शहादत का स्रोत

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January 01, 2025

–  गुरुचरनजीत सिंह लांबा

रिहा गिट्ठां नाल पुत्तां दीआं मिणे पिन्नीआं
चोजी अक्खां साहवें नक्शा दीवार दा रिहा ।

(कुंदन)

कलगीधर पिता साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी के लखते-जिगर चार साहिबज़ादों की शहादत मानवता के इतिहास में अद्वितीय है। संसार के किसी हिस्से में इसका कोई सानी नहीं मिलता। बड़े साहिबजादों का चमकौर साहिब के मैदाने जंग में दस लाख की फ़ौज के साथ लोहा लेते हुए शहीद हो जाना और छोटे साहिबजादों का सरहिंद में दीवार में जिंदा चिने जाना, पत्थरों का सीना फाड़ देने वाली घटनाएं हैं।

श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी को एक बार सिक्खों ने पूछा था कि “सच्चे पातशाह ! आप स्वयं ही तो कहते हो कि पूजा का धान ( धन-पदार्थ  ) खाना ज़हर के समान है, फिर भी आप क्यों भेंट-पदार्थ लेते हो!” सतिगुरु जी ने कहा कि “आपको दान लेने का सही अर्थ जानने की जरूरत है। एक अमानती ( बैंकर ) के पास जब कोई अपनी अमानत संचित करता है तो वह न केवल उसका मूल ही लौटाता है बल्कि उसमें ब्याज जोड़ कर उसे लाभ भी देता है। मैं स्पष्ट रूप से अवश्य भेंट स्वीकार करता हूं, मगर आप देखेंगे कि मैं इसमें अपना सब कुछ मिला कर, अपना तन-मन-धन मिला कर, यहां तक कि अपना आप और अपना पूरा परिवार कुर्बान कर खालसे को वापस लौटाऊंगा।” क्या संसार में कोई इस प्रकार का सम्पूर्ण दानी परिवार हुआ है कि उसके पास अपना कुछ भी शेष न बचा हो। और तो और सतिगुरु जी ने ‘वाहिगुरु जी का खालसा वाहिगुरु जी की फ़तह।’ कह कर खालसे की सृजना की। इसमें ‘खालसा’ जो है वो ‘वाहिगुरु’ है और ‘फ़तह’ भी ‘वाहिगुरु’ की है। पूरा परिवार दानी- गुरु ने ख़ालसे में समाहित कर दिया :

सरहंद ‘चों सुनेहा मिलिआ कि लाल दुर गए।
दोवें शहीद हो गए ने नौनिहाल टुर गए।
सूबे ने कंध अंदर दोवें नपीढ़ दित्ते ।
कोमल सरीर इट्टां दे विच्च पीड़ दित्ते ।
सुन के इह गल्ल सारी उह मुस्करा के उठिआ।
उस बादशाह ने नूरे दे कोल आ के पुच्छिआ ।
तूं रूबरू सँ उथे कोई कहर न कमाईं !
ते साफ-साफ दस्सीं कोई गल्ल न लुकाईं !
तेसी दी लग्गी जद सट्ट सी करारी !
मेरे फतहि ने उच्ची कोई चीख ते न मारी ?
कोई सी ते न कीती कोई आह ते न कढी ?
लालां ने किधरे उच्ची, कोई साह ते न कढी ?
इह कहिण दावी अन्दाज वक्खरा सी।
जो ओस ने बजाया उह साज़ वक्खरा सी।

बाबा जोरावर सिंघ जी और बाबा फतहि सिंघ जी ने जब सरहिन्द के सूबेदार की कचहरी में पेश होना था तो बड़े दरवाज़े में एक छोटी खिड़की रखी गई, ताकि इस ढंग के साथ साहिबजादे सिर झुका कर प्रवेश करें, मगर “ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ।। जिन कै रामु वसै मन माहि।। ” ये तो कलगीधर पिता के सुपुत्र श्री गुरु तेग़ बहादर जी के पोते और श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब जी के पड़पोते थे। ये तो श्री गुरु अरजन देव जी से आरंभ हुई। शहादत-शृंखला की एक अहम कड़ी थे। पंथक कवि स. तेजा सिंघ ‘साबर’ ने इसकी पहेलीनुमा तसवीर इस प्रकार अंकित की है :

