भाई सुबेग सिंघ – भाई शाहबाज सिंघ

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March 24, 2025

– डॉ. मनजीत कौर 

शहीदी परम्परा की एक और इबारत लिखने वाले महान शहीद, पिता-पुत्र भाई सुबेग सिंघ – भाई शाहबाज सिंघ थे, जिन्हें चरखड़ी पर चढ़ा कर शहीद कर दिया गया। उन्होंने जालिमों की धौंस स्वीकार नहीं की, अकाल-अकाल का उद्घोष करते हुए, चढ़दी कला में रहकर, असह कष्ट सहन करते हुए शहादत प्राप्त कर गए।

भाई सुबेग सिंघ लाहौर के निकट जांबर गांव के रहने वाले थे । वे उच्च कोटि के विद्वान, फारसी भाषा में पारंगत, चिन्तनशील, सच्चे गुरसिक्ख, मधुरभाषी, नीतिवान, व्यापारी, ठेकेदार होने के साथ-साथ बहुत ही मिलनसार स्वभाव के थे। अपने इन्हीं गुणों के कारण उनकी बहुत ही प्रतिष्ठा और लोकप्रियता थी । उनके व्यक्तित्व की अनूठी छाप केवल अपने क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी, अपितु लाहौर का अत्याचारी कट्टर गवर्नर जकरिया खान भी इनके व्यक्तित्व से प्रभावित था । उसने सरदार सुबेग सिंघ को सरकारी पद पर नियुक्त किया और कुछ समय के लिए लाहौर का कोतवाल भी नियुक्त किया। किसी सिक्ख की सरकारी पद पर नियुक्ति और वह भी ऐसे समय में जब सिक्खों पर जुल्म पर जुल्म किए जा रहे थे और उन्हें समूल नष्ट करने की ठान ली गई हो, यह सब सिक्खों के पराक्रम का ही परिणाम थी।

एक तरफ जब्र की इन्तहा और दूसरी तरफ धैर्य, आस्था, भरोसा, निष्ठा, ईमानदारी और धर्म की रक्षा हेतु कुर्बान हो जाने का जज्बा, जालिमों के समक्ष हरगिज घुटने न टेकने का प्रण और स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाने के संदर्भ में अगर विचार करें तो विद्वानों के चिन्तनानुसार १७४८ ई. सिक्ख इतिहास का एक महान वर्ष माना गया है । इस दौरान सिंघों के बारह जत्थे बनाकर उन्हें बारह मिसलों का नाम दिया गया । यह वो दौर था जब एक ओर सिंघ संगठित होकर जुल्म करने वालों को हमेशा के लिए समाप्त करने की युक्ति बना रहे थे, दूसरी ओर जालिम क्रूरता की सारी हदें पार कर नए-नए जुल्मो-सितम ढाहने के हथकण्डे अपना कर जबरदस्ती इसलाम धर्म कबूल करवाना चाहते थे। इसी दौर में सिक्ख धर्म की दो महान शख्सियतों- पिता रूप में भाई सुबेग सिंघ और पुत्र रूप में भाई शाहबाज सिंघ को चरखड़ी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया गया।

