संगीत – क्षेत्र में गुरमति संगीत का स्थान

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January 10, 2025

-डॉ. प्रेम मच्छाल *

सिक्ख धर्म में गुरु साहिबान की बाणी को ‘गुरबाणी’, जहां गुरबाणी – संग्रह श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश हो उसको ‘गुरुद्वारा’ और उनके उद्देश्यों और उपदेशों को ‘गुरमति’ (गुरु की मति ) कहने के कारण भारतीय संगीत के जो सप्त स्वर सिक्ख धर्म की आस्था और विश्वास को उज्जवल ( विकसित ) करने में प्रयोग किए गए, उसी के परिवर्तित स्वरूप को ‘गुरमति संगीत’ का नाम दिया गया। समस्त गुरु साहिबान ने शुद्ध उच्चारण तथा रागों में प्रयुक्त स्वरों की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया है। यही सब बातें गुरु साहिबान की दूरदर्शिता की परिचायक हैं और यह भी सिद्ध करती हैं कि गुरु साहिबान संगीत एवं काव्य में पूर्ण दक्ष थे । जिस प्रकार अन्य धर्मों या संप्रदायों में परमात्मा के गुणगान या स्तुति हेतु संगीत का प्रयोग किया जाता था, उसी प्रकार श्री गुरु नानक देव जी ने भी जब अपने पंथ को प्रारंभ करने का विचार बनाया तो आपने भी भारतीय संगीत की महानता को ध्यान में रखकर अपने नवनिर्मित मार्ग को प्रशस्त करने हेतु पूर्व प्रचलित विधाओं और सांगीतिक तत्वों का सदुपयोग कर ‘कीर्तन’ का मार्ग प्रशस्त किया। आपके द्वारा रागाधारित बाणी का उच्चारण तथा उसे राग के स्वरों से सुसज्जित कर कीर्तन करने का उपदेश भी इस बात का साक्षी है कि इस प्रकार की बाणी का संगीतमयी उच्चारण सुनकर जहां प्रत्येक प्राणी मात्र चिंतन-मनन के द्वारा आत्मा- परमात्मा में मिल जाते हैं वहीं मानव-मन “अब मोहि जीवन पदवी पाई” तथा “राजु न चाहउ क चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे” की महान अनूभूति का अनुभव करना भी प्रारंभ कर देता है।

सिक्ख धर्म में कीर्तन के लिए संगीत का आधारभूत ज्ञान होना अनिवार्य है । अस्तु उसके लिए गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार विधिवत राग- ताल – सम्पन्न कीर्तन – गायन की शैली की शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। कीर्तन – शिक्षा का प्रबंध कुछ गुरुद्वारों तथा सिक्ख संस्थाओं में भी है, जैसे श्री गुरु रामदास संगीत विद्यालय, श्री अमृतसर, सेंट्रल यतीमखाना, श्री अमृतसर शहीद सिक्ख मिशनरी कॉलेज, श्री अमृतसर, गुरमति संगीत विद्यालय, श्री अनंदपुर साहिब; खालसा प्रचारक राग विद्यालय; तरनतारन, मिशनरी कॉलेज, लुधियाना; गुरमति विद्यालय, गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब, नई दिल्ली; गुरमति संगीत विभाग, पंजाबी यूनीवर्सिटी, पटियाला आदि । इसके अलावा कुछ प्राचीन ‘टकसालों’ में भी कीर्तन सिखाने का विशेष प्रबंध है। इन संस्थाओं में सीखने वालों को जीवन- निर्वाह की सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। कीर्तन सीखने के पश्चात् मनुष्य को ‘रागी’ रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। इन विद्यालयों का उद्देश्य तीन तरह के विषय तैयार करना है–प्रचारक, ग्रंथी और रागी । कीर्तन के लिए विशेष रूप से पाठ्यक्रम बनाया जाता है। कीर्तन में शास्त्रीय संगीत की शैलियां भी व्यवहार में लाई जाती हैं, जैसे–धूपद, धमार, ख्याल शैली पर आधारित कीर्तन । कुछ शब्द परंपरागत एक ही शैली में बंधे चले आ रहे हैं, जिनको ‘शब्द रीत’ अथवा ‘टकसाली रीत’ कहा जाता है, उन्हें भी सिखाया जाता है। ये बंदिशें सीना-ब-सीना चली आ रही हैं। वर्तमान में गुरमति संगीत पर सुगम संगीत तथा गज़ल अंग की गायन-शैली का प्रभाव भी देखने को मिलता है जो कि उचित नहीं है।

