– डॉ. कशमीर सिंघ ‘नूर’
सरदार शाम सिंघ अटारी का जन्म कब हुआ तथा इनका बचपन किस रूप में गुज़रा, इस बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं चलता। डॉ. चोपड़ा ने अपनी पुस्तक ‘Punjab As A Sovereign State’ में लिखा है कि “स. शाम सिंघ पहली बार सन् १८१८ ई. में महाराजा रणजीत सिंघ की सेवा में आए थे।” डॉ. गंडा सिंघ ने लिखा है कि “मुलतान के अंतिम युद्ध से कुछ समय पूर्व स. निहाल सिंघ अटारी ने अपने सुपुत्र स. शाम सिंघ अटारी वाला को महाराजा की फ़ौज में भर्ती करवा दिया था । ”
खालसा दरबार ने मुलतान के शासक मुज़फ्फर खान पर सन् १८९०, १८१६ एवं १८१७ ई में तीन बार हमला किया। वह हर बार माफी मांग लेता और भविष्य में वफादार रहने का विश्वास दिलाता। इसके बाद मुकर जाता और बागी हो जाता । अंततः फैसला किया गया कि मुलतान को खालसा राज्य में शामिल कर ही लिया जाए। पहले मिस्र दीवान चंद के नेतृत्व में सेना भेजी गई किंतु सफलता नहीं मिली । पुनः कुंवर खड़क सिंघ के नेतृत्व में और सेना भेजी गई तथा साथ में स. शाम सिंघ अटारी का जत्था शामिल था। मुज़फ्फर ख़ान की सेना के साथ गुत्थम- गुत्था युद्ध हुआ और वह अपने पांच पुत्रों सहित मारा गया। स. शाम सिंघ भी गंभीर रूप से ज़ख्मी हो गए। इनकी मुलतान पर शानदार प्राप्त विजय के उपलक्ष्य में महाराजा रणजीत सिंघ ने इन्हें रंगपुर क्षेत्र का सरदार (प्रमुख) नियुक्त कर दिया तथा इनकी निडरता व वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की। मुलतान का यह निर्णायक युद्ध सन् १८१८ ई में लड़ा गया था।
सन् १८१९ ई में कश्मीर को सिक्ख राज्य में मिलाने के लिए सिंघों को कार्यवाई करनी पड़ी, क्योंकि वहां की प्रजा शासक वर्ग से अति दुखी थी । महाराजा रणजीत सिंघ ने योजनाबद्ध ढंग से युद्ध करने हेतु अपनी सेना को दो भागों में बांटा। एक भाग मिस्र दीवान चंद व स. शाम सिंघ अटारी के नेतृत्व में भेजा गया। इन्होंने फौरन ही राजौरी व पुंछ पर विजय प्राप्त कर ली और श्रीनगर की ओर बढ़ गए।
श्रीनगर का शासक जब्बार खान अपनी सेना ले मुकाबला करने को आ पहुंचा। सिंघों से मुकाबला करना आसान नहीं था । स. शाम सिंघ अटारी ने इस युद्ध में भी अपने बुलंद हौसले एवं बहादुरी से दुश्मनों के हौसले पस्त कर दिए। जब्बार खान बुरी तरह से घायल हो गया तथा रण- क्षेत्र छोड़ पेशावर की ओर भाग गया। कश्मीर पर सिक्ख सरकार का कब्ज़ा हो गया और उसे सिक्ख राज्य में शामिल कर लिया गया। इसके बाद अहमद शाह बरेलवी को भी मैदाने जंग में स. शाम सिंघ अटारी ने चारों खाने चित्त कर दिया और वह भी भाग गया। सन् १८३४ में पेशावर पर सिंघों द्वारा कब्ज़ा किए जाने के मौके पर भी स. शाम सिंघ अटारी ने अपने साहस का परिचय दिया ।
सन् १८३५ ई में महाराजा रणजीत सिंघ ने अपने पौत्र कुंवर नौनिहाल सिंघ की सगाई स. शाम सिंघ अटारी की सुपुत्री बीबी नानकी के साथ कर दी । १८३७ ई. में कुंवर जी व बीबी नानकी का विवाह कर दिया गया ।
इसी वर्ष यानि १८३७ ई में ही दोस्त मुहम्मद ख़ान ने जमरौद के किले पर आक्रमण कर दिया। स. हरी सिंघ नलूआ पेशावर में गंभीर रूप से बीमार पड़े थे। आक्रमण का समाचार मिलते ही वे तुरंत जमरौद में पहुंच गए तथा दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। जब महाराजा रणजीत सिंघ को जमरौद पर हमले की सूचना मिली तो उन्होंने कुंवर नौनिहाल सिंघ एवं स. शाम सिंघ अटारी के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। इस सेना के पहुंचने से पहले ही लड़ाई खत्म हो चुकी थी और स. हरी सिंघ नलूआ शहीद हो चुके थे। मुहम्मद ख़ान को उसके किए की सज़ा देकर तथा जमरौद का पूर्ण राज्य – प्रबंध सुनिश्चित कर स. शाम सिंघ वापिस लौट आए ।
