
-डॉ. कशमीर सिंघ ‘नूर’
‘बुंगा’ शब्द का मूल स्रोत फारसी के ‘बुंगाह’ शब्द को माना जाता है। इसका भावार्थ होता है– निवास-स्थान या रहने का स्थान । आरंभ में श्री हरिमंदर साहिब श्री अमृतसर के इर्द-गिर्द लगभग ७० बुंगे बने हुए थे। ये बुंगे सिक्ख-मिसलों (जत्थेबंदियों) के प्रमुखों ने बनवाने शुरू किए थे। श्री हरिमंदर साहिब में नतमस्तक होने के पश्चात वे इन बुंगों में विश्राम किया करते थे। बाद में बने बुंगे धार्मिक संप्रदायों या गोत्रों के नाम पर, जैसे ‘बुंगा निर्मलियां’, ‘बुंगा सोढियां’ आदि बने और इनमें श्रद्धालुओं के विश्राम करने की व्यवस्था की जाती थी। धीरे-धीरे बुंगों की संख्या बढ़कर ८४ के लगभग हो गई थी । प्रत्येक सिक्ख सुबह – शाम वाहिगुरु के समक्ष जो अरदास करता है, उस अरदास में भी ‘बुंगों’ का विशेष रूप से वर्णन किया जाता है, जैसे– “सिक्खां नूं सिक्खी दान, केश दान, रहित दान, विवेक दान, विसाह दान, भरोसा दान, दाना सिर दान नाम दान, श्री अमृतसर जी दे दर्शन स्नान, चौंकियां, झंडे, बुंगे जुगो जुग अटल धर्म का जयकार, बोलो जी वाहिगुरु !”
इस आलेख में सरदार जस्सा सिंघ रामगढ़िया द्वारा निर्मित करवाए गए प्रसिद्ध व ऐतिहासिक ‘रामगढ़िया बुंगा’ के विषय में जानकारी दी जा रही है।–
१८वीं शती सिक्खों के लिए अति संघर्षपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण रही है। इस समय के दौरान कई शूरवीर, जांबाज सिक्ख योद्धाओं ने धर्म की आन-बान-शान के लिए, देश एवं कौम के गौरव व सम्मान के लिए, मजलूमों व स्त्रियों की रक्षा हेतु विदेशी आक्रमणकारियों का डटकर मुकाबला किया। जिन महान, बहादुर, निडर सिक्ख योद्धाओं से जालिम विदेशी हमलावर एवं शासक थर-थर कांपते थे, उनमें रामगढ़िया मिसल के प्रमुख सरदार जस्सा सिंघ रामगढ़िया का विशेष रूप से जिक्र किया जाता है। इनका जन्म सरदार भगवान सिंघ के गृह में ५ मई, १७२३ ई. को हुआ था । इतिहासकार डब्ल्यू. एच. मैकलियोड के अनुसार, इनके पैतृक गांव का नाम ईचोगिल ( ईछोगिल, लाहौर) है। इनके परिवार को ‘भाम्ब्रा परिवार’ के नाम से पूरे क्षेत्र में जाना जाता था।
श्री दरबार साहिब श्री अमृतसर की परिक्रमा में श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए और बाहरी आक्रमणकारियों से श्री हरिमंदर साहिब की रक्षा हेतु बनवाया गया ‘ रामगढ़िया बुंगा’ सरदार जस्सा सिंघ रामगढ़िया की अनमोल व अद्भुत धरोहर के तौर पर आज भी मौजूद है। श्री हरिमंदर साहिब की परिक्रमा में बने लगभग ८४ बुंगों में से अब केवल यही एक ऐसा बुंगा बचा है, जो किसी समय सिक्ख मिसलों द्वारा बनाए बुंगों के अस्तित्व का साक्षी है।
” बुंगा’ पर्सियन भाषा का शब्द है । इसका अर्थ है – वह जगह, जहां भिन्न-भिन्न धर्मों के लोग एकत्र होकर बैठ सकें । ‘बुंगाह’ या ‘बुंगा’ का अर्थ ‘स्थान’ भी होता है।”