सुरगां दे विच बैठी है सन,
इक जग्हा सरकारां दो ।
वेखण वाले वेख रहे ने,
बुत ए इक, नुहारां दो।
गल्लां विचों गल्ल इह निकली,
गल्ल ए इक, विचारां दो ।
इक ने पंचम पिता प्यारे,
इक उहनां दे पोते जो ।
उस पोते ने पोते लै लए,
दो एधर ते ओधर दो ।

चढ़दी कला (बुलंदावस्था) के इस शिखर का स्रोत क्या है, यह विचारणीय तथ्य है। साहिबजादे यह महान कार्य कैसे कर पाए, इसकी तैयारी श्री गुरु नानक देव जी ने की। श्री गुरु नानक देव जी जब सुलतानपुर लोधी के नवाब के दरबार में आए तो गुरु साहिब ने नवाब को झुक कर सलाम नहीं किया। उपस्थित मंत्री ने जब सतिगुरु जी को सलाम करने के लिए कहा तो हजूर ने कहा कि “जिस मनुष्य के अंदर लालच होगा उसकी गर्दन झुकेगी, जिसको लालच नहीं है उसकी गर्दन हमेशा बुलंद रहेगी।” ‘आ तमां बूद सलाम मी करद, गर्दन वे तमां बुलंद बवद ।” यह रूहानी शिक्षा है जो सतिगुरु जी ने पूरी मानवता के लिए प्रदान की। सतिगुरु श्री गुरु नानक देव जी आह्वान किया- “जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ ।। सिरु धरि तली गली मेरी आठ।।” साहिबजादों के दादा श्री गुरु तेग बहादर साहिब और उनके दादा श्री गुरु अरजन देव जी ने इस शमा को और रौशन किया :

शमा भी कम नहीं कुछ इश्क में परवाने से,
जान देता है अगर वो, तो यह सर देती है।

(जौक )
इस मार्ग के मार्गी बन कर साहिबजादे भी ‘वीर’ या ‘बाल वीर’ नहीं, बल्कि बाबा अजीत सिंघ जी, बाबा जुझार सिंघ जी, बाबा जोरावर सिंघ जी और बाबा फतह सिंघ जी हो गए।

सरहिंद के बारे में कहा गया :

नेकी वो शै है जो कभी लुट नहीं सकती।
सरहिन्द तो लुट सकती है,
यह कभी लुट नहीं सकती।

यह भी वास्तविकता है कि उसी सरहिन्द में सिंघों ने गधों द्वारा हल जोते। माता, पिता, चारों साहिबजादे कुर्बान करने के बावजूद भी कलगीधर पिता ने औरंगजेब को (जफ़रनामा भेज कर ) हिला कर रख दिया कि क्या हुआ यदि तूने मेरे चारों साहिबजादे शहीद कर दिए हैं, अभी तो कुंडलीदार साँप (मार ) बाकी है, जिंदा है :

चिहा शुद कि चूं बच्चगां कुशतह चार ।।
कि बाकी बिमांदअसतु पेचीदह मार ।।७८ ।।

सूबे की कचहरी में दीवान सुच्चा नंद ने साहिबजादों के बारे में कहा कि “ये तो साँप (भुजंग/भुजंगम) के बच्चे हैं।” उस दिन के बाद हर सिक्ख कलगीधर पिता की नादी संतान होने के कारण ‘भुजंगी’ कहा जाने लगा। यह चढ़दी कला का सफ़र था।

इतना ही नहीं, सब कुछ कुर्बान करने के उपरांत भी श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने औरंगजेब को लानत देते हुए कि जो मनुष्य हुमा (एक कल्पित पक्षी, जिसके बारे में मान्यता है कि यह पक्षी जिसके सिर पर से गुजर जाता है, वो राजा बन जाता है।) अर्थात् अकाल पुरख के साये में आ जाए, उसका (तेरे जैसे) कौए क्या बिगाड़ सकते हैं!
इसके बाद का सारा सिक्ख इतिहास चढ़दी कला की इसी बुनियाद पर सृजित किया गया। प्रत्येक सिक्ख दैनिक अरदास में इन शहादतों को याद करता है। यह एक ऐसा स्रोत हो जो ख़ालसे को हमेशा चट्टान के साथ टकराने, स्वयं को कुर्बान करने और लोक-कल्याण के लिए तत्पर रहने की प्रेरणा देता रहा है व देता रहेगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी कह उठे :

जिस कुल, जाति, देश के बच्चे,
दे सकते हैं यूं बलिदान ।
उसका वर्तमान कुछ भी हो,
भविष्य है महा महान ।