‘सिंह’ नहीं ‘सिंघ’ लिखें

हिन्दी
March 24, 2025

– प्रो. सुरिंदर कौर

सिक्ख धर्म विश्व का सबसे आधुनिक धर्म है, जिसकी स्थापना केवल ५५४ वर्ष पूर्व ही हुई है । अन्य धर्मों के प्रचार व प्रसार से कहीं आगे इतने अल्प समय में भी सिक्ख धर्म आज विश्वव्यापी है। अपने आरंभ के काल से ही सिक्ख धर्म को राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक विरोधों का सामना करना पड़ा, अनथक संघर्ष करना पड़ा, कई बार तो समूची कौम का अस्तित्व तक मिटाने के प्रयास किये गए, मगर सिक्खों ने अपने गुरु साहिबान के भरोसे असह पीड़ा सहन की, अकह प्रताड़नाएं झेलीं, घरबार छोड़े, जंगलों में, बीहड़ों में, बियाबानों में दिन बिताए, बेशुमार शहादतें दीं, लेकिन धर्म को यशस्वी बनाए रखा। आततायियों का जितना अत्याचार सिक्ख धर्म ने झेला, यदि किसी भी अन्य धर्म को झेलना पड़ता तो शायद वह संसार से मिट ही जाता । खास तौर पर अगर सिक्खों की तादाद देखें तो यह एक करिश्मा ही लगता है । इतने आत्मबल और सहन शक्ति का प्रदर्शन मानव इतिहास के उत्सर्ग का द्योतक है, मानवीय सीमाओं की पराकाष्ठा है और यही सिक्ख धर्म विलक्षणता है। इसी विलक्षणता के आधार पर सिक्ख धर्म विश्व में अनुपम इतिहास और अति विशिष्ट स्थान बना चुका है। सिक्ख धर्म का गौरव और प्रतिष्ठा आज विश्व-विख्यात है।

परंतु सिक्खों का संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है। पिछली तीन सदियों में सिक्ख धर्म के अस्तित्व को कई चुनौतियां मिलीं और सिक्ख उसका प्रबलता के साथ सामना करते हुए अपनी विशिष्ट छवि व पंथक अस्तित्व को बचाने में सफल रहे। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में संघर्ष सशस्त्र न होकर बौधिक, साहित्यिक रूप से और अधिक जटिल हो गया है। कभी सिक्ख धर्म को हिंदू धर्म का ही एक हिस्सा बताकर, तो कभी सिक्खों को आतंकवादी कहकर उनकी छवि को गलत रूप से पेश किया जा रहा है। एक ओर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर ‘लचर कल्चर’ ने पंजाब के नौजवानों को तबाह कर दिया तो दूसरी ओर सिक्ख विरोधी ताकतों ने सिक्ख इतिहास को तोड़ङ्कुमरोड़कर अपने लाभानुसार प्रस्तुत किया। यहां तक कि सिक्ख गुरु साहिबान तक को केवल हिंदू धर्मङ्करक्षक के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा और यह सिलसिला अब भी निरंतर जारी है।

ऐसा ही अस्तित्व मिटाने वाला प्रयास हिंदी साहित्य और साहित्यकारों द्वारा भी किया गया, जिसमें बड़ी आसानी से हमारे सिक्ख साहित्यकार और अन्य भाषा के साहित्यकार भी फंस गए। हिन्दी में अक्सर सिक्ख नामों को लिखते समय ‘सिंघ’ उपनाम के स्थान पर ‘सिंह’ का प्रयोग किया जाता है, जो सर्वथा गलत है । ‘सिंघ’ उपनाम सिक्खों की विशिष्ट पहचान है। अन्य भाषाओं में ‘सिंघ’ शब्द के प्रयोग को लेकर कोई दिक्कत नहीं है, परंतु हिंदी में यह गलत परंपरा दशाब्दियों से चली आ रही है। मराठी भाषा भी देवनागरी में ही लिखी जाती है, मगर वहां ‘सिंघ’ अथवा ‘सिंग’ ही लिखा जाता है । अंग्रेजी में भी ‘ Singh ही लिखा जाता है, ‘Sinh ‘ नहीं । यह मामला धार्मिक संकीर्णता का नहीं है, सिक्ख अस्तित्व का है ।

