
केशों की धर्म के इतिहास में विशेष महानता है। यह वो पहचान है जिससे प्रकृति ने हमें सजाया है। पैदा होते ही ये एक पोशाक की तरह परमात्मा ने हमें पहनाए हैं ।
‘केश‘ शब्द का मूल धातु पाणिनी ने ‘काश’ बताया है, जिसका अर्थ है ‘ज्योति’ । इसलिए केश ज्योति को आकर्षित करने वाले माने गए हैं। यजुर्वेद के अनुसार “आरोग्यता, तेज़ तथा बल बढ़ाने के लिए केश होने आवश्यक हैं।” अथर्ववेद के अनुसार, “केश बोये नहीं जाते। इनको उखाड़ना या काटना वाज़िब नहीं, बल्कि केश धारण करके शक्ति व गर्व को बढ़ाना चाहिए ।” यूं लगता है कि केश भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का चिन्ह थे। सारे ऋषि, सारे मुनि केशधारी थे । मुंडन तो शोक की निशानी माना जाता था और आज भी है। महात्मा बुद्ध भी जब संसार से उपराम हुए तो राजपाट त्यागकर घर से निकल पड़े। पहले उन्होंने केश कटवा दिए, मगर जब वे ज्ञान प्राप्त करके लौटे तो उन्होंने पुनः केश धारण कर लिए। इस कारण केश ज्ञान का संकेत हैं ।
केवल भारत में ही नहीं, सभी धर्मों के पीर पैगंबर भी केशधारी थे । मुसलमानों के रसूल हज़रत मुहम्मद साहिब को गेसू – दराज़ (लंबे केश वाले) नाम से भी याद किया जाता है। आज भी आध्यात्मिक प्राप्ति वाले इंसान स्वाभाविक ही केशधारी हो जाते हैं ।
यूं लगता है कि एक तरफ केश सदा से आध्यात्मिकता का चिन्ह माने जाते रहे हैं तो दूसरी तरफ केश – दाढ़ी मर्दानगी का, शूरवीरता का तथा निर्भयता का भी चिन्ह हैं। अच्छे केश सुंदरता, तेज़, शक्ति एवं स्वास्थ्य का प्रतीक माने गए हैं। सिंघों वाला स्वभाव पैदा करने के लिए सिंघों वाला रूप भी आवश्यक है ।
इस प्रकार केश केवल भक्ति का ही नहीं, शक्ति का भी उचित प्रतीक हैं। जिस धर्म का उद्देश्य संत–सिपाहियों की फौज की सृजना करने का हो उसके लिए स्वाभाविक था कि वो केशों के आदिम प्रतिरूपक महत्त्व के साथ अपना सम्बंध जोड़ती। इस दृष्टि से सिक्ख धर्म में केशों की महत्ता का प्रवेश आवश्यक था। श्री गुरु नानक देव जी के समय से ही केशों के सम्मान की प्रथा शुरू हो गई। जब श्री गुरु नानक देव जी ने भाई मरदाना जी को उम्र भर का साथी बनने के लिए सहमत किया तो उससे कहा, “मरदानिआ! इन तीन बातों को पल्ले बांध ले — एक, केश नहीं कटवाना, दूसरा, अमृत वेला नहीं त्यागना, तीसरा, आए-गए साधु-संतों – अतिथियों की सेवा प्यार से करनी।”
,,
प्रतीत होता है कि केश रखने का आदेश श्री गुरु नानक देव जी के समय से ही हो गया था । श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी के समय केश सिक्खी रहित का आवश्यक अंग बन गए और केशों के कत्ल (काटने) को बज्जर कुरहित करार दिया गया ।
यह भ्रम आम चला आ रहा है कि श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी से पहले केश रखने का आदेश कोई नहीं था। यह बड़ी निर्णायक बात है कि यह आदेश श्री गुरु नानक देव जी के समय ही प्रचलित हो गया था। इस बात के और भी प्रमाण हैं । बहुत-सी उन जगहों पर, जहां पर श्री गुरु नानक देव जी द्वारा लगाए गए सिक्खी के पौधे (सिक्ख ) अभी कायम हैं और जिनका संपर्क श्री गुरु नानक देव जी के बाद के गुरु साहिबान के साथ नहीं हुआ, उन गुरु नानक – नाम-लेवा सिक्खों के वंशज आज भी केशधारी हैं ।
गुरबाणी में केश-दाढ़ी को शुद्ध आचरण का प्रतीक बनाने का आदेश है :
मुख सचे सचु दाड़ीआ सचु बोलहि सचु कमाहि ॥
(पन्ना १४१९) :
है :
श्री गुरु अरजन देव जी ने साबत सूरत रहने तथा सिर पर दसतार सजाने को महिमा योग्य जाना
साबत सूरति दसतार सिरा ॥ ( पन्ना १०८४)
इस प्रकार केशों की महत्ता शुरू से ही चली आ रही है।
केशों पर आक्रमण भी गुरु साहिब के समय से ही शुरू हो गया था । मुगल हाकिमों के हाथ जो भी सिक्ख आता, उसे शहीद करने से पहले वे उसके केश कत्ल करने को प्राथमिकता देते थे । सिक्ख जान दे देते थे, केश नहीं देते थे। श्री गुरु तेग बहादर साहिब के सामने भाई मती दास जी, भाई सती दास जी तथा भाई दिआला जी को शहीद कर दिया गया। उन्होंने शीश दे दिया मगर केशों के सम्मान को आंच न आने दी। वे सिक्खी – सिदक केशों – श्वासों संग निभाते हुए शहीदियां प्राप्त कर गए ।
प्रतीत होता है कि भक्ति एवं शक्ति का प्रतीक केश प्रथम गुरु साहिब के समय ही बन गए थे। श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी ने इनको अमृतधारी सिक्खों की बाहरी रहित का आवश्यक अंग बना दिया। सारे रहितनामे इस तथ्य की गवाही भरते हैं । केशों का किसी प्रकार का अपमान सिंघों को बुरा लगने लगा।
केशों की रहित के अनुसार सिक्ख परिभाषा में कुछ नए सांकेतिक शब्द प्रयोग किए जाने लगे। जो अमृत-पान करके रहितवान हो गए वे ‘अमृतधारी सिक्ख’ हुए। जो अमृत – पान करके केशों का अपमान कर बैठे उनको ‘पतित’ कहा जाने लगा ।
यदि केशधारी सिक्ख कुरहितीआ हो जाए तो शोभाहीन समझा जाता था : तिस कुरहितीए केस रखाए कहहु सु कैसे सोभा पाए ?
