
-डॉ. कशमीर सिंघ ‘नूर’*
विश्व-इतिहास में अलग, उच्च कोटि का और अति महत्त्वपूर्ण व गौरवपूर्ण स्थान रखने वाले सिक्ख- इतिहास का प्रत्येक अध्याय शहीदों के खून की आभा से चमकता – दमकता दिखाई देता है। सिक्ख गुरुओं, शूरवीरों, योद्धाओं, सिंघों, सिंघनियों, भुजंगियों की शहादत की लौ से, प्रकाश से संसार में से तमाम बुराइयों के साये व अंधेरे मिटे हैं, खत्म हुए हैं । हमारे शहीदों ने रूहानियत की खुशबू फैलाकर हम सभी प्राणियों की रूहों को महकाया है।
शहादत के रौशन-चिराग, दीप, शस्त्र और शास्त्रों के धनी, शूरवीर योद्धा, शहादत की बुलंद मिसाल कायम करने वाले तथा ‘शहीद मिसल’ के जत्थेदार बाबा दीप सिंघ जी शहीद का जन्म माघ १४, सं. १७३९ को पिता श्री भगता जी तथा माता श्री जीऊणी जी के गृह श्री अमृतसर के गांव पहूविंड में हुआ । बचपन से ही बाबा जी सुडौल, सुंदर, ऊंचे कद के एवं स्वस्थ थे। बड़े होने पर वे श्री अनंदपुर साहिब चले गए। वहां दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी की सेवा में रहने लगे। उन्हें दशम पिता जी के हाथों अमृत-पान करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी मनोवृत्ति आध्यात्मिक थी। उन्हें गुरु जी ने गुरबाणी-अध्ययन की शिक्षा दी और साथ में शस्त्र संचालन में भी प्रवीण किया। गुरु जी की कृपा से बाबा जी युद्ध-कला में निपुण होकर वीर योद्धा बने । उन्होंने श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी द्वारा लड़े गए युद्धों में अपनी युद्ध-कला का बाखूबी प्रदर्शन किया। इससे बड़े-बड़े विरोधी योद्धा उनसे भय खाने लगे। उनका नाम सुनकर ही विरोधियों के हृदय कांपने लगते थे।
बाबा दीप सिंघ जी उच्च कोटि के विद्वान व गुणवान व्यक्ति थे । अपने रहबर, अपने गुरु जी का आदेश पाकर उन्होंने तलवंडी साबो श्री दमदमा साहिब में सिक्खी का प्रचार एवं प्रसार करना शुरू किया। तलवंडी साबो में रहते हुए उन्होंने भाई मनी सिंघ जी के साथ मिलकर श्री गुरु ग्रंथ साहिब की कई प्रतियां तैयार कीं ।
जब श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी दक्षिण की ओर गए तब गुरु जी बाबा दीप सिंघ जी को श्री दमदमा साहिब की सेवा का कार्य सौंप गए। सन् १७६० ई तक बाबा जी यहीं पर रहे और सिक्खी का प्रचा करते रहे।
अहमद शाह अब्दाली ने भारतवर्ष पर अनेक बार आक्रमण किया। हर बार उसका रास्ता रोकने वाले, उसकी सेना का व्यापक नुकसान करने वाले तथा उसके नियुक्त शासकों के अधिकारों को चुनौती देने वाले सिक्खों से वह बहुत दुखी था। वह सिक्खों को सख़्त सबक सिखाना चाहता था। उसने क्रूर एवं ज़ालिम शासक जहान ख़ान को लाहौर का गवर्नर नियुक्त किया तथा उसे ताकीद की कि वह सिक्खों के अस्तित्व को मिटाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दे। ज़ालिम जहान ख़ान ने अपने सैनिक जत्थे गांव- गांव भेज सिक्खों को ढूंढ-ढूंढकर कत्ल करवाना शुरू कर दिया। रणनीति के तहत सिक्ख गांव छोड़कर दूर जंगलों में चले गए। इसी दौरान जहान खान को किसी ने उकसाया कि जब तक श्री अमृतसर में सिक्खों का पवित्र अमृत सरोवर और श्री हरिमंदर साहिब कायम है, तब तक सिक्ख खत्म नहीं हो सकते । यहां से उन्हें नया जीवन, नव उत्साह एवं नया जोश मिलता है। वे फिर-फिर अपने विरोधियों के सिरों पर मृत्यु बन मंडराने लगते हैं ।
जहान ख़ान ने श्री अमृतसर को अपनी गतिविधियों का मुख्य केंद्र बना लिया और सिक्खों के जज़बात कुचलने के लिए श्री हरिमंदर साहिब की इमारत को ढहा दिया तथा पवित्र सरोवर को पाट दिया। यह ऐतिहासिक घटना सन् १७६० ई की है। अब्दाली एवं जहान ख़ान को क्या पता था कि इस घटना के बाद सिक्ख विश्व–इतिहास के पन्नों में अपनी लामिसाल शहादतों का एक और सुनहरी पन्ना जोड़ने वाले हैं; मानव – इतिहास को नया मोड़ देने वाले हैं।