‘सिंघ’ को ‘सिंह’ लिखने वाले यह तर्क देते हैं कि इससे शब्द के अर्थ में तो कोई फर्क नहीं पड़ता, परंतु ऐसे कई शब्द हैं, जिनके उच्चारण-भेद से अर्थ में तो फर्क नहीं पड़ता मगर व्यक्ति का अस्तित्व ही बदल जाता है। ‘पाटिल’ और ‘पटेल’ दोनों का अर्थ एक है — गांव का मुखिया । मगर अब यदि भारत की पूर्व राष्ट्रपति ‘प्रतिभा पाटिल’ को ‘प्रतिभा पटेल’ लिख दिया जाए तो उपद्रव मच जाएगा; एक मराठी मूल का व्यक्ति गुजराती बन जाएगा, जबकि धर्म तो फिर भी हिंदू ही रहेगा । ऐसे ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री का नाम ‘मनमोहन सिंघ’ के स्थान पर ‘मनमोहन सिंह’ लिखने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, ऐसा क्यों?

हिंदी में ‘सिंघ’ को ‘सिंह’ लिखतेङ्गलिखते अब हालत यहां तक पहुंच गई है कि वे लोग नामों का भी अनुवाद करके लिखने लगे हैं, जैसे— ‘सुरिंदर’ को ‘सुरेंद्र’, ‘दविंदर’ को ‘देवेंद्र’ तथा ‘रजिंदर’ को ‘राजेंद्र’ आदि। यहां तक कि अब गुरु साहिबान के नामों के साथ भी खिलवाड़ हो रहा है। ‘गुरु गोबिंद सिंघ जी’ के स्थान पर ‘गुरु गोविंद सिंह’ लिखा जा रहा है, जो सर्वथा अनुचित है, दुराग्रह है । इस तथ्य के समर्थन में ठोस कारण भी हैं, जिनकी यहां चर्चा करना अनिवार्य है

व्याकरणिक आधार
व्याकरण के अनुसार किसी भी व्यक्तिवाचक संज्ञा (विशेष नाम) का अनुवाद करते समय केवल लिप्यंतर किया जाता है, अनुवाद नहीं । इस बात को एक आम अथवा औसत शिक्षण प्राप्त करने वाला भी जानता है, तो विद्वान श्रेणी क्यों नहीं? लिप्यंतर का अर्थ है— अक्षरों का एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तन, समूचे विशेष नाम का अनुवाद किया ही नहीं जाता।
उदाहरण १ : यदि किसी अंग्रेज महिला का नाम है Rosy Smith, जो कि एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है, अब यदि हिंदी में उनका नाम लिखना होगा तो केवल लिप्यंतर करके ‘रोजी स्मिथ’ लिखा जाएगा, न कि पूरा अनुवाद करके ‘गुलाबो लोहार’ । इससे तो उस महिला के नामके साथ-साथ उसकी पहचान ही बदल जाएगी ।
उदाहरण २ : यदि किसी पठान का नाम ‘फरजंद खान’ अथवा ‘फतेह खान’ है तो हिंदी में भी वैसे ही लिखा जाएगा। उनका अनुवाद करके ‘ पुत्र खान’ या ‘विजय खान’ नहीं लिखा जा सकता ।
उदाहरण ३ : यदि किसी महिला का नाम ‘कला जोशी’ है तो उसे अंग्रेजी में लिखते समय केवल लिप्यंतर करके ‘Kala Joshi’ ही लिखा जाएगा, अनुवाद करके ‘ Art Priest’ नहीं किया जाएगा।