सिक्ख धर्म के अनुयायियों ने विकलांग, नेत्रहीन तथा पितृ-मातृ-विहीन बच्चों के भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए कई केंद्र ऐसे भी स्थापित किए हैं, जहां पर बच्चों को प्रथम कक्षा से लेकर एम ए तक की सामान्य शिक्षा, संगीत – शिक्षा तथा विभिन्न प्रकार की दस्तकारी का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। सेंट्रल खालसा यतीमखाना, श्री अमृतसर ने अपंग बच्चों के जीवन को संवारने में महान कार्य किए हैं। वहां पर प्रत्येक विद्यार्थी के लिए संगीत – शिक्षा अनिवार्य है। गायन, वादन की पृथक रूप से रुचि अनुसार शिक्षा दी जाती है। इस यतीमखाने से शिक्षा पाकर अनेक प्रसिद्ध रागी समाज की सेवा करते रहे हैं। यह संस्था ७८ वर्षों से इस कार्य में सेवारत है ।

‘शबद रीत’ के बारे में डॉ. पैंतल का मत है कि “प्रारंभ में सभी शबद उस समय की प्रचलित गायन- शैली के अनुसार स्वरबद्ध किए गए होंगे, परंतु समय के परिवर्तन के कारण रुचि तथा गायन की शैली में जो परिवर्तन हुए उसका प्रभाव गुरमति संगीत पर भी देखने को मिला, जो वर्तमान में भी जारी है। परिस्थिति विशेष के अनुसार जब गुरबाणी का गायन किया जाता है, तो उस समय रागों के गायन समय के नियम की पालना न करते हुए परिस्थिति अनुसार शब्दों का चयन कर गायन किया जाता है । उदाहरणार्थ– यदि किसी मनुष्य के परलोक गमन कर जाने पर करवाए गए पाठ के भोग के अवसर पर जब कीर्तन किया जाता है तो उस समय परिस्थिति विशेष के अनुसार ही शब्दों का चयन किया जाता है न कि रागों के समय के नियानुसार। अनेक रागी सज्जन उस समय के रागों के समयानुसार तथा परिस्थितियों को भी ध्यान रखते हुए शब्दों का चयन कर कीर्तन करते हैं और अपनी कुशलता को प्रदर्शित करते हैं जो कि हर एक रागी के वश की बात नहीं और न ही सभी से यह उपेक्षा की जा सकती है। कुछ रागी – जन श्रेताओं की पृष्ठभूमि तथा रुचि को ध्यान में रखते हुए भी तथा अपनी क्षमताओं में रहकर भी कीर्तन करते हैं। “३

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ऐसी भी बाणियां हैं जो लंबी होने के कारण अलग-अलग रागों में तथा अलग- अलग तालों में गाए जाने की सुविधा प्रदान करती हैं। यह शैली उसी प्रकार की है जिसे हम शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में रागमाल या रागमलिका के नाम से जानते हैं। कीर्तन – गायन में इन्हें ‘गुलदस्ता’ और ‘पड़ताल’ कहते हैं। कीर्तन मंडली को ‘रागी जत्था’ कहते हैं । यह प्रायः तीन अथवा इससे अधिक व्यक्तियों का हो सकता है । प्रायः दो व्यक्ति शब्द गायन करते हैं, एक तबला बजाता है और अन्य व्यक्ति अन्य वाद्यों का वादन करते हैं। गुरुद्वारों में प्रतिदिन के कीर्तन के अतिरिक्त शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी तथा धर्म-प्रचारार्थ स्थापित अन्य संस्थाएं समय-समय पर कीर्तन दरबारों का आयोजन करती हैं। इसके अतिरिक्त इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का योगदान भी सराहनीय है जो कि विभिन्न टी वी चैनल्ज के माध्यम से तथा सी. डी. और कैसिट के माध्यम से गुरमति संगीत के प्रचार-प्रसार में अपनी अहम भूमिका निभा रहा है। कंप्यूटर के इस आधुनिक युग में इंटरनेट के माध्यम से विदेशों के विभिन्न गुरुद्वारों में यह सुविधा उपलब्ध है कि वहां से गुरबाणी, कीर्तन, कथा तथा पाठ का सीधा प्रसारण दुनिया के किसी भी कोने में सुना जा सकता है जो कि श्रोताओं के लिए एक वरदान सिद्ध हो रहा है। इसके अतिरिक्त गुरु साहिबान के प्रकाश-दिवस, शहीदी दिवस तथा अन्य ऐतिहासिक त्योहारों पर उच्च दर्जे के कीर्तन दरबार आयोजित किए जाते हैं, जिसमें रागी जत्थों को अपनी प्रतिभा दिखाने का सुअवसर मिलता है। कीर्तन – प्रतियोगिताएं भी करवाई जाती हैं जिनमें प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्थान पाने वालों को विशेष रूप से सिरोपा आदि प्रदान कर सम्मानित किया जाता है । ‘रैण सवाइयों‘ का आयोजन भी गुरुद्वारों में किया जाता है जिसमें रात्रि भर के लिए विभिन्न रागी जत्थे अपने कीर्तन द्वारा साध संगत को निहाल करते हैं।