लाहौर का गवर्नर जकरिया खान बेशक भाई सुबेग सिंघ की ईमानदारी का कायल था, उनका सम्मान भी करता था, लेकिन नेक नियति से नहीं, स्वार्थ से ।
स्वार्थी और कट्टर व्यक्ति के हृदय में रहम, दया, करुणा का लेशमात्र भी प्रभाव नहीं होता। वह जुल्म करने से बाज नहीं आता और जुल्म करने के मंसूबे बनाता हुआ किसी विशेष अवसर की तलाश में रहता है। इसका पुख्ता प्रमाण इतिहास की इस घटना से स्पष्ट लक्षित होता है कि जब जकरिया खान ने वाँ गांव के रहने वाले भाई तारा सिंघ को शहीद करवा दिया था। इस घटना ने समूची सिक्ख कौम को आक्रोश से भर दिया था। परिणामस्वरूप दीवान दरबारा सिंघ तथा सरदार कपूर सिंघ फैजलपुरिया के नेतृत्व में लाहौर सरकार से बदला लेने हेतु आर्थिक नाकाबंदी कर दी गई। इस प्रकार के दृढ़तापूर्ण निर्णय ने लाहौर सरकार को हिला कर रख दिया । जकरिया खान हर प्रकार की सैन्य कठोरता, बर्बरता सिक्खों पर करके हार गया। अन्त में निर्दयी शासक ने एक और चाल चलते हुए सिक्खों से समझौता करने का मन स्वार्थ सिद्धि हेतु बनाया। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु उसे जरूरत महसूस हुई भाई सुबेग सिंघ की । उन्हें बुलवा कर जकरिया खान ने कहा कि ” आपने कई बार सरकार को सिक्खों के साथ संबंध सुधारने हेतु परामर्श दिया है। अब मैं भी यही चाहता हूं और इसके लिए आप मध्यस्थ बनकर सिक्खों के साथ मेरी सुलह करवा दें ! ” इससे स्पष्ट होता है कि जहां भजन – बंदगी में लीन रहने वाले, उच्च आचरण के धनी भाई सुबेग सिंघ के प्रति सिक्खों के मन में पूर्ण आदर-सत्कार था, वहीं इनकी ईमानदारी से भी प्रभावित थी मुगल सरकार । इसका पुख्ता प्रमाण ‘श्री गुर पंथ प्रकाश’ में मिलता है :
तुरक उसै खालसे वल तोरें ।
खालसा भी तिस को भल लोरें ।
कोई तुरकन परै जरूरी काम |
तौ उस भेजैं कर कर सलाम ।। ३ ।। (पृष्ठ ३३९)

जब जकरिया खान ने भाई सुबेग सिंघ के सामने सिक्खों के साथ समझौते की बात रखी तो भाई सुबेग सिंघ का पहला प्रश्न था – “समझौते की शर्तें क्या होंगी?” जकरिया खान का जवाब था — “सिक्ख हुकूमती गतिविधियों का विरोध करना छोड़ दें ! ” भाई सुबेग सिंघ का अगला प्रश्न था–“आप बदले में क्या देंगे?” जकरिया खान का जवाब था–” उनके एक जन को नवाब का पद दिया जाएगा।” भाई सुबेग सिंघ ने निर्भीकता ‘सिक्ख नहीं मानेंगे।” जकरिया खान झुंझलाहट भरे लहजे में बोला- ” आखिर सिक्ख चाहते से कहा क्या हैं?” भाई सुबेग सिंघ का कथन था — — “पहले उन्हें उनके गुरुधामों की खुली यात्रा तथा सेवासम्भाल करने की अनुमति दी जाए ।” जकरिया खान द्वारा यह सुझाव भी मान लिया गया। बड़ी सूझबूझ से भाई सुबेग सिंघ ने सिक्खों के हित में एक और शर्त रखी- .” उन्हें जागीर भी दी जाए, ताकि गुरुद्वारा साहिबान की संभाल के लिए होने वाले खर्च की व्यवस्था ठीक से हो सके ।

ये सारी शर्तें लिखित रूप में मनवा कर भाई सुबेग सिंघ श्री अमृतसर लौट आए। यहां आकर भाई सुबेग सिंघ ने दीवान दरबारा सिंघ को संदेश भिजवाया और मिलकर सारी स्थिति को स्पष्ट कर दिया । नेक नियति और ईमानदारी से इस तथ्य को स्पष्ट करने के बावजूद भी दीवान दरबारा सिंघ ने कहा कि ” वे इस सन्दर्भ में अकेले कुछ नहीं कह सकते। ‘सरबत्त खालसा’ ही इसका निर्णय लेगा ।” इस पर भाई सुबेग सिंघ ने कहा, “ठीक है, मुझे ‘सरबत्त खालसा’ की सभा में बुलाया जाए। मैं वहां सारी बात कह दूंगा ।” विनम्रतापूर्वक कहे इन शब्दों के उपरान्त ‘सरबत्त खालसा’ की सभा में दीवान दरबारा सिंघ ने वह पेशकश बयान की जो सरकार द्वारा पेश की गई थी। उस पर विचार-विमर्श किया गया। कुछ सिंघों की राय थी कि इस पेशकश को ठुकरा दिया जाए, लेकिन दीवान दरबारा सिंघ ने बताया कि भाई सुबेग सिंघ खुद इस सभा में उपस्थित होकर सारी स्थिति स्पष्ट करना चाहते हैं । इस पर ‘सरबत्त खालसा’ का फैसला था कि ” भाई सुबेग सिंघ उस सरकार के साथ हैं, जो सिक्खों के खिलाफ है। इस कारण वे दोषी हैं। यहां आने से पूर्व उन्हें धार्मिक सजा ( तनखाह ) पूरी करनी होगी, तभी वे सभा में उपस्थित हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।” भाई सुबेग सिंघ ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक ‘सरबत्त खालसा’ की ओर से लगाई गई तनखाह को कबूल किया और फिर सभा में आकर विद्वतापूर्वक सरकार के प्रस्ताव को पारित करवा लिया।