इस प्रकार यदि नामों का अनुवाद किया जाने लगा तो किसी व्यक्ति की भी अपनी विशिष्ट पहचान नहीं रहेगी। व्याकरण की दृष्टि से भी यह गलत है। हिंदी के लेखक अपना नाम किसी भी भाषा में लिखें, केवल लिप्यंतर करके सही नाम लिखते हैं, पूरा अनुवाद नहीं करते। कोई भी ‘मैथिलीशरण गुप्त’ को ‘Maithili Refuge Secret’ या ‘ रामधारी सिंह दिनकर’ को ‘Ramholder Lion Sun’ नहीं लिखता । तो यह विचार करने को मजबूर करती है कि केवल सिक्खों के नामों (व्यक्तिवाचक संज्ञाओं) का ही हिंदी में अनुवाद क्यों किया जाता है और किसकी अनुमति से ?

ऐतिहासिक कारण
भाषा की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया में कई शब्द ऐसे हैं जो सहज ही विकसित हुए और विशेष बन गए । विशेष संज्ञाएं तो विशेष स्थान, प्रक्रिया अथवा व्यक्ति द्वारा ही प्रयोग में लाई जाती हैं ।
‘सिंघ’ शब्द, जो कि सिक्खों का अनिवार्य ‘उपनाम’ है, किसी सहज प्रक्रिया अथवा कालावधि में उत्पन्न नहीं हुआ है। सन् १६९९ में खालसा ङ्क सृजन के साथ ही श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने इसे विशेष उपाधिस्वरूप सिक्ख पुरुषों को प्रदान किया था। सबसे पहले पांच प्यारों के नामों के साथ ‘सिंघ’ लगा और छठे स्थान पर स्वयं गुरु साहिब जी ने अपने नाम को भी बदल कर ‘गोबिंद सिंघ’ बना लिया। यह शब्द उस समय भी ‘सिंघ’ ही था, ‘सिंह’ नहीं। यह विशेष प्रक्रिया द्वारा विशेष नाम के रूप में सिक्ख कौम को मिला है, अनुवाद नहीं किया जा सकता, इसे यथावत ही लिखना है।

भाषाई साक्ष्य
‘सिंह’ शब्द संस्कृत का है, जो अपना स्वरूप बदलते बदलते कई भाषाओं में विविध उच्चारणों के साथ बोला जाता है। इसका प्रकृत स्वरूप भी ‘सिंह’ ही है। हिंदी में भी यह ‘सिंह’ ही है, लेकिन बंगाल और उड़ीसा में यह ‘सिन्हा’ बन गया। पंजाबी और अन्य उत्तरी भाषाओं में प्राकृत ‘सिंह’ का उच्चारण ‘सिंघ’ रूप में हुआ और फिर गुरमुखी में यह शब्द इसी स्वरूप में प्रयोग किया गया। यह अब पंजाबी का ही शब्द है। गुरबाणी उच्चारण के समय गुरु साहिबान ने भी इसी का प्रयोग किया है, जैसे श्री गुरु रामदास जी का फरमान है :
बकरी सिंघु इकाइ राखे
मन हरि जपि भ्रमु भउ दूरि कीजै ।।
श्री गुरु अरजन देव जी के अनुसार : (पन्ना ७३५)
– पंच सिंघ राखे प्रभि मारि ।।
दस बिघड़ी लई निवारि ।। ( पन्ना ८९९ )
– सिंघु बिलाई होइ गइओ त्रिणु मेरु दिखीता । । ( पन्ना ८०९ )
— गऊ चरि सिंघ पाछै पावै ।। ( पन्ना १९८ )

