी आया सिंघ, अतर सिंघ, साधू सिंघ और संतोख सिंघ ने ईसाई बनने का एलान किया, जिसने सिक्ख मानसिकता को गहरी चोट पहुंचाई। बेशक सिक्खों द्वारा उन विद्यार्थियों को ईसाई बनने से रोक लिया गया, लेकिन यह घटना सिक्खों के लिए बड़ी चिंता का विषय बनी। इसी समय के दौरान सरकार-समर्थक व्यक्ति श्रद्धा राम फिलौरी ने गुरु का बाग श्री अमृतसर साहिब में सिक्ख गुरुओं के ख़िलाफ़ कुछ अयोग्य शब्द बोले और खालसा पंथ की कड़ी नुकताचीनी की, जिस कारण सिक्खों में आक्रोश और जोश पैदा हुआ। यही कुछ तत्कालीन कारण थे, जिनके कारण आखिर १८७३ ई. में श्री अमृतसर साहिब के गुरु का बाग़ नामक स्थान पर ‘सिंघ सभा’ की आधारशिला रखी गई, जिसमें कुँवर बिकरम सिंघ कपूरथला, बाबा खेम सिंघ बेदी, सरदार ठाकर सिंघ संधावालिया आदि सिक्ख शख़्सियतें शामिल हुईं। इस सभा के दौरान सरदार ठाकर सिंघ संधावालिया को सिंघ सभा लहर का पहला प्रधान नियुक्त किया गया और ज्ञानी गिआन सिंघ को सचिव बनाया गया। सदस्यों के दाखिले के लिए नियमावली तैयार की गई तथा सिंघ सभा के प्रसार के लिए ऐतिहासिक गुरुद्वारा साहिबान, तख्त साहिबान आदि स्थानों पर संदेश भेजे गए। सिंघ सभा लहर के उद्देश्य थे:

१. सिक्खों में फैल चुकी कुरीतियों को दूर करना

२. गुरसिक्खी की मर्यादा का पुनर्गठन करना और उच्च किरदार वाले सिक्ख पैदा करना।

३. ईसाई मिशनरी और सनातन मत के प्रभाव से सचेत करना।

४. पंजाबी भाषा में कौमी साहित्य प्रकाशित करना।

५. धार्मिक, व्यावहारिक और अकादमिक विद्या को प्राथमिकता प्रदान करना।

६. सिक्ख अध्ययन को नयी दिशा देना।
७. स्कूल, कॉलेज स्थापित करना।

कुछ समय के पश्चात् सिंघ सभा के प्रारंभिक नेताओं में मतभेद पैदा होने शुरू हो गए। इसका बड़ा कारण लहर में नरम-ख्यालात और गर्म ख्यालात वाले व्यक्तियों का होना था। उदाहरणतया बाबा खेम सिंघ बेदी देहधारी गद्दी के समर्थक और नरम स्वभाव के मालिक थे। इसके विपरीत सरदार ठाकर सिंघ संधावालिया गर्म ख्यालों के धारक थे। कुँवर बिकरम सिंघ प्रगतिशील विचारधारा और सुधारवादी ख्यालों के धारक थे। लगभग दो वर्ष बाद सिंघ सभा श्री अमृतसर साहिब का प्रचार धीमा पड़ गया था।