कीर्तन दरबार के अतिरिक्त गुरमति संगीत में कीर्तन करने के लिए युवा वर्ग को तथा बच्चों को प्रेरित करने के लिए खालसा कॉलजों, खालसा स्कूलों एवं सिक्ख मिशनरी स्कूलों में भी अन्य विषयों के साथ-साथ संगीत की शिक्षा दी जाती है जिससे बच्चों को रागों पर आधारित कीर्तन करने में सहजता अनुभव होती है। इसके अतिरिक्त कई गुरुद्वारों में भी गुरमति विद्यालय खोले गए हैं। कुछ गुरुद्वारों में नगर की धार्मिक सोसायटियों द्वारा समय-समय पर विशेष कैंपों का आयोजन किया जाता है, जिसमें गुरमति संगीत, गुरबाणी के पाठ का उच्चारण तथा वीर रस से ओतप्रोत ‘गतका’ (युद्ध – कला ) की भी शिक्षा दी जाती है।

भारत में लोक संगीत, सुगम संगीत, शास्त्रीय संगीत, गुरमति संगीत और धार्मिक संगीत की परंपराएं अपने-अपने दायरे में एक ही समय में प्रचार में आईं और विकसत हुईं। धार्मिक संगीत शास्त्रीय संगीत की तरह अपने मूल स्वरूप में न बंधकर समय के परिवर्तन तथा विद्वानों के प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के कारण एवं बदलती लोक- रुचि के कारण परिवर्तित होता रहा । यह अपने कुदरती तथा परिवर्तित रूप दोनों ही प्रकार से जनसाधारण के प्रचार में रहा जब कि ‘गुरमति संगीत’ में केवल प्रभु महिमा को ही शामिल किया गया है :

विसरु नाही दातार आपणा नामु देहु ॥
गुण गावा दिनु राति नानक चाउ एहु ॥

( पन्ना ७६२ ) गुरमति संगीत की शास्त्रीय संगीत से भिन्नता बिलकुल स्पष्ट है । शब्द – कीर्तन में प्रयोग की जाने वाली तालें गूढ़ शास्त्रीय ढंग की होती हैं, परंतु शास्त्रीय संगीत में गायकी प्रधान होती है जिसमें आलाप मुख्य होता है। कई बार आलाप की ही प्रधानता होती है और बोल सुनाई ही नहीं देते। गुरमति संगीत राग या आ प्रधान संगीत नहीं है, इसमें राग और ताल को शब्द के साथ एक सुर तो रखा ही जाता है परंतु इसकी गूंज में शबद को अस्पष्ट व गुम नहीं होने दिया जाता। सुरति में कीर्तन द्वारा एकाग्रता को प्राप्त कर शबद- ध्यान से एकसुर होना होता है। गुरमति संगीत मनोरंजन का साधन नहीं, अपितु यह आत्मा के आध्यात्मिक विकास का माध्यम है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब ने गुरमति संगीत को नवजीवन और नवस्फूर्ति प्रदान की है। गुरमति संगीत रागों पर आधारित होने के कारण भारतीय समाज के चेतन वर्ग में अपना विशिष्ट स्थान रखता है | इस तरह गुरमति संगीत की परंपरा भारतीय संगीत में एक जीती-जागती परंपरा के रूप में विकसित हुई । सिक्ख गुरु साहिबान ने संगीत के आध्यात्मिक मूल्य को समझाते हुए इसे कीर्तन में संजोया और गुरुद्वारों में राग व तालबद्ध कीर्तन की प्रथा को अनिवार्य करके गुरमति संगीत का अस्तित्व बनाए रखा। इस प्रकार गुरमति संगीत राग- गायन, शिक्षा एवं अभ्यास का विषय बना ।

गुरु के द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करना शिष्यों का परम कर्तव्य है, अतएव कीर्तन के साथ संगीत को भी मान्यता प्रदान की गई। श्री गुरु नानक देव जी के शिष्य होने के कारण ही उनके अनुयायियों (सिक्खों) में रागबद्ध कीर्तन का प्रचार हुआ । इस तरह धर्म और कला का सुमेल श्री गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में हुआ और दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी द्वारा श्री गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु- पदवी देकर मानव मात्र को एक अद्वितीय सौगात प्रदान की गई।

संदर्भ-सूची
१. भेंटवार्ता डॉ. गुरनाम सिंघ, अध्यक्ष, गुरमति संगीत विभाग, पंजाबी यूनीवर्सिटी, पटियाला, दिनांक २१-७-२००६
२. ‘खालसा एडवोकेट’ श्री अमृतसर, जनवरी-फरवरी, १९८२, पृष्ठ २
੩. डॉ. ए.एस. पेंटल, संगीत की प्रकृति और स्थान, पृष्ठ। 152