एक और महत्त्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध है कि ज्ञासुल लुगार, नवल किशोर प्रेस, पृष्ठ ९० के अनुसार, श्री हरिमंदर साहिब की परिक्रमा में बुंगे बनने से लंबा समय पहले श्री गुरु रामदास जी तथा श्री गुरु अरजन देव जी ने कार सेवा करने तथा श्री हरिमंदर साहिब में नतमस्तक होने वाली सिक्ख संगत के निवास व लंगर हेतु परिक्रमा के बाहरी स्थान पर छपरियां एवं कच्चे मकान बनाए थे। बाद में कच्चे मकानों की जगह पक्के मकान बन गए और सिक्ख-मिसलों के अस्तित्व में आने के पश्चात् इन मकानों की जगह मिसलों के प्रमुखों ने संगत के विश्राम हेतु बुंगे बना दिए ।
पुस्तक ‘अहमद शाह तवारीख-ए-पंजाब’ (पृष्ठ ३८ ) के अनुसार, बुंगों के सरदार श्री अमृतसर में आने पर अपने-अपने बुंगे में ही ठहरते थे । इन बुंगों को फिर श्री दरबार साहिब का अभिन्न हिस्सा ही समझा जाने लगा।
इस आलेख में वर्णित ‘बुंगा रामगढ़िया’ मिसलों के काल की भवन – कला का एक अद्वितीय नमूना (मॉडल) है। इस बुंगे का निर्माण विक्रमी संवत् १८१२ अर्थात् ईस्वी सन् १७५५ में सरदार जस्सा सिंघ रामगढ़िया ने २,७५,००० रुपए खर्च कर करवाया था । उस समय श्री हरिमंदर साहिब की परिक्रमा में अन्य बुंगे भी थे। ‘बुंगा रामगढ़िया’ की एक मंजिल जमीन के ऊपर तथा तीन मंजिलें भूमिगत ( ज़मीनदोज़) हैं। बुंगे की चौड़ाई १५० फुट व लंबाई ८४ फुट है। बुंगे के भीतर प्रवेश करने से पहले एक कुआं दृष्टिगोचर होता है। भूमिगत तीनों मंज़िलें इस कुएं के साथ-साथ हैं। नीचे जाने के लिए एक छोटा-सा द्वार भी बनाया गया है। दूसरा रास्ता ऊपरी मंजिल की ओर से है। कुएं के साथ-साथ १६ – १७ सीढ़ियां (पायदान ) उतरने के बाद एक हॉल में से गुजरने पर सामने रामगढ़ियों का ऐतिहासिक ‘कौंसिल हाऊस’ मौजूद है, जहां पर नानकशाही ईंटों द्वारा बनाए गए सिंघासन पर बैठकर वे अपना दरबार लगाया करते थे। उन्होंने अपना सिंघासन श्री दरबार साहिब में सुशोभित श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के आसन से नीचा रखा था। उनका मत था कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के समानांतर उन्य कोई आसन नहीं लग सकता ।
उनके सिंघासन के पीछे और सामने दो शाही कालकोठरियां भी मौजूद हैं, जिनमें अंतरिम (आरजी) तौर पर शाही कैदियों को रखा जाता माना जाता है। पहले इन कोठरियों में कोई झरोखा न होने के कारण सघन अंधेरा रहता था, मगर अब भीतर रौशनी का प्रबंध कर दिया गया है। कुएं के साथ-साथ सटी भूमिगत दो अन्य मंजिलों में तहखाने बने हुए हैं। यहां पर बेशक प्राकृतिक हवा नहीं आती और न ही बिजली का कोई पंखा वर्तमान समय में लगाया गया है, फिर भी बुंगे की अद्भुत तामीर के कारण यहां भीतर मई-जून के महीनों में ए. सी. जैसी ठंडक महसूस होती है । ‘दुःख भंजनी बेरी’ की तरफ श्री दरबार साहिब की परिक्रमा की ओर इस बुंगे की मज़बूत एवं मोटी दीवारों में प्रकाश की व्यवस्था हेतु खूबसूरत झरोखे बनाए गए हैं। ऊपरी मंज़िल के बड़े हॉल में लाल पत्थर की डों में जड़े हुए दिल्ली के लाल किले के स्तंभ तथा एक ‘तख्त-ए-ताऊस’ ऐतिहासिक सिल (शिला) पड़ी है, इसी ‘तख्त-ए-ताऊस’ पर बिठाकर मुगल बादशाहों की ताजपोशी की जाती थी । इस में कई बेशकीमती नग व मोती जड़े हुए हैं ।