– डॉ. शमशेर सिंघ
सिक्ख गुरुओं द्वारा दर्शाए जीवन – मार्ग को गुरमति विचारधारा के अनुसार ‘निर्मल पंथ’, ‘खालसा पंथ के नाम दिये गए हैं। इन शब्दों का आंतरिक भाव एक ही ख़्याल का सूचक है जो गुरु साहिबान ने संसार के कल्याण के लिए दिया है। महापुरुष का जीवन एवं कर्त्तव्य एक ऐसी नदी की भांति होते हैं जिससे हर एक जिज्ञासु अपनी श्रद्धा के अनुसार अंजुली भर कर अपनी प्यास बुझा सकता है। प्रभु के सच्चे भक्त सारे संसार का भला चाहते हैं। सिक्खी एक पंथ है, एक मार्ग है। यह मार्ग अति कठिन है। यहां आत्मसमर्पण है, जहां सिर को हथेली पर रखना पड़ता है। इसमें प्रेम ही प्रेम है। वो भी बिना किसी लालच के है । प्रेम एक साधन है, निशाना भी है। ‘सिक्खी खंनिउ तिक्खी वालों ‘निक्की’ है। इस मार्ग पर चलते हुए पांव पीछे नहीं हटना चाहिए । यदि सिर भी देना पड़े तो कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। सिक्खी का महल कोई ईंटों एवं गारे से नहीं बना, यह तो शहीदों के खून के गारे से और सिक्खी – सिद्धांतों की ईंटों से मिलकर बना है। इस महल को ढहाने के लिए समय-समय पर कई तूफान आए परंतु इसकी मज़बूती ने इसको कायम रखा ।
भाई गुरदास जी ने इस पंथ को ‘अगंम’ (अगम्य ) लिखा है । जिस तरह जल में मछली और आकाश में पक्षी का रास्ता ढूंढना मुश्किल होता है, इसी तरह गुरसिक्ख के रास्ते का अंत पाना अि कठिन होता है। यह पंथ मन-बुद्धि की पहुंच से दूर अगंमी वस्तु है, एक रहस्मयी वस्तु है। इस पंथ को चलाने वाला गुरु है ।
गुरमति का निशाना जीव को ‘सचिआरा’ (सत्य) बनाना है ‘सचिआरता’ (सत्यता ) मानव जीवन का शिखर है, परमात्मा के साथ एकात्मता है, जहां अहं को खत्म करना है । यह पूर्णता, अभेदता या एकात्मता जीवन के बाद नहीं, बल्कि जीवित अवस्था में प्रभु के साथ एकात्मता प्राप्त करके जीवन- मुक्त बनना है। इसे गुरमति में ‘सहज’ भी कहा गया है। सहज कोई विलक्षण मत नहीं है। सहज एक अवस्था है जिसे बिना किसी मत के बदलते हुए प्राप्त किया जा सकता है ।
इस सहज को परम पद, चौथा पद, अमर पद, निर्वाण पद, तुरीआ ( तुरीय) अवस्था, महासूख, बंदखलासी आदि नाम दिए गए हैं। जीव ने अधूरे से पूरा बनना है; मलिन से उज्ज्वल होना है; अज्ञानता से ज्ञान की तरफ जाना है। लहर से पुन: समुद्र में आलोप होना है। अवगुणी ने गुणों को धारण करना है। तीन गुणों में रहते हुए इनसे निर्लेप रहना है तीन गुणों के प्रभावाधीन मनुष्य तीन तापों – आधि (मन के कारण दुख ), बिआधि (शारीरिक दुख) तथा अपाधि ( भ्रम के दुख ) का रोगी है । इन बंधनों से मुक्त होना ही सच्चे आदर्श की प्राप्ति है:
मुकत भई बंधन गुर खोल्हे सबदि सुरति पति पाई ॥ (पन्ना १२५५)
जीवन – आदर्श की प्राप्ति तब ही संभव है यदि साधन ही इसकी महत्ता व श्रेष्ठता को समझता है। मनुष्य कई जीव-जंतुओं के चक्करों में से निकलकर यहां पहुंचा है। यदि अब भी इस जन्म की विलक्षणता को नहीं समझता और यह मानव – जन्म जो सीढ़ी का अंतिम डंडा है, भी हाथ से निकल गया तो फिर इसके लिए आवागमन बना रहेगा। पुन: यह मौका हाथ नहीं आएगा । जीव के पल्ले पश्चाताप ही रह जाएगा।