( रहितनामा भाई देसा सिंघ)
बड़ी जल्दी ही यह प्रत्यक्ष होने लग गया कि यह धर्म छिप-छिपाकर नहीं जीया जा सकता । केश खालसे का ‘नीसाण’ हो गए। “जे लक्ख हिंदू अते लक्ख मुसलमान होवनि तां भी सिक्ख विच छुपदा नहीं, किउं जो हच्छा दाहड़ा, सिर पर केस, सो किथों छपै ।” (यदि लाखों हिंदू तथा लाखों मुसलमान हों तो भी सिक्ख उनमें छिपता नहीं, क्योंकि खूबसूरत दाढ़ी, सिर पर केश, इसलिए कैसे छिपे ?) (साखी रहित की, भाई नंद लाल जी) । केश ‘गुरु की मुहर‘ तथा सिक्खी – सिदक का एलान भी हो गए और सिक्खों की पहचान भी, क्योंकि सिक्ख छिपा नहीं रह सकता था, अतः केश वालों की आचरणीय जिम्मेदारी बढ़ गई । उन पर केश–दाढ़ी का सम्मान बनाए रखने की जिम्मेदारी पड़ गई। इस प्रकार केशों की दात हमारे आचरण का झूलता निशान बन गई।
केश एक तरह से अपने मुरशिद का एलान भी हो गए। केश वालों को ‘गुरु के सिक्ख’ कहा जाने लगा। दाढ़ी-केश से इंकारी होकर सिक्ख अपने गुरु को छिपाता है। गुरबाणी के अनुसार तो : जो गुरु गोपे आपणा सु भला नाही पंचहु ओनि लाहा मूलु सभु गवाइआ ॥
(पन्ना ३०४)
वास्तव में मुगल काल में तो यह सरकारी हुक्म हो गया था कि बिना हाज़ियों के कोई दाढ़ी न रखे। सिक्खों को दाढ़ी–केश वाला बनाकर सतिगुरु जी ने एक तरह की रहित की आज़ादी का एलान किया। श्री गुरु तेग बहादर साहिब का एलान था कि प्रत्येक को अपनी मर्ज़ी के अनुसार अपना धर्म ग्रहण करने का हक है। रहित की आज़ादी श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी की बख़्शिश है। केश, जो अब तक भक्ति तथा शक्ति का चिन्ह थे, आज़ादी का भी चिन्ह हो गए ।
साधारणतः कोई भी सरकार अपनी प्रजा में आज़ादी का जज्बा उभरता बर्दाश्त नहीं कर सकती। उसे इसमें से विद्रोह की गंध आने लग जाती है । यही कारण है कि जब केश पंथ की आज़ाद हस्ती का चिन्ह बन गए तो सरकार को खटकने लगे। तब से लगता है कि ये हर सरकार को खटकते आए हैं।
सर्वप्रथम ये मुगलों को खटके। उन्होंने केवल दाढ़ी – केश रखने की सरकारी रूप से मनाही ही नहीं की थी, केश वालों के सिर उतारने की मुहिम भी जारी की थी । सिक्खों के सिरों के इनाम रखे गए।
लोगों ने सिक्खों के सिरों के
सिदक का चिन्ह हो गए। अरदास का अंग हो गई कि
मूल्य कमाये । सिक्खों ने भी सिर दे दिए, मगर केश न दिए । केश सिक्खी- अरदास में जहां केशों के दान की याचना होने लगी वहीं यह विनती भी
“सिक्खी केसां सुआसां संग निभे ।”
अब्दाली ने फूलकीआं मिसल के नेता सरदार आला सिंघ को गिरफ्तार कर लिया तो उसके केश कत्ल करने का हुक्म कर दिया। सरदार आला सिंघ की पत्नी ने एक लाख रुपए अब्दाली को देकर उनके केश बचाए। केश सिक्ख के लिए सबसे बड़ी दौलत थी और हैं। जब जीवन-दान की शर्त केश कटवाना हो गई थी तब भी स्वाभिमानी सिक्खों ने जान देनी स्वीकार की, केश कटवाना नहीं। इस प्रकार केश सिक्खी-स्वाभिमान का चिन्ह भी हो गए । केशों वाले सिंघों को ‘सिरदार ( सरदार) साहिब‘ कहा जाने लगा।
पहले अंग्रेज भी सिक्खों के विरुद्ध थे। पंजाब की लड़ाइयों में सिक्ख (अंदरूनी गद्दारों के कारण ) भले ही हार गए थे मगर अंग्रेजों को उन