सुपने जिउ संसारु ॥

हिन्दी, ਲੇਖ
January 10, 2025

– स. रणवीर सिंह*

रामु गइओ रावनु गइओ जा कउ बहु परवारु ॥ कहु नानक थिरु कछु नही सुपने जिउ संसारु ॥
( पन्ना १४२९)

नवम् पातशाह श्री गुरु तेग बहादर साहिब ने फरमाया है कि जिसने भी इस धरती पर जन्म लिया है, उसे मरना जरूर है। इस सृष्टि में कोई भी स्थिर नहीं । जो भी आया है उसे जाना ही है । यही दस्तूर है इस मायावी संसार का, बेशक वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम हों या बलशाली रावण । यह संसार सपने की तरह चलचित्र है ।
गुरबाणी में भक्त रविदास जी कहते हैं कि शरीर रूपी पिंजरे में जीवात्मा रूपी पक्षी कैदी के रूप में निवास करता है। :

जल की भीति पवन का थंभा रकत बुँद का गारा ॥
हाड मास नाड़ी को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ॥
( पन्ना ६५९ )

भक्त रविदास जी का एक अन्य फरमान है जिसमें जीव को ‘माटी का पुतला’ संबोधित कर उसकी हालत बयां कर रहे हैं :

माटी को पुतरा कैसे नचतु है ॥
देखे देखे सुनै बोलै दउरिओ फिरतु है ॥हा॥
जब कछु पावै तब गर करतु है ॥
माइआ गई तब रोवनु लगतु है ॥ ( पन्ना ४८७ )

जीवन और मृत्यु एक सिक्के के दो पहलू हैं। जो पैदा हुआ है उसे एक न एक दिन मरना ही पड़ेगा । जीव का तन घास की टाटी के समान है। घास के समान यह तन जलकर माटी में मिल जाता है:

इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी ॥
जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी ॥
(पन्ना ७९४)

लोग रोज़ मर रहे हैं, यमलोक जा रहे हैं। यह सब जानते हुए भी जीवित लोग सोचते हैं कि उन्होंने कभी मरना ही नहीं । कबूतर बेशक अपनी आंखें मूंद कर बैठा रहे, पर बिल्ली उसे झपटा मारकर खा ही जाती है :

ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥ 
मानसु बपुरा मुसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥

गुरबाणी में तो यहां तक कहा गया है :

कूड राजा कूड्डु परजा कूडु सभु संसारु ॥
कूड मंडप कूड माड़ी कूड्ड बैसणहारु ॥ कूड सुइना कूडु रुपा कडु पैन्हणहारु ॥ कूड्डु काइआ कूड्डु कपडु कडु रूप अपारु ॥
(पन्ना ८६५)

कूड मीआ कूड्डु बीबी खपि होए खारु ॥
कूड़ कूड़े नेहु लगा विसरिआ करतारु ॥
(पन्ना ४६८)

यह पूरा विश्व मिथ्या है, भ्रम है, धोखा है, नाशवान है । न राजा, न प्रजा स्थिर है। ये महल, मंडप सब नाशवान हैं। इनमें रहने वाले को भी काल का ग्रास बनना है। सोना-चांदी, काया, कपड़ा सब के सब नश्वर हैं, नाशवान हैं; रूप-रंग सब नष्ट होने वाले हैं।

कहां सु घर दर मंडप महला कहा सु बंक सराई ॥
कहां सु सेज सुखाली कामणि जिसु वेखि नीद न पाई ॥
कहा सु पान तंबोली हरमा होईआ छाई माई ॥२॥

रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥
(पन्ना ४१७)
( पन्ना १५६)

जिस जीवन से हम परम प्रभु को पा सकते हैं उसे हम भोग-विलास में समाप्त कर रहे हैं। कभी इस पर गंभीरता से नहीं सोचते । मरना अवश्य है . दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेकै

(पन्ना ६५८)
अकलमंदी इसी में है कि हम जीवन और मृत्यु के रहस्य को समझकर मृत्यु के स्वागत की तैयारी करें। इसमें घबराहट कैसी ? इस घबराहट से मुक्त होने का केवल एक ही उपाय है– हरि – सिमरन । हरि का सिमरन करने से जीवन सफल हो जाता है।:

हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे ॥
हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे ॥
(पन्ना ४८७)