
बाज़ एक शिकारी पक्षी है, जिसे ‘जुर्रा की मादीन’ माना जाता है। पक्षियों की दुनिया में शक्ति और साहस का प्रतीक बाज़ चाहे अब पंजाब की धरती पर कम ही दिखाई देता है लेकिन फिर भी कहा जाता है कि सर्दियों की ॠतु में यह पंजाब की धरती पर चक्कर लगा ही जाता है और यह सिलसिला लंबे समय से बना हुआ है। बढ़ रहे वातावरण प्रदूषण के कारण भी प्रवासी पक्षियों की पंजाब की तरफ परवाज़ दिन-ब-दिन कम होती जा रही है और इसका प्रभाव बाज़ के पंजाब-आगमन पर भी स्वाभाविक नज़र आता है। पंजाब के लोगों की मानसिकता में बसे हुए इस परिंदे को पंजाब सरकार ने ‘राज्य-पक्षी’ का रुतबा प्रदान किया है। अंग्रेज़ सरकार के शासन-काल में पहले ‘चक्कीराहा’ राज्य-पक्षी था, जो कि किसानों का दोस्त समझा जाता था। यह ऐसा पक्षी था जो कि फ़सल को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़े-मकौड़े खाकर फ़सल को बचाता था। १९३३ ई. में अविभक्त पंजाब की सरकार ने ‘‘चक्कीराहा’ की जगह ‘बाज़’ को राज्य-पक्षी का दर्जा प्रदान कर दिया था।
पंजाब शूरवीरों की धरती है, जहाँ शूरवीरता के गुण प्रदान और प्रकट करने वाली प्रत्येक वस्तु और हस्ती का समान किया जाता है। यहाँ की परंपरा में वे पशु, पक्षी और वृक्ष अपने आप आ जाते हैं जिनमें से शूरवीरता के गुण सामने आते हैं। इसी दृष्टि से पंजाब के साहित्य और परंपरा में बाज़ का ज़िक्र देखने को मिलता है, जैसे ‘‘भला बटेरे नूँ बाज़ कद जाण दिंदा है!’’ ‘‘बाज़ वांग टुट्ट के पै जाणा’’, ‘बाज़ वांग झपटना’’, ‘‘बाज़ वरगी अख’’, काल अचानक मारसी जिउं तित्र नूँ बाज़।’’ बाज़ के गुणों के कारण इसे गरुड़, शिकरा, सीचाना, कुही, चरग़, बहिरी, बेसर, लगड़ आदि शिकारी पक्षियों का राजा माना जाता है। गुलाबचशम जाति से सबन्धित इस पक्षी का ज़िक्र करते हुए भाई कान्ह सिंघ नाभा बताते हैं कि ‘‘यह जुर्रा का मादीन है। इसका कद जुर्रा से बड़ा होता है। यह ठंडे देशों से पकड़ कर पंजाब में लाया जाता है। यह यहाँ पर अंडे नहीं देता। दस-बारह वर्ष यह शिकार का काम देता है। गर्मियों में इसे ठंडी जगह पर बैठाते हैं। यह पुराने पंख निकाल कर नये बदलता है। यह तीतर, मुरग़ाबी और सहे का शिकार खूब करता है। पुराने समय में अमीर लोग बाज़ को अपने हाथ पर रखते और शिकार खेलते थे।