सरदार कपूर सिंघ के नाम पर नवाब पद लेने पर सहमति बनी। गुरु घर के श्रद्धालु, अति विनम्र भाव वाले सरदार कपूर सिंघ ने नवाबी लेने से पहले यह शर्त रखी कि मुझे मेरी पहली सेवा (घोड़ों की लीद उठाना) से वंचित न किया जाए। धन्य हैं ऐसे सिक्ख !

इस समझौते पर जकरिया खान बहुत प्रसन्न हुआ। भाई सुबेग सिंघ के विद्वतापूर्वक किए गए इस कार्य की सफलता पर जकरिया खान ने उन्हें लाहौर का कोतवाल नियुक्त कर दिया । परिणामस्वरूप भाई सुबेग सिंघ के प्रति लोगों का प्यार, अदब – सत्कार कई गुना बढ़ गया। इस पद की नियुक्ति के उपरान्त भाई सुबेग सिंघ ने अनेक कुरीतियां बंद करवाईं। शहीद सिंघों के सिरों को दीवारों पर से उतरवा कर तथा कुओं से निकलवा कर उनका अन्तिम संस्कार करवाया। और भी जनताङ्गहित में अनेक कार्य किए। परिणामस्वरूप उनके प्रशंसकों की गिनती निरन्तर बढ़ने लगी ।

ईर्ष्यालु, निर्दयी और कट्टर स्वभाव के मालिक जकरिया खान ने पुनः सिंघों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया। सिंघों ने भी प्रत्युत्तर में सरकार का घेरा तंग करना शुरू कर दिया । राजनीति की कुटिल चाल चलते हुए भाई सुबेग सिंघ पर जकरिया खान ने यह आरोप लगाया कि आपकी वजह से सरकारी भेद सिक्खों तक पहुंचते हैं। उन्हें कोतवाल पद से हटा दिया गया। भाई सुबेग सिंघ सहज स्वभाव अपने पूर्ववत् कारोबार में लग गए।

