– डॉ. सत्येंद्रपाल सिंघ*
होली का त्योहार पुरातन काल से ही भारत में उत्सव की भांति मनाये जाने की परंपरा है। पौराणिक कथा है कि पिता हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र भक्त प्रहलाद को मार देने की आज्ञा दी थी जिसके लिए भक्त प्रहलाद की बुआ उसे अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठी थी । परमात्मा ने अपने प्रिय भक्त प्रहलाद की रक्षा की और वह बच गया जबकि उसकी बुआ अग्नि में जलकर भस्म हो गई । दुष्टता के विनाश और ईश्वर भक्ति की महिमा के उल्लास के रूप में इस त्योहार को मनाया जाता है। सिक्ख गुरु साहिबान ने इसे भिन्न दृष्टिकोण से देखा क्योंकि उनका संदेश प्रभु पर पूर्ण आस्था एवं समर्पण का था और कर्मशील रहकर सच को समर्पित रूप से अपने जीवन में धारण करने का था । होली का त्योहार कीचड़ उछालकर, एक दूसरे पर रंग डालकर, भांग आदि नशों का सेवन करके मनाया जाता था। होली के त्योहार को मनाने का ढंग बिगाड़कर लोग खुराफात पर उतर आए और उत्पात मचाने को ही त्योहार मनाने की आनंद- प्राप्ति कहा जाने लगा ।
गुरमति ने इस त्योहार को मनाकर प्राप्त होने वाले आनंद की परिभाषा और इस आनंद को प्राप्त करने की विधि बदल दी । यह क्रांतिकारी बदलाव गुरमति जीवन को देखने की विशिष्टता के अनुरूप ही विशिष्ट था, जिसे पहले कभी सोचा भी नहीं गया था। गुरमति का आनंद सांसारिक पदार्थों एवं भोग-विलास से उपजने वाला आनंद नहीं था, जिसे पांच तत्वों से मिलकर बना नाशवान तन महसूस करता और भोगता है। गुरमति का आनंद नाशवान तन के भीतर स्थित परमात्मा का अंश और सद्जीवित आत्मा का आनंद था, जिसे सांसारिकता से नहीं आध्यात्मिकता से सरोकार होता है। गुरमति के अनुसार सारे ही दिन परमात्मा के बनाये हुए हैं और एक जैसे हैं। गुरु साहिबान ने आम लोगों को समझाने के लिए होली जैसे त्योहारों को प्रतीक रूप में लिया। यह परमात्मा के संदेश को नितांत सरल और प्रभावी ढंग से लोगों तक पहुंचाने की विलक्षण शैली थी जिसे श्री गुरु नानक साहिब ने अपनी उदासियों के दौरान प्रयुक्त किया था । यह आगे चलकर सिक्ख धर्म-दर्शन की विशिष्टता बनी।
बसंत ऋतु आते ही होली की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं। एक गुरसिक्ख कैसे इससे अपने को जोड़े, इसका सुंदर वर्णन श्री गुरु नानक साहिब ने निम्न वचन में किया है :
माहा माह मुमारखी चड़िआ सदा बसंतु ॥
परफड्डु चित समालि सोइ सदा सदा गोबिंदु ॥१॥
भोलिआ हउमै सुरति विसारि ॥
हउमै मारि बीचारि मन गुण विचि गुणु लै सारि ॥
इन पावन पंक्तियों के शाब्दिक अर्थ के अनुसार बसंत का वह खास माह आ गया है जो आनंद प्रदान करने वाला है । प्रसन्न होकर इस आनंद को सहेजने के लिए मन में परमात्मा का ध्यान दृढ़ करना होगा । मनुष्य की अबोध स्थ झिंझोड़ते हुए गुरु साहिब कहते हैं कि वह माया – मोह और विकारों से ऊपर उठकर परमात्मा की महानता का स्मरण करे और उस महानता को अपने आचार और विचार में धारण करे। यह सदियों से होता चला आया था कि यह वातावरण एवं मन को प्रफुल्लता प्रदान करने वाला माह माना जाता था और इसका स्वागत एक-दूसरे को बधाई देकर, होली खेलकर किया जाता था। गुरु साहिब ने कहा कि ऐसी प्रफुल्लता सदैव प्राप्त की जा सकती है यदि मन प्रभु के सिमरन में लीन हो और परमात्मा का यशगान कर रहा हो । आनंद के लिए रंगों, मिठाइयों, नशों आदि की तथा किसी प्रकार के खास आयोजनों की आवश्यकता नहीं है। ये सारी चीजें नाशवान शरीर के आनंद के लिए हैं। इन पदार्थों और आयोजनों से प्राप्त आनंद तभी तक रहता है जब तक ये पदार्थ और आयोजन जारी रहते हैं। बसंत माह भी चंद दिनों का मेहमान होता है, आता है और चला जाता है । गुरु साहिब तो मनुष्य को उस आनंद की ओर ले जाने के लिए तैयार कर रहे हैं जो चिरस्थायी, सदैव साथ रहने वाला और तृप्ति प्रदान करने वाला होता है । एक ऐसा आनंद, जिसके लिए किसी भी पदार्थ अथवा आयोजन, विधि की आवश्यकता नहीं और न ही किसी विशेष समय की अपेक्षा होती है। इसके लिए विशेष आत्मिक अवस्था की आवश्यकता होती है, जो परमात्मा से ही प्राप्त होती है :
अखी कुदरत कंनी बाणी मुखि आखणु सचु नामु ॥
पति का धनु पूरा होआ लागा सहज धिआनु ॥३॥
मारुती आवणा वेखहु करम कमाइ ॥
नानक हरे न सूकही जि गुरमुखि रहे समाइ ॥४॥
(पन्ना १९६८)
आत्मिक आनंद के लिए मोह-माया और विकारों का त्याग करने के बाद मनुष्य परमात्मा में इस तरह लीन हो जाए कि उसकी दृष्टि चारों ओर परमात्मा की महानता को ही देखे। ऐसा तब संभव है जब उसे परमात्मा की सर्वव्यापकता में विश्वास हो जाए और उस सर्वव्यापकता के दर्शन की लालसा जग उठे। यह विश्वास उसे गुरबाणी दिलाती है :
देस और ना भेस जाकर रूप रेख ना राग ॥
जत्रतत्र दिसा विसा हुइ फैलिउ अनुराग ॥
(जापु साहिब )
परमात्मा के कोई विशेष चिन्ह नहीं हैं। वह हर स्थान पर, हर दिशा में व्याप्त है और अनगिनत माध्यमों से अपने आप को व्यक्त कर रहा है। क्योंकि वह सब में व्याप्त है, अत: सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करना ही परमात्मा को देखना है। जब चारों दिशाओं में परमात्मा रचा-बसा हो तो उसके गुण और उसका संदेश ही सुनाई देता है। सच और शुभ कानों में ध्वनित होता है और यही सच मुख से भी प्रस्फुटित होता है तथा मनुष्य शुभ कर्मों की ओर अग्रसर होता हुआ, सदैव आनंद की अवस्था में आ जाता है । उसके लिए हर मौसम बसंत का मौसम हो जाता है। उसका आनंद कभी कम नहीं होता बल्कि बढ़ता ही जाता है । परमात्मा के अतिरिक्त उसे और कुछ दिखाई ही नहीं देता:
सगल भवन तेरी माइआ मोह ॥
मै अवरु न दीसै सरब तोह ॥
( पन्ना १९६९)
जब परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ न दिखाई दे, सर्वत्र परमेश्वर ही दिखे, तभी हर काल बसंत काल बन जाता है। गुरमति की राह बसंत की राह है। इस राह पर चलते हुए जीवन आनंद से भरपूर हो जाता है । गुरु साहिबान ने अवधारणा सामने रखी कि आनंद की प्राप्ति भौतिक पदार्थों और कामनाओं की पूर्ति नहीं होती है। यह तो पतन का मार्ग है और परमात्मा से दूर ले जाने वाला मार्ग है । आनंद का स्रोत तो परमात्मा है । केवल आनंद की इच्छा लेकर ही परमात्मा के पास नहीं जाना है। परमात्मा के मार्ग पर जाने का अर्थ केवल आनंद की प्राप्ति नहीं है, यह तो अपने घर जाने जैसा है:
जिनि तुम भेजे तिनहि बुलाए सुख सहज सेती घरि आउ ॥ (पन्ना ६७८)
मनुष्य का जन्म उस आत्मा का परमात्मा से मिलन के लिए हुआ है, जिससे बिछुड़कर वह अब तक भटकती रही है। विस्माद इसलिए होता है कि जिस परमात्मा से मनुष्य बिछुड़ा हुआ था वह उसे हर जगह और अति निकट दिखाई देने लगता है:
ह ह पेखउ तह हजूर दूर कहु नजाई ॥
रवि रहिआ सरबत्र मै मन सदा धिआई ॥१॥
ईत ऊत नही बछुड़े सो संगी गनीऐ ॥
बिनसि जाइ जो निमख महि सो अलप सुखु भनीऐ ॥ रहाउ ||
प्रतिपालै अपिआउ देइ कछु ऊन न होई ॥
सासि सासि संमालता मेरा प्रभु सोई ॥२॥
अछल अछेद अपार प्रभ ऊचा जा का रूपु ॥
जपि जपि करहि अनंदु जन अचरज आनूपु ॥३॥
(पन्न ६७७)
उपरोक्त वचन श्री गुरु अरजन देव जी का है, जिसमें उन्होंने बड़े ही सुगम ढंग से आनंद के उत्सर्ग की प्रक्रिया का वर्णन किया है। गुरु साहिब ने कहा कि जो सुख मनुष्य नाशवान पदार्थों से प्राप्त करना चाहता है वह सुख अल्पकालीन होता है और अंतत: दुख में ही परिवर्तित हो जाता है । स्थिर और अविनाशी परमात्मा है जो घट-घट में व्याप्त और प्रकट है । परमात्मा ही अंत तक साथ देने वाला और प्रतिपालना करने वाला है । वही पालन-पोषण करने में समर्थ है। वह समर्थ -दाता है, जिसके भंडार में कोई कमी नहीं है। वह पल-पल मनुष्य को आधार देकर उसकी रक्षा करने वाला है। उसकी महिमा अपार है । कोई भी उसके गुणों और शक्ति का भेद नहीं जान सका है। उसकी शरण और संरक्षण प्राप्त हो जाने पर सारी चिंताएं मिट जाती हैं, सारी आशंकाएं और दुविधाएं दूर हो जाती हैं। जब कोई चिंता न हो और जीवन संरक्षित हो जाए तो मन परमात्मा के प्रति आभार से भर उठता है तथा दया और करुणा से अचंभित हो जाता है। इससे असीम आनंद सहज ही उत्पन्न हो जाता है।:
जिन कै मनि साचा बिस्वासु ॥
पेखि पेखि सुआमी की सोभा आनदु सदा उलासु ॥
( पन्ना ६७७ )
गुरु साहिब ने परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले गुरसिक्ख के आनंद की निराली व्याख्या की और उसे सांसारिक आनंद से भिन्न किया। गुरु साहिब ने कहा कि यह आनंद इसलिए नहीं है कि गुरसिक्ख परमात्मा के मार्ग पर चलने का बड़ा कार्य कर रहा है। इससे अहं भी उपज सकता है। यह आनंद तो परमात्मा के प्रति सच्चा विश्वास धारण करने से और उसके विराट एवं सर्व मंगल स्वरूप की शोभा देख-देखकर पैदा होता है । परमात्मा की महिमा को देखना ही आनंद को पाना है :
तिन्ह बसंतु जो हरि गुण गाइ ॥
पूरै भागि हरि भगति कराइ ॥
(पन्ना १९७६)
गुरसिक्ख प्रभु के अपार गुण – गायन में लीन होकर सदैव बसंत के आनंद को प्राप्त करता है। इससे उसका जीवन जीने का ढंग बदल जाता है । उसे होली का आनंद रंग उछालने और व्यंजन खाने में नहीं आता। वह ईश्वर की अनुकूलता को प्राप्त करने के निराले ढंग अपनाता है। श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने होली का त्योहार नए ढंग से मनाना आरंभ किया और नया नाम दिया– ‘होला-महल्ला ।’ इन दिनों में सुबह से ही गुरबाणी के दरबार लगाये जाते और कवि, ढाडी आदि अपनी गायन-कला का प्रदर्शन करते; शबद-कीर्तन होता, बाद में शस्त्र – कौशल दिखाया जाता और कसरत, खेल आदि होते थे। इस दिन गुलाब का सुगंधित जल भी बिखेरा जाता, जिससे माहौल सुगंध से भर उठता था । सिक्खों के समूह बनाकर दिखावटी युद्ध भी कराए जाते जिनमें सिक्ख अपने युद्ध – कौशल और वीरता का प्रदर्शन करते थे। इन युद्ध- प्रतियोगिताओं में जीत का उत्सव भी निराले तरीके से मनाया जाता था। एक बड़े बर्तन में कड़ाह प्रसादि रख दिया जाता था। उसे उपस्थित संगत में बांटा जाता था। गुरु साहिब मन और कर्म दोनों में परमात्मा को जोड़ना सिखाते थे। श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी द्वारा अपनाया होली का यह ढंग श्री गुरु अरजन देव जी के बताये ढंग के अनुरूप ही था :
आजु हमारै बने फाग ॥
प्रभ संगी मिलि खेलन लाग ॥
होली कीनी संत सेव ॥
रंगु लागा अति लाल देव ॥२॥
मनु तनु मउलिओ अति अनूप ॥
सूकै नाही छाव धूप ॥
सगली रूती हरिआ होइ ॥
सद बसंत गुर मिले देव ॥३॥
(पन्ना १९८०)
श्री गुरु अरजन साहिब ने जहां परमात्मा को संगी बनाकर होली खेलने की बात कही वहीं श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी इसमें और वृद्धि कर शबद-कीर्तन के दरबार लगाने की भी शिक्षा दे गए। श्री गुरु अरजन देव जी ने संत-सेवा की बात कही। श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने इसमें शस्त्रों का साथ शामिल कर संत बनने के साथ-साथ सच के पक्ष में दृढ़ता से खड़े होना सिखाया । श्री गुरु अरजन देव जी ने जहां परमात्मा के रंग में डूब जाने को कहा, वहीं श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने प्रभु – रंग में डूब जाने के साथ-साथ प्रभु की कृपा रूपी कड़ाह प्रसादि वितरित करने एवं छकने की हिदायत की। इस प्रकार होला-महल्ला तन-मन से परमात्मा के रंग में सराबोर होने का उत्सव बन गया था। वास्तव में यही गुरसिक्ख की जीवन-पद्धति है और इसी कारण उसका सारा जीवन कभी न कम होने वाले असीम आनंद से भर उठता है।
गुरसिक्ख का विकारों से मुक्त हो जाना, सांसारिक पदार्थों का मोह त्याग देना, परमात्मा की सर्वव्यापकता के दर्शन करना और उसके गुणों में रम कर तन और मन से उन्हें अंगीकार करना ही जीवन – लक्ष्य है, जिसमें सच्चे आनंद की अनुभूति समायी होती है। गुरसिक्ख के जीवन में सदा बसंत की प्रफुल्लता है और वह पल-पल परमात्मा-प्रेम के रंगों की होली खेलता है । इतना महान दर्शन और इतना पवित्र आचार रोम-रोम को आहलादित कर देता है। गुरमति ऐसी जीवन-पद्धति है कि इसकी महानता के आगे खुद को बार-बार बलिहार जाने से रोक पाना असंभव हो जाता है। यह जीवन, इस जीवन की एक-एक सांस गुरु साहिबान को समर्पित, जिन्होंने हमें ऐसी महान एवं विलक्षण जीवन-पद्धति अपनाने का उपदेश दिया।