बाज़ को फुर्ती, साहस, तेज़ निगाह आदि का चिह्न माना जाता है। आसमान पर उड़ता हुआ भी यह ज़मीन पर अपने शिकार को देख लेता है और फिर इतनी फुर्ती के साथ उस पर हमला करता है कि उसे भागने का मौका नहीं देता। शिकार होने वाले को यह पता ही नहीं चलता कि उसके साथ क्या हुआ है। भक्त शेख फ़रीद जी अल्लाह द्वारा भेजे गए मौत के फ़रिश्ते के साथ इस पक्षी की तुलना करते हुए कहते हैं :
फरीदा दरीआवै कंन्है बगुला बैठा केल करे ॥
केल करेदे हंझ नो अचिंते बाज पए॥ (श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना १३८३)
बाज़ बादशाहों और अमीरों का मनपसंद पक्षी माना जाता है। ये लोग शौक से बाज़ को पालते हैं। प्राचीन समय में जब ये लोग शिकार करने के लिए जाते थे तो इसे भी अपने साथ ले जाते थे। यह माना जाता है कि चाहे बाज़ मांसाहारी जीव है, परन्तु यह मरा हुआ जीव नहीं खाता और अपने भोजन के लिए यह ख़ुद शिकार करता है। मुग़ल बादशाहों की शान समझा जाने वाला यह पक्षी गुरु साहिबान के दरबार का हिस्सा भी बन गया था। छठम पातशाह श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब ने जब कृपाण, कलगी, घोड़ा, निशान आदि शाही चिह्न धारण कर आम लोगों को ऊँचा उठाने का कार्य आरंभ किया तो बाज़ भी उनमें शामिल हो गया था। श्री अमृतसर साहिब में शाही फौज के साथ गुरु जी के प्रथम युद्ध का कारण भी शाही बाज़ ही बना था। सिक्ख, गुरु जी को सच्चा पातशाह कहते थे और उन्हें शाही समान वाली वस्तुएँ भेंट किया करते थे। बाज़ भी उनमें से एक था। एक घटना का ज़िक्र अक्सर किया जाता है कि जब गुरु जी करतारपुर में मौजूद थे तो कंधार से गुरु साहिब के दर्शन करने के लिए एक सौदागर काबुली मल्ल आया। उसने गुरु जी को जो वस्तुएँ भेंट की, उनमें शस्त्र, वस्त्र, कलगी और बिदख़शां का एक श्वेत बाज़ भी शामिल था।
श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब के बाद श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी के समय बाज़ विशेष रूप से सामने आता है। श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी का इस पक्षी के साथ विशेष प्रेम था, इसी कारण गुरु जी को समान सहित ‘बाजां वाला’ कह कर भी संबोधित किया जाता है। सिक्ख परंपरा में गुरु जी के श्वेत बाज़ का ज़िक्र मिलता है। श्वेत रंग शान्ति, मित्रता और निर्मलता का प्रतीक है, मगर जब इस रंग वाला बाज़ गुरु साहिब का स्पर्श प्राप्त करता है तो शूरवीरता और स्फूर्ति के साथ-साथ स्वाभिमान के चिह्न के रूप में प्रकट होता है। गुरु जी के श्वेत बाज़ का ज़िक्र कवियों की रचनाओं में अक्सर देखने को मिलता है :
हुंदे किवें चिड़े बाज,
गिद्दड़ बबर शेर,
चिट्टे बाजां वाला जे ना जग विच आउंदा!
