छाइ जाती एकता, अनेकता बिलाइ जाती

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January 07, 2025

– सतविंदर सिंघ फूलपुर

परमात्मा ने सृष्टि बना कर कई तरीके से, अनेक रंगों और किस्मों की रचना की है। असंख्य प्रकार के जीव-जंतु, मानव, वनस्पतियां, फूल- फल आदि पैदा किये हैं। यह विभिन्नता ही प्रकृति की सुन्दरता है। एकसारता एकरूपता (सदृश) में मायूसी है। अनेकता (बहुरूपता, विभिन्नता, नानात्व) धरती का सौंदर्य है। मात्र जल, थल या पहाड़ ही हों तो मन में खिन्नता पैदा होती हैं। किसी गुलज़ार की खूबसूरती उसमें खिले भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे फूल हैं। इसी प्रकार किसी देश समाज की खूबसूरती उसमें बसते विभिन्न धर्मों, कौमों, भाषाओं, सभ्याचारों, रस्मों रिवाज़ों के लोग हैं। यदि गुलज़ार का माली सभी फूलों पर एक ही रंग फेर कर उनकी अनेकता की पहचान को ख़त्म करने की कोशिश करे वह मूर्ख गिना जायेगा और यदि किसी बहुधर्मी, बहुसभ्याचारक देश का शासक देश में विभिन्न सभ्याचारों, रस्मों रिवाजों की भिन्नता को ख़त्म कर उनमें एकरूपता, सादृश्यता लाने की कोशिश करे तो वह भी मूर्ख ही माना जायेगा। खैर! कभी किसी गुलज़ार के माली ने तो ऐसा नहीं किया, परन्तु मानवीय अनेकता वाले संसार रूपी बाग़ में शासक रूपी माली ऐसी मूर्खता का प्रकटीकरण करते रहे हैं।

आज से चार सदियां पूर्व मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने भारत देश में सभी के लिए शरीअत ( इसलामी कानून ) लागू कर मजहबी संकीर्णता का प्रकटीकरण किया था। औरंगजेब ने इस शरअ कानून को और मज़बूत किया। मदीना, बगदाद और भारत के पाँच सौ मुसलमान विद्वानों की निगरानी में ‘फतवा – अल- आलमगीरी’ पुस्तक तैयार करवाई, जिसे ‘फ़तवा – ए – हिंदी’ भी कहा जाता था। इस शरअ कानून के अंतर्गत पूरे देश में इसलाम धर्म के अनुसार एकरूपता लाने के लिए दूसरे धर्मों के धार्मिक स्थान गिराए गए, उनके पूजा-पाठ, धार्मिक रीति-रिवाज, त्योहार, भाषा, भेस आदि पर पाबंदी लगाई गई। मुग़ल-काल में हिंद-वासियों की दूर्दशा के बारे में गुरु साहिबान का फरमान है :

– आदि पुरख कउ अलहु कहीऐ सेखां आई वारी ॥
देवल देवतिआ करु लागा
ऐसी कीरति चाली ॥५ ॥
कूजा बांग निवाज मुसला नील रूप बनवारी ॥
घरि घरि मीआ सभनां जीआं बोली अवर तुमारी ॥ ( पन्ना १९९१)
– अंतरि पूजा पड़हि कतेबा संजमु तुरका भाई ॥ (पन्ना ४७१)
— नील वसत्र पहिरि होवहि परवाणु ॥
मलेछ धानु ले पूजहि पुराणु ॥ ( पन्ना ४७२ )

गुरु साहिबान अनेकता में एकता के समर्थक थे। वे देश-संसार को ऐसे गुलज़ार के रूप में देखना चाहते थे जिसमें भाँति-भाँति के फूल खिलें और अपनी-अपनी ख़ुशबू बिखेरें अर्थात् अलग-अलग धर्मों, कौमों, सभ्याचारों के लोगों को धार्मिक और सांस्कृतिक आजादी हो ।

श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी का एक बहुत ही प्यारा शब्द है, जिसमें वे अलग-अलग धर्मों, क्षेत्रों, सभ्याचारों की विभिन्नता को प्राकृतिक कानून के अनुसार मानते हैं :

पूरबी न पार पावैं हिंगुला हिमालै धिआवैं
गोर गरदेजी गुन गावैं तेरे नाम हैं ॥
जोगी जोग साधै पठन साधना कितेक बाधै
आरब के आरबी अराधे तेरे नाम हैं ।
फरा के फिरंगी मानें कंधारी कुरेसी जानें
पछम के पच्छमी पछार्ने निज काम हैं ।
मरहटा मघेले तेरी मन सों तपसिआ करें
द्रिड़वै तिलंगी पहचानै धरम धाम हैं ॥ २ ॥ २५४ ॥
बंग के बंगाली फिरहंग के फिरंगावाली
दिली के दिलवाली तेरी आगिआ मै चलत हैं ॥
रोह के रुहेले माघ देस के मघेले
बीर बंग सी बुंदेले पाप पुंज को मलत हैं ॥
गोखा गुन गावै चीन मचीन के सीस न्यावै
तिब्बती धिआइ दोख देह को दलत हैं ।
जिनै तोहि धिआइओ तिनै पूरन प्रताप पाइओ
सरब धन धाम फल फूल सों फलत है ॥३ ॥ २५५ ॥