श्री हरिमंदर साहिब के हुए अपमान का समाचार जब बाबा दीप सिंघ जी को श्री दमदमा साहिब में मिला, तब उनके हृदय को गहरा सदमा पहुंचा । मस्तिष्क में क्रोध, आक्रोश की ज्वाला धधक उठी। स्वाभिमान, गौरव और सिक्ख पंथ की प्रतिष्ठता का सवाल था । सच्चाई, निष्ठा, आस्था और धर्म को अहंकारियों, अधर्मियों, ज़ालिमों ने ललकारा था । बाबा जी ने उसी समय श्री हरिमंदर साहिब की पवित्रता को आंच पहुंचाने वालों के साथ दो हाथ करने का निर्णय किया और आसपास के क्षेत्रों में सिक्खों को सूचना भेज दी। उनके व्यक्तित्व का बहुत ज्यादा प्रभाव था । उनकी आगवानी में तुरंत सिंघ इकट्ठा होना शुरू हो गए। श्री दमदमा साहिब (मालवा क्षेत्र ) से कूच करने के बाद खालसा दल के जांबाज़ों की संख्या पांच हज़ार से अधिक हो गई।
माझा क्षेत्र में दाख़िल होने के बाद तथा श्री अमृतसर के निकट पहुंचकर वाहिगुरु के समक्ष अरदास की गई। बाबा दीप सिंघ जी ने अपने खंडे ( एक शस्त्र) से लकीर खींची और कहा, “जो शहादत देने के लिए तैयार हैं, वे इस लकीर को पार करें।” सभी सिंघ लकीर पार कर गए तथा जयकारा गुंजाते हुए श्री अमृतसर की ओर बढ़ने लगे ।
बाबा दीप सिंघ जी के नेतृत्व में आ रही सिक्खों की सेना की सूचना पाकर श्री अमृतसर की परिधि के पांच मील बाहर गांव गोहलवाड़ में जहान ख़ान २० हज़ार सैनिक लेकर पहुंच चुका था। वहां पर घमासान युद्ध हुआ । जोश में सिंघों ने ऐसा आक्रमण किया कि जहान ख़ान की सेना के हौसले पस्त होने लगे। उसकी सेना पीछे हटने लगी। सिंघ शस्त्र – कला के जौहर दिखाते हुए शहर के समीप आ गए। इस युद्ध में बाबा दीप सिंघ जी के सहायक भाई दिआल सिंघ ने जहान खान का सिर काटकर उसे मृत्यु के घाट उतार दिया। इसके बाद शहर के द्वार के निकट श्री रामसर साहिब के पास पुनः भयंकर युद्ध हुआ। यहां पठानी सेना के दूसरे सेनापति जमाल शाह ने बाबा दीप सिंघ जी को चुनौती दी कि वे उनसे अकेले मुकाबला करें। अस्सी वर्ष की वृद्धवास्था में होने के बावजूद बाबा दीप सिंघ जी ने नवयुवक जमाल शाह की चुनौती को स्वीकार किया । इस समय तक शहर की गलियां खून तथा लाशों से भर चुकी थीं। बाबा दीप सिंघ जी के साथी – प्रमुख — भाई धरम सिंघ, भाई खेम सिंघ, भाई मान सिंघ और भाई राम सिंघ अनेक सिंघों सहित शहीद हो गए ।
जमाल शाह को बाबा जी ने मार – मुकाया । बाबा दीप सिंघ जी गंभीर रूप से घायल हो गए। फिर भी वे लड़ते-लड़ते आगे बढ़ते रहे। अपनी भक्ति की शक्ति के बल पर बाबा दीप सिंघ जी दुनिया की अद्भुत एवं निराली लड़ाई लड़ने का अद्वितीय करिश्मा दिखाते हुए, वैरियों को खदेड़ते हुए श्री हरिमंदर साहिब की परिक्रमा तक जा पहुंचे। यहां तक पहुंचते-पहुंचते अन्य पठान सेनापतियों में से साबर अली ख़ान, रुस्तम अली ख़ान तथा ज़बरदस्त ख़ान भी मारे गए । बाबा जी का साथ उनके स्वाभिमानी साथी भाई हीरा सिंघ एवं भाई बलवंत सिंघ दे रहे थे ।
जब इतने अधिक मुगल सेनापति मारे गए तो पठानी, अफगानी व मुगल फौज के हौसले पूरी तरह से टूट गए। वे सभी श्री हरिमंदर साहिब का घेरा छोड़ भाग खड़े हुए। बाबा दीप सिंघ जी शूरवीरों की तरह ‘शीश हाथ पर रख कर लड़े। बाबा दीप सिंघ जी अद्वितीय साहस का पराक्रम दिखाकर श्री हरिमंदर साहिब की परिक्रमा में शहादत का जाम पीकर परम पिता प्रभु के चरणों में जा विराजमान हुए। शेष सिंघों ने विरोधी सेनाओं का अटारी तक पीछा किया और श्री हरिमंदर साहिब के अपमान के बदले में उन्हें सख़्त सबक सिखाया । बचे-खुचे मुगल अपने शस्त्र – भंडार छोड़ नौ दो ग्यारह हो गए ।
बाबा दीप सिंघ जी की आयु का वृद्ध सेनापति, जांबाज़ योद्धा, अदम्य साहस वाला शूरवीर, बहादुर विश्व इतिहास में अन्य कोई नहीं मिलता। उनकी लामिसाल शहादत की उदाहरण कहीं नहीं मिलती ।
बाबा दीप सिंघ जी की याद में उनकी यादगार श्री हरिमंदर साहिब की परिक्रमा में स्थापित है। जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया वहां गुरुद्वारा शहीदगंज साहिब चाटीविंड गेट के पास सुशोभित है।