श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी शिकार खेलते समय बाज़ को अपने साथ लेकर जाया करते थे। जब वे शस्त्र धारण कर घोड़े पर सवार होकर प्रस्थान करते तो बाज़ उनकी शोभा और शान में वृद्धि करता था, जिसका वर्णन करते हुए ज्ञानी गिआन सिंघ बताते हैं :
कर पर बाज धारि होइ बाज पै सवार,
नित ही शिकार गुरु इम ही कराहि हैं॥
बाज़ अपनी फुर्ती और शिकारी स्वभाव के कारण प्रसिद्ध है। यह अपना स्वभाव नहीं बदलता। जब बादशाह इसका प्रयोग अपनी शक्ति के प्रतीक के रूप में करता है तो इसका यह तात्पर्य लिया जाता है कि इसके सामने समूची प्रजा चिड़ियों-बटेरों की भांति है, जो कि बादशाह का मुकाबला करने के असमर्थ है। दरबारी शक्ति प्रजा पर कोई भी ज़ुल्म करे, उसे सहन करने में ही भलाई समझी जाती रही है। बादशाह की शक्ति के ऐसे संदेश को श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने बदलने का सफल यत्न किया। गुरु जी चिड़िया-बटेरे समझी जाने वाली प्रजा को ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं कि वह ‘ज़ुल्मी बाज़’ का नाश करने के योग्य हो जाती है। आम लोगों को ज़ुल्म के विरुद्ध सचेत करने और बल पैदा करने के लिए भी गुरु जी ने बाज़ को प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया है।
श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी के बाद बाज़ सिक्खों के आकर्षण का केंद्र बना रहा। बाबा बंदा सिंघ बहादुर के शूरवीर साथियों में एक भाई बाज सिंघ भी मौजूद था, जिसकी हिमत और फुर्ती की तुलना बाज़ के साथ की जाती थी। सरहिन्द पर विजय प्राप्त कर बाबा बंदा सिंघ बहादुर ने इसे वहाँ का हाकिम नियुक्त कर दिया था। गुरदास नंगल के युद्ध के पश्चात् जब बाबा बंदा सिंघ बहादुर और उसके साथियों को पकड़ कर दिल्ली ले जाया गया तो कुछ चुनिंदा सिक्खों से पहले उनके समूह साथियों को शहीद कर दिया गया था। ‘महिमा प्रकाश’ का कर्ता लिखता है कि बादशाह फर्रुसियर भाई बाज सिंघ के साहस से बहुत प्रभावित था। बादशाह ने उसे दरबार में बुलाया और कहा कि ‘‘माना कि तू बड़ा शक्तिशाली है, मगर अब कुछ नहीं कर सकता।’’ भाई बाज सिंघ ने कहा, ‘‘मेरी बेड़ियां खोल कर देख, अभी पता चल जायेगा।’’ जब उसके पैरों की बेड़ियां खोली गईं तो बाज़ की भांति झपट कर उसने हाथ की हथकड़ियों से ही दो-तीन जवानों को गिराया। दरबार में उपस्थित मुग़ल सिपाहियों ने उसे मौके पर ही शहीद कर दिया था।
बाबा बंदा सिंघ बहादुर के बाद मिसलों के समय के दौरान महाराजा रणजीत सिंघ ने लाहौर पर विजय प्राप्त कर अपना शासन स्थापित कर लिया था। कहा जाता है कि १८०५ ई. में इन्दौर का मराठा सरदार यशवंत राव होलकर महाराजा रणजीत सिंघ से सहायता मांगने के लिए पंजाब आया तो लार्ड लेक इसका पीछा कर रहा था। उस समय हुई संधि में महाराजा रणजीत सिंघ की तरफ से सरदार फतिह सिंघ आहलूवालिया ने दस्तख़त किये थे। जब लार्ड लेक वापस लौटने लगा तो ख़ुशी से उसने आहलूवालिया सरदार को एक चितरा नज़र किया था। आहलूवालिया सरदार ने वापसी तोहफ़े के रूप में उसे एक बाज़ भेंट किया था, जो कि इस बात का प्रतीक था कि ख़ालसा अपने राज की सुरक्षा के लिए सचेत है।