मनुष्य संसार के शेष सारे जीवों से श्रेष्ठ है। इसमें चेतनता तथा चिंतन जैसे दोनों गुण हैं । मनुष्य अपनी समस्याओं के प्रति चेतन और इनका हल ढूंढने के योग्य है। मनुष्य खुद ज्योति स्वरूप प्रभु को पहचान सकता है। मनुष्य यत्नशील एवं चिंतनशील है। ज्योति रूप में प्रभु का अंश है। प्रभु का निवास ज्योति रूप इसके अंदर है । श्री गुरु अमरदास जी फरमान करते हैं
मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु ॥
मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु ॥
(पन्ना ४४१)
मनुष्य प्रभु और संसार के मध्य एक कड़ी है। यदि वो संसार की तरफ अपना मुख मोड़ लेता है, तब वो ‘मनमुख’ कहलाता है, यदि गुरु (परमात्मा ) की तरफ देखता है तब ‘गुरमुख’ बन जाता है। मनुष्य केंद्रीय-बिंदु है। गुरमति विचारधारा के अनुसार परमात्मा ने मानव जीवन की समस्याओं का हल अपने ढंग से किया है। संसार का त्याग नहीं, विकारों एवं पदार्थों से वैराग है। यहां पदार्थों को एक साधन रूप में लिया जाता है, निशाना नहीं ।
जीव माया के प्रभावाधीन भ्रम में पड़ा प्रभु को शरीर से बाहर गृहस्थ के त्याग में जंगलों में ढूंढता है । वह भ्रम में है। गुरमति ने मानव जन्म की हीरे-जवाहरात तथा कंचन आदि बहुमूल्य वस्तुओं के साथ तुलना की है। इस शरीर में प्रभु – ज्योति को ढूंढने के लिए बार-बार चेतावनी दी है :
काइआ अंदर सभु किछु वसै खंड मंडल पाताला ॥
काइआ अंदर जगजीवन दाता वसै सभना करे प्रतिपाला ॥ (पन्ना ११७)
तिन करतै इकु खेलु रचाइआ ॥
काइआ सरीरै विचि सभु किछु पाइआ ॥ (पन्ना ७५४)
धार्मिक तत्ववेत्ताओं ने मानव चेतना को तीन स्तरों- आत्मिक चेतना, बौद्धिक चेतना तथा आध्यात्मिक चेतना पर विकसित होते दर्शाया है। यही कारण है कि मानव – जन्म ही प्रभु-प्राप्ति के लिए असली मौका है इस जन्म की प्राप्ति के लिए देवते भी लालायित हैं
इस देही कउ सिमरहि देव ॥
सो देही भजु हरि की सेव ॥ ( पन्ना १९५९)
कई बार हम इस शरीर को सब कुछ समझ कर इसकी पूर्ति तक ही अपने आप को महदूद कर देते हैं। तब हम अपने असली निशाने से दूर चले जाते हैं। इस शरीर से अलग आत्मिक तत्व की समझ गुरु के द्वारा प्राप्त होती है । गुरु सिक्ख को नाम मार्ग दिखाकर परम पद की प्राप्ति तक ले जाता है। गुरु शब्द के द्वारा शरीर की रचना करता है। शबद के मन में बसने से विकारों का दमन, आशंकाओं का निवारण, दुखों से छुटकारा दुविधा का नाश हो जाता है । अवगुणों से छुटकारा मिलने पर गुणों का निवास हो जाता है। मन की स्थिरता और आत्म रस की प्राप्ति होती है।
गुरु का शब्द कांच रूप मनुष्य को कंचन जैसा कीमती बना देता है । गुरु- शब्द के पारस स्पर्श से पत्थर-दिल भी मोम – दिल हो जाते हैं। पशुओं से देवताओं वाला आचरण प्रदान करना सच्चे गुरु की समर्थ्य व आलौकिक चमत्कार है । गुरु विकारों से जुड़ती जा रही मानव-आत्मा को अपने बल से रोक लेता है। गुरु पिंगलों (अपाहिज ) को पहाड़ पर चढ़ा सकता है; अंधों को तीन भवनों की समझ प्रदान करने के योग्य है, अहंकारियों का अहंकार दूर करके नम्रता के पुंज बना देता है; कंगाल को समर्थवान बना सकता है।