यहां तक कि भाई गुरदास जी ने अपनी वारों में भी ‘सिंघ’ शब्द का ही प्रयोग किया है। उनकी वारें पंजाबी और कबित्त ब्रज भाषा में रचे गए। हिंदी भाषी क्षेत्रों में उन्होंने कई वर्षों तक प्रचार किया। वे पंजाबी, हिंदी, ब्रज और उससे संबंधित अन्य सभी भाषाओं के ज्ञाता थे। फिर भी उन्होंने सोचसमझ कर शब्द ‘सिंघ’ का ही प्रयोग किया, जैसे :
– सिंघु बुके मिरगावली
भंनी जाइ न धीरि धरोआ । (वार १ : २७ )
-बुकिआ सिंघ उजाड़ विचि
सभि मिरगावलि भंनी जाई। (वार १ : ३४)
– पहुता नगरि दुआरका
सिंघ दुआरि खलोता जाए। (वार १ : ९ )
– चउथा करि नरसिंघ रूप
असुरु मारि प्रहिलादि उबारे । (वार २३:१०)

भक्त-बाणी, जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का एक प्रमुख हिस्सा है, जिसे अपनी उदासियों के समय स्वयं श्री गुरु नानक देव जी ने एकत्रित किया था, जो बाणी जिस भाषाई स्वरूप में मिली उसे उसी स्वरूप में श्री गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किया । भक्त – बाणी बहुत ही विस्तृत क्षेत्र और काल में रची गई, मगर उसमें भी शब्द ‘सिंघ’ ही मिलता है, ‘सिंह’ नहीं, जैसे भक्त कबीर जी :
बैठि सिंघु घरि पान लगावै घीस गलउरे लिआवै ।। …
रूप कंनिआ सुंदरि बेधी ससै सिंघ गुन गाए ॥ ( पन्ना ४७७ )
देखत सिंघु चरावत गाई ॥ ( पन्ना ४८१ )
भक्त नामदेव जी :
सिंघच भोजनु जो नरु जानै ॥
ऐसे ही ठगदेउ बखानै ॥
भक्त सधना जी : (पन्ना ४८५ )
सिंघ सरन कत जाईऐ जउ जंबुकु ग्रासै ॥ ( पन्ना ८५८)

यह स्पष्ट है कि मध्यकालीन हिंदी भाषा में भी शब्द ‘सिंघ’ ही प्रचलित और स्वीकृत था । जब हिंदी के लेखक उन रचनाओं का प्रमाणित संस्करण प्रस्तुत करते हैं तब तो ‘सिंघ’ को यथावत् रहने देते हैं, केवल सिक्खों के नामों के साथ लगे ‘सिंघ’ का अनुवाद करके ‘सिंह’ बना देते हैं । साफ है कि यह विशेषत: सिक्ख कौम के साथ दुराग्रही व्यवहार है, जिसे फौरन बदलने की जरूरत है ।

सामाजिक कारण
राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और अन्य पड़ोसी प्रदेशों में कुछेक जातियों के नाम के साथ ‘सिंह’ उपनाम का प्रयोग होता है, जिनमें से हरियाणवी, ठाकुर जाति, राजपूत आदि विशेष हैं। ये जातियां अपने नाम के बाद गोत्र लगाने से पूर्व ‘सिंह’ का प्रयोग करती हैं। सिक्ख कौम में गोत्र का प्रयोग वर्जित है। यहां केवल उपनाम ‘सिंघ’ का ही प्रयोग अनिवार्य है। ऐसा दशमेश पिता ने जात पांत के भिन्नभेद मिटाकर सामाजिक एकता लाने लिए भी किया था । यह एक क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन था, जिसने जातपांत व्यवस्था के विरुद्ध समरसता और समानता को स्वीकारा। पूरी कौम में दो ही सांझे उपनाम हैं— पुरुषों के लिए ‘सिंघ’ और स्त्रियों के लिए ‘कौर’ । सिक्ख संघर्ष काल में तो ‘सिक्ख’ शब्द के स्थान पर पुरुषों के लिए ‘सिंघ’ और स्त्रियों के लिए ‘सिंघणी’ ही प्रचलित हुआ, जो आज तक चल रहा है। यहां तक कि अरदास में भी शब्द ” जिन्हां सिंघां सिंघणी ने धरम हेत सीस दित्ते” का ही प्रयोग है ।

‘सिंघ’ शब्द सिक्ख धर्म के अस्तित्व का प्रतीक है । अब यदि इस शब्द का अनुवाद करके ‘सिंह’ का प्रयोग सिक्ख नामों के साथ किया जाता है तो सिक्ख की पहचान ही भ्रमित हो जाती है ।

उदाहरण
यदि किसी स्थान पर पाठक यह लिखा पाते हैं कि “अजीत सिंह ने प्रथम स्थान प्राप्त किया है ।” इस नाम से यह स्पष्ट नहीं होता कि यह व्यक्ति सिक्ख है, राजपूत है, ठाकुर जाति का है या कोई और, मगर यदि ‘अजीत सिंघ’ लिखा हो तो साफ है कि व्यक्ति ‘सिक्ख’ ही है। इसी प्रकार हिंदी के लेखक सिक्ख (विशेष) नामों का अनुवाद कर व्यक्ति का धार्मिक अस्तित्व ही भ्रम में डाल देते हैं। ‘सुरिंदर सिंघ’ लिखने से स्पष्ट है कि व्यक्ति सिक्ख है मगर ‘सुरेंद्र सिंह’ लिखने से उसका अस्तित्व ही भ्रामक बन जाता है ।

अतः हिंदी के लेखकों से और हिंदी में सिक्ख नामों को लिखने वाले प्रत्येक व्यक्ति से यह निवेदन है कि दुराग्रह को छोड़कर, व्याकरण को समझ कर विशेष नामों का अनुवाद न करें। सिक्ख नामों के साथ ‘सिंघ’ शब्द ही लिखें, ‘सिंह’ नहीं। ‘गुरमति ज्ञान’ के संपादक सचमुच प्रशंसनीय हैं जो कि सही उपनाम ‘सिंघ’ का ही प्रयोग करते हैं। यह एक अभियान है, जिसमें सभी का योगदान जरूरी है।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी में नामों का अनुवाद करके लिखने से जनगणना के समय भी दिक्कत पेश आती है। बेशक पंजाब प्रांत में न हो, लेकिन अन्य प्रांतों में ‘सिंघ’ के स्थान पर ‘सिंह’ लिखने से व्यक्ति को सिक्ख न मानकर हिंदू ही मान लिया जाता है । कहींङ्ककहीं पर यह भ्रामक पहचान का नतीजा होता है, लेकिन ज्यादातर मामलों में जानबूझकर ही सिक्ख की पहचान ‘सिंह’ लिखकर भ्रमित की जाती है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है । जनगणना के समय अपना धर्म सिक्ख लिखवाने के लिए मुझे उन अधिकारियों से खासी बहस करनी पड़ी थी।

यदि हिंदी लिखते समय ‘सिंघ’ का सही उपयोग हो, नामों का अनुवाद न होकर केवल लिप्यंतर ही किया जाए तो धार्मिक पहचान की समस्या अपने आप ही हल हो जाएगी । अतः प्रत्येक सिक्ख से यह अनुरोध है कि अपना नाम हिंदी में लिखते समय ‘सिंघ’ का ही प्रयोग करें और दूसरों से भी अपना नाम इसी प्रकार लिखने को कहें, ताकि आज सिक्ख के अस्तित्व को धूमिल करने वाले सफल न हो सकें।

इन बातों का खास ध्यान रखें !
* प्रत्येक सिक्ख पुरुष या महिला अपना नाम ‘सिंघ’ या ‘कौर’ के साथ पूरा लिखे !
* हिंदी में सिक्ख का नाम लिखते समय ‘सिंह’ नहीं, ‘सिंघ’ का प्रयोग करें !
* हिंदी में सिक्ख का नाम लिखते समय ‘सरदार’ का ही प्रयोग करें!
* गुरु साहिबान के नामों के प्रति सजग रहें !
‘गुरु गोविंद सिंह’ नहीं, ‘गुरु गोबिंद सिंघ जी’ लिखें !