सिक्ख बाज़ को श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी के संदेश-वाहक के रूप में भी देखते हैं। इसकी एक मिसाल गुरुद्वारा गुरु का बाग़ का मोर्चा देखने गए अंग्रेज़ पादरी सी. एफ. एंडर्यूज ने प्रेस को भेजे अपने एक बयान में भी पेश की है। वह बताता है कि जब वह श्री अमृतसर साहिब से तांगे में बैठ कर गुरुद्वारा गुरु का बाग़ की तरफ जा रहा था तो रास्ते में दो सिक्ख नौजवान आसमान में उड़ते हुए एक पक्षी की तरफ देख रहे थे। तांगे से उतर कर सभी मुसाफ़िर उनकी तरफ देखने लगे। बताया गया कि यह सुनहरी बाज़ है और जब पुलिस द्वारा जत्थे की मार-कुटाई की जाती है तो यह यहाँ से उड़ कर रोज़ाना श्री दरबार साहिब (श्री अमृतसर साहिब) चला जाता है। देखने वालों के चेहरे पर ख़ुशी का प्रकटावा अकालियों की धार्मिक दृढ़ता के प्रतीक को बयान करता था।’’
इसी प्रकार जून, १९८४ ई. के साके के समय जब पंजाब के बहुत-से गुरुधामों पर हमला हुआ तो कुछ गुरुधामों में संगत ने बाज़ के दर्शन किये थे। पटियाला का गुरुद्वारा दूख निवारण साहिब भी उनमें शामिल था। जब यह ख़बर फैली कि गुरुद्वारा साहिब में बाज़ आया है तो संगत उसके दर्शन करने के लिए उमड़ पड़ी। संगत बाज़ के दर्शन कर रही थी और उसे गुरु जी द्वारा संकट-काल में चढ़दी कला में रहने के संदेश के रूप में देख रही थी।
श्री अकाल तख़्त साहिब पर हुए हमले का सिक्खों के मन में बहुत आक्रोश था और वे देश की प्रधानमंत्री के साथ सख़्त नाराज़ थे। प्रधानमंत्री के दो अंगरक्षकों ने उसका कत्ल कर दिया, जिसके निष्कर्ष के तौर पर पकड़े गए सिंघों में स. बलबीर सिंघ भी शामिल था। प्रधानमंत्री को कत्ल करने के प्रेरक के तौर पर स. बलबीर सिंघ के बयान पर आधारित ३ अगस्त, १९८८ ई. को जो फ़ैसला आया, उसमें लिखा गया कि साका नीला तारा के दोषी प्रधानमंत्री को मारने की योजना बलबीर सिंघ ने बनाई थी और उसने इस सबंध में स. बेअंत सिंघ और स. सतवंत सिंघ को भड़काया था। सितंबर, १९८४ ई. के प्रथम सप्ताह में जब एक बाज़ प्रधानमंत्री निवास के नज़दीक एक वृक्ष पर आकर बैठा तो स. बलबीर सिंघ की नज़र उस पर पड़ी। उसने स. बेअंत सिंघ को भी यह दृश्य देखने के लिए बुलाया। दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि यह बाज़ दशमेश पिता का यह संदेश लेकर आया है कि घल्लूघारा (साका) जून १९८४ ई. का बदला लिया जाये। दोनों ने वहीं पर अरदास कर दी थी।
वर्तमान समय में पंजाब में बाज़ बहुत कम देखने को मिलते हैं, परन्तु नवंबर, २०२० ई. में जब किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर मोर्चा लगाया तो दिल्ली पुलिस ने उनका रास्ता रोकने के लिए कठोर प्रतिबंध लगा दिए थे। किसानों के मुख्य पंडाल और सरकारी प्रतिबंधों के मध्य निहंग सिंघों ने अपनी छावनी लगा ली। उनके पास घोड़े, बाज और शस्त्र मौजूद थे। बाज़ एक तंबू के ऊपर बैठा रहता था, जिसे देखने और तस्वीर खिचवाने वालों की भीड़ हमेशा बनी रहती थी। निहंग सिंघ दशमेश पिता के इस प्रतीक-पक्षी के बारे में संगत को जानकारी प्रदान करते थे।
बाज़ सिक्ख मानसिकता में प्रवेश कर गया है और वे इसकी हिमत, दृढ़ता और स्वतंत्रता के गुणों से बहुत प्रभावित हैं। सिक्खों द्वारा शस्त्रों पर शेर या बाज़ का चिह्न बनवाया जाता है, जो कि गौरवता का प्रतीक माना जाता है। गुरुद्वारा साहिबान में बाज़ के चित्रों या चिह्नों के दर्शन चढ़दी कला में रह कर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ जूझते रहने की प्रेरणा पैदा करते हैं।
–डॉ. परमवीर सिंघ*