सिंघ सभा श्री अमृतसर साहिब के पुनरुत्थान के लिए भाई गुरमुख सिंघ ने यत्न शुरू किये और दो पुराने नेता सरदार ठाकर सिंघ संधावालिया और कुँवर बिकरम सिंघ को अपने साथ मिला लिया। भाई गुरमुख सिंघ की मेहनत सदका पंथक सभाएं पुनः आयोजित होना शुरू हो गईं। सिंघ सभा का पहला मुख्यालय श्री अमृतसर साहिब में था, मगर लाहौर में भी सिक्खी के प्रचार और प्रसार की अति आवश्यकता थी, अतः इस सम्बन्ध में एक नई सिंघ सभा बनाने की तजवीज रखी गई। आखिर १८७९ ई. में लाहौर में पंथक सभा
आयोजित की गई और सर्वसम्मति से गुरमता पारित कर सिंघ सभा लाहौर की आधारशिला रखी गई। सिंघ सभा लाहौर को बनाने का मुख्य कारण यह था कि यहाँ आर्य समाजी बड़े स्तर पर अपने पैर पसार रहे थे। देखते ही देखते उनके द्वारा एक वर्ष में ही लाहौर, श्री अमृतसर साहिब गुरदासपुर, गुजरांवाला, फ़िरोजपुर, रावलपिंडी, जेहलम आदि स्थानों पर अपने केंद्र स्थापित कर लिए गए। सिंघ सभा लाहौर का मुख्य उद्देश्य सिक्ख धर्म का प्रचार और विद्या के क्षेत्र में विकास करना था। भाई हरसा सिंघ और भाई गुरमुख सिंघ के सामूहिक यत्न से गुरमुखी भाषा के विकास को प्राथमिकता दी गई। उनके द्वारा गुरमुखी भाषा को ओरिएंटल कॉलेज में भी पढ़ाया जाने लगा था। सिंघ सभा लाहौर ने शुरूआती दौर में ही दो बड़े कार्य आरंभ किए :-

१. धर्म – जिसमें आसा की वार, शब्दों का पढ़ना, पढ़ाना, छपवाना, बाँटना, कीर्तन करना आदि।

२. विद्या- जिसमें स्कूल, कॉलेज खोलना, पत्रिकाएं प्रकाशित करना, गुरमुखी अखबार प्रकाशित करना आदि।

सिंघ सभा लाहौर ने अपने कार्यों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए सर्वप्रथम १० नवंबर, १८८० ई. दिन बुधवार को साप्ताहिक गुरमुखी अखबार प्रकाशित करना शुरू किया। इसके साथ ही १८८१ ई. में

शैक्षणिक पत्रिका ‘विद्यारक’ को शुरू किया गया। इस मासिक पत्रिका का संपादन भाई गुरमुख सिंघ द्वारा किया गया। इसके पश्चात् उर्दू में ‘खालसा गजट’ अखबार को लाहौर से प्रकाशित किया जाने लगा। इस प्रकार सिंघ सभा लाहौर निरंतर अपने कार्यों को करती हुई अलग-अलग क्षेत्रों में अपना प्रभाव छोड़ रही थी।

सिंघ सभा लाहौर में ज्ञानी दित्त सिंघ की भूमिका को दरकिनार नहीं किया जा सकता। वे भाई गुरमुख सिंघ की प्रेरणा से सिंघ सभा लाहौर में शामिल हुए थे। ज्ञानी दित्त सिंघ द्वारा ‘खालसा अखबार’ की जिम्मेदारी १३ जून, १८८६ ई. को संभाली गई और निरंतर लगभग १९०१ ई. तक संपादन कार्य करते रहे। बेशक यह अख़बार एक बार बंद भी हो गया था, परन्तु ज्ञानी दित्त सिंघ ने इसे पुनः १८९३ ई. में अपने खर्चे पर शुरू किया। जहाँ ज्ञानी दित्त सिंघ द्वारा अखबार का संपादन कार्य किया गया, वहीं उनके द्वारा ३८ से अधिक बहुमूल्य रचनायें भी लिखी गईं। सिंघ सभा लहर बीसवीं सदी में अलग रूप धारण कर गई थी, जिस कारण बाद में गुरुद्वारा प्रबंध सुधार लहर की आरंभता और सफलता का आधार सिंघ सभा लहर को ही माना जा सकता। इसी लहर के कारण सिक्ख कौम के महान हीरे भाई कान्ह सिंघ नाभा, भाई वीर सिंघ, प्रो. साहिब सिंघ सिंघ हिस्टोरियन आदि श्रेष्ठ विद्वान सिक्ख अकादमिकता को बुलंदियों पर पहुँचाया।

– डॉ. गुरमिंदर सिंघ रूपोवाली