जून, १८३९ ई में महाराजा रणजीत सिंघ का देहांत हो गया। उनके देहांत के बाद खालसा दरबार में साज़िशें काफी बढ़ गईं। एक साल बाद ही महाराजा खड़क सिंघ को मार दिया गया । उसी दिन डोगरों ने कुंवर नौनिहाल सिंघ को भी चाल चलकर मार दिया। स. शाम सिंघ अटारी इन सभी गतिविधियों से वाकिफ़ एवं मायूस थे। जब १८४५ ई. में अंग्रेजों के साथ सिक्खों की लड़ाई शुरू हुई। तब तेजा सिंघ व लाल सिंघ की गद्दारी से मुद्दकी व भाई फेरू की लड़ाईयां सिक्ख फौज जीत कर भी हार गई थी । महारानी जिंद कौन ने स. शाम सिंघ अटारी को एक पत्र लिख अटारी में भेजा। इसमें मैदाने जंग में पहुंचने का संदेश था। पत्र पढ़ते ही वे जोश में आ गए और लड़ाई के मोर्चे पर आ डटे। घर से चलते वक्त वाहिगुरु के समक्ष अरदास की और प्रण किया कि यदि अंग्रेजों को पराजित न कर सका तो जिंदा वापिस नहीं लौटूंगा। अंतिम सांस तक लड़ता व जूझता रहूंगा ।
स. शाम सिंघ उस समय सिक्ख फौज़ में शामिल हुए, जब फौज सभराओं के निकट पहुंच चुकी थी। सिक्ख फौज चाहती थी कि फिरंगियों पर तुरंत धावा बोला जाए। सिक्ख फौज का सरदार सेनापति मिन तेजा सिंघ कहता था कि धावा नहीं बोलना क्योंकि फिरंगियों का असला – बारूद खत्म हो चुका था जिससे उनकी पराजय निश्चित थी । मिस्र लाल सिंघ ने गद्दारी करते हुए जंग का नक्शा फिरंगियों को भेज दिया। दुश्मनों ने १० फरवरी, १८४६ ई को सुबह ही हमला कर दिया। सिक्ख भी मुकाबला करने को तैयार हो गए। स. शाम सिंघ अटारी ने इस मौके पर जोश भरे शब्दों में सिक्खों से कहा, “यदि दशमेश पिता के सच्चे सपूत हो तो पुरजा- पुरजा कट मरना परंतु पीठ मत दिखाना।”
पहले तोपें चलीं, फिर घुड़सवार रेजिमेंटस में मुकाबला हुआ । स. अटारी द्वारा जोश दिलाये जाने तथा योग्य आगवानी किए जाने के फलस्वरूप सिक्खों ने फिरंगियों का भारी नुकसान किया और उन्हें पीछे धकेल दिया ।
कुछ गद्दारों की गद्दारी के कारण सिक्ख वीरतापूर्वक लड़ने के बावजूद पराजित हो गए। तेजा सिंघ व लाल सिंघ ने गद्दारी की और दरिया सतलुज का सेतु तोड़कर पीछे से असला-बारूद भेजना बंद कर दिया। जब असला-बारूद खत्म हो गया, तब स. अटारी ने कृपाण हाथ में थाम ली । वे शेर की भांति अंग्रेजों पर टूट पड़े। उन्होंने कृपाण से काफी मारकाट की, किंतु दुश्मनों के आग्नेय अस्त्र भारी पड़े और उनका शरीर गोलियों से छलनी हो गया । दशमेश पिता के सच्चे सपूत, निडर, बहादुर योद्धा स. शाम सिंघ अटारी जूझते हुए और अपना नाम इतिहास में सुनहरी अक्षरों में लिखवाते हुए शहीद हो गए । दुश्मन भी उनकी शूरवीरता, अदम्य साहस तथा हौसले का लोहा माने बिना न रह सके। इस महान् शहीद के शव को सम्मानपूर्वक अटारी ले जाया गया और १२ फरवरी, १८४६ ई को उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। स. शाम सिंघ अटारी की अद्वितीय शहादत को हम कभी भूल नहीं सकते। हम उनके जज़्बे, समर्पण, कुर्बानी, शूरवीरता, देश-भक्ति, धर्म-परायणता को कोटि-कोटि प्रणाम करते हैं। भारत व पंजाब के वासी अपने इस महान् सेनापति को सदैव याद रखेंगे।