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सन् १७८३ ई. में जब सरदार बघेल सिंघ, सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया, सरदार जस्सा सिंघ रामगढ़िया, सरदार गुरदित्त सिंघ, सरदार भाग सिंघ आदि ने दिल्ली पर आक्रमण किया था, तब सरदार रामगढ़िया लाल किले की फतह की निशानी के तौर पर यह सिल, स्तंभ और चार तोपें अपने साथ ले आए थे। इन निशानियों को रामगढ़िया मिसल की सफलता और मुगलिया सरकार की पराजय की सूचक माना जाता है।
बुंगा रामगढ़िया के ऊपर दो सुंदर मीनार बने हुए हैं। इनकी ऊंचाई १५६ फुट है। मिसलों के काल में इन पर ‘रामगढ़िया मिसल’ का ध्वज लहराता था । इस पर दो स्वर्णिम शेरों की आकृति होती थी । इन मीनारों पर से दुश्मनों की नकलो-हरकत पर निगाह रखी जाती थी । यह ऐतिहासिक बुंगा सरदार जस्सा सिंघ रामगढ़िया का निवास-स्थान, उनकी राजनैतिक व सैनिक शक्ति का मुख्य केंद्र होने के अलावा ‘रामगढ़िया मिसल’ का केंद्र भी रहा है।
बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि सन् १९८४ में हुए घल्लूघारे ( साका नीला तारा) के दौरान सरकारी फौज द्वारा की गई भारी गोलाबारी के कारण जहां श्री अकाल तख्त साहिब व अन्य इमारतों को भारी क्षति पहुंची, वहीं बुंगा रामगढ़िया की इमारत को भी क्षति पहुंची। भीतर तक गोलियों के निशान अब भी मौजूद हैं। गोलाबारी के कारण बुंगे की निचली मंजिल में मैजूद कई बड़े कमरे तथा अन्य स्थान बंद हो गए और भीतर जगह-जगह मलबे के ढेर लग गए। रामगढ़िया भाईचारा द्वारा मीनारों की कार सेवा करवाए जाने के अलावा बाद में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने १८ अप्रैल २००८ ई. को पुरातत्त्व विभाग के विशेषज्ञों की निगरानी में इस बुंगे का मरम्मत – कार्य आरंभ करवा दिया। बुंगे को और भी हवादार बना दिया गया है। तामीरदारी में चूने का उपयोग किया गया है । इमारत में पड़ चुकी बड़ी दरारों को तथा नीचे की तरफ पड़ी हुई छोटी दरारों को भी ठीक कर दिया गया है। इस ऐतिहासिक बुंगे की मरम्मत का कुछ काम होना अभी भी शेष है। सांस्कृतिक एवं विरासती स्थानों व इमारतों का जीर्णोद्धार होता रहे तो समझिए कि यह जीर्णोद्धार हमारी संस्कृति, विरासत व सभ्याचार का है।
कुछ बुंगे श्री तरनतारन में गुरुद्वारा साहिब के सरोवर के इर्द-गिर्द भी बनाए गए थे। ज्यादातर बुंगे ढहकर इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं। कई बुंगों की दीवारों को भिन्न-भिन्न चित्रों द्वारा सजाया गया था। इससे बुंगों का सामाजिक रुतबा ऊंचा हो जाता था। श्री तरनतारन के गांव सठियाला में एक बुंगे की दीवारों को भी चित्रों द्वारा
सजाया गया था ।
ऐतिहासिक स्रोत- साम्रग्री :
१. पुस्तक : जस्सा सिंघ रामगढ़िया, लेखक : डब्ल्यू. एच. मैकलियोड
२. एच. एस. सिंघा ( इतिहासकार )
३. पंजाबी ट्रिब्यून (४ मई २०१६ ) लेखक : सुरेंद्र कोछड़
४. पुस्तक : ज्ञासुल लुगार, नवल किशोर प्रेस, पृष्ठ ८०
५. पुस्तक : अहमद शाह तवारीख-ए-पंजाब, पृष्ठ ३८
६. पंजाबी ट्रिब्यून (२८ मार्च, २०१८ )