
संसार परमात्मा की वैविध्य से परिपूर्ण रचना है। कोई शक्तिशाली, कोई निर्बल है। कोई धनवान, कोई निर्धन है। कोई ज्ञानवान है, कोई अज्ञानी है। अधिकांश धर्मग्रंथ इसे अपने कर्मों का फल मानते हैं। यह भी सत्य है कि परमात्मा दयालु है। सभी उसकी संतान हैं। अपनी संतान को कोई कैसे दुख में देख सकता है। वह विभिन्नता कैसे रच सकता है। यह भी ध्रुव सत्य है कि परमात्मा न्यायप्रिय है। अपने न्याय के अंतर्गत ही उसने किसी को राजा, किसी को रंक बनाया है। परमात्मा ने इस सृष्टि में अद्भुत समन्वय स्थापित किया है, जिसमें उसका न्याय और दया, दोनों एक साथ प्रकट होते हैं। यदि उसने निर्बल, निर्धन, अज्ञानी रचे तो उनके दुख दूर करने के लिए सबल, धनी और ज्ञानी के मन में करुणा का भाव भी उत्पन्न किया है। अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात अतिरिक्त जो भी सामर्थ्यवान मनुष्य के पास बचता है, वह उसे अभावग्रस्त में बांट देता है। सामर्थ्यवान को सामर्थ्य परमात्मा ने प्रदान की है। सामर्थ्यवान के माध्यम से वह उस सामर्थ्य का अंश निरीह को स्थानांतरित करता है।
दया और सहयोग की भावना का व्यवहार में बदलना मनुष्य का धर्म है और इसमें परमात्मा की व्यवस्था सुचारु बनी रहती है। मनुष्य कुछ देने की स्थिति में है तो देने में संकोच न करे। मनुष्य आगे देता जाएगा तो परमात्मा उसका प्रवाह बनाए रखेगा। जैसे कि नदी का जल आगे बढ़ता रहता है तो नया जल उसका स्थान लेता रहता है। जल का प्रवाह रुक जाए तो रुका हुआ जल दुर्गंध देने लगता है और अनुपयोगी हो जाता है।
मनुष्य का किसी को करुणा, दया वश कुछ देना उसका उपकार नहीं, परमात्मा की व्यवस्था का अंगीकरण है। जब परहित को उपकार मान लिया जाता है तो वहां चाहे अनचाहे अहंकार उत्पन्न हो जाता है। अहंकार स्वयं को दाता मानने का भ्रम पैदा कर देता है। परमात्मा को किसी भी तरह का अहंकार स्वीकार नहीं है।
डा. सत्येंद्र पाल सिंह