किस्सा यहीं खत्म नहीं होता, अपितु यहां से शुरू होता है। भाई सुबेग सिंघ का एक पुत्र था- भाई शाहबाज सिंघ। भाई शाहबाज सिंघ बहुत ही होनहार, प्रतिभावान थे । वे एक काजी के पास फारसी पढ़ते थे। काजी १८ वर्षीय भाई शाहबाज सिंघ के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित था । उसने इन्हें मुसलमान बना कर अपनी बेटी से निकाह करवाने का मन बनाया। काजी हर मुमकिन कोशिश करता रहा कि किसी प्रकार इन्हें इसलाम धर्म कबूल करवा ले, लेकिन वह अपने नापाक इरादे में सफल न हो सका । वह उन्हें तरहङ्कतरह से डराने धमकाने लगा । इसका भी कोई प्रभाव भाई शाहबाज सिंघ पर नहीं हुआ। एक दिन उनके एक सहपाठी ने सिक्ख धर्म पर आक्षेप किए। भाई शाहबाज सिंघ सिक्ख धर्म की पूरी जानकारी रखते थे । उन्होंने सिक्ख धर्म पर लगाए आक्षेपों का तर्कपूर्ण ढंग के साथ खण्डन किया। बात काजी तक पहुंची, जो पहले से ही भाई शाहबाज सिंघ के प्रति द्वेष से भरा हुआ था । उसने बेवजह भाई शाहबाज सिंघ को ही दोषी ठहराया और शासक के यहां मनघड़त कहानी गढ़ कर कहा कि ” भाई शाहबाज सिंघ ने इसलाम धर्म का निरादर किया है। यह हमारे धर्म का विरोध करता है और लोगों को भी हमारे धर्म के खिलाफ भड़काता है ।” भाई शाहबाज सिंघ को गिरफ्तार कर लिया गया। इस दौरान जकरिया खान की मृत्यु हो गई । उसकी जगह उसका पुत्र याहिया खान पंजाब का गवर्नर बना । यह कट्टरता और निदर्यता में अपने पिता से भी दो कदम आगे था । जब इसके समक्ष भाई शाहबाज सिंघ के मुकद्दमे की सुनवाई शुरू हुई, मौलवी के बयान और स्थानीय फर्जी झूठी रिपोर्टों के आधार पर भाई शाहबाज सिंघ को दोषी करार दिया गया। साथ ही भाई सुबेग सिंघ के प्रति हुकूमती अप्रसन्नता के चलते पितापुत्र दोनों की गिरफ्तारी का आदेश दे दिया गया। निर्दोष पिता-पुत्र को लाहौर के बड़े काजी के सुपुर्द कर दिया गया। वहां से आदेश जारी हुआ कि मृत्यु अथवा इसलाम में से जो चाहो, चुन लो। फौलादी इरादे वाले सच्चे धर्म-प्रेमियों ने मौत का चुनाव किया। निर्भयता से गगनभेदी जैकारे गजाए गए। सिंघों की निर्भयता से तिलमिलाते हुए जालिम याहिया खान ने खौफनाक मृत्यु का फतवा जारी किया कि ‘अगर इसलाम कबूल नहीं करोगे तो चरखड़ी पर चढ़ाकर शहीद कर दिए जाओगे ! ” पिता-पुत्र ने बड़ी दिलेरी से कहा, “अगर मृत्यु के भय से धर्म-परिवर्तन कर लेंगे तो फिर क्या मौत नहीं आएगी?” ‘ श्री गुर पंथ प्रकाश’ में इस हकीकत को इस प्रकार बयान किया गया है:
मरनों डर हम दीन मों करो ।
होइ दीन मैं फिर नहिं मरों । । १० ।। (पृष्ठ ३४० )

दोनो महान पितापुत्र चरखड़ी पर चढ़ा दिए गए। जालिमों द्वारा निदर्यता का एक और अध्याय लिखा गया। दूसरी ओर सिंघ अकालडुअकाल, वाहिगुरुङवाहिगुरु का सिमरन करते हुए असह कष्ट झेलते हुए, अडोल अवस्था में रहकर, हर लालच और भय को ठुकराते हुए बड़े फख्र से बोले :
सिक्खन का सुगुरू हमारे ।
सीस दीओ निज सन परवारे ।। २७ ।।
हम कारन गुर कुलहि गवाई।
हम कुल राखेँ कौण बडाई ? (श्री गुर पंथ प्रकाश, पृष्ठ ३४२ )
अपनी जीत का शंखनाद करते हुए, खुशी का तराना गुनगुनाते हुए शहादतों के अध्याय में एक और अनूठा अंक जोड़कर मानो विजय का उद्घोष कर रहे हों :
धंन घड़ी, धंन चरखड़ी,
धंन निआओ तुमारा ।
धरम हेत हम चड़हि चरखड़ी,
धंन वजूद हमारा ।
शत्-शत् नमन् है महान शहीदों को ! पिता-पुत्र की शहादत को सिजदा करते हुए स. रतन सिंघ (भंगू )
की काव्य-पंक्तियां यहां उल्लेखनीय हैं :
सुबेग सिंघ जंबर भयो,
सिखी मध मज़बूत |
वह भी सतिगुर सिख हुतो,
जिस को थो वह पूत ॥ १ ॥ ( श्री गुर पंथ प्रकाश, पृष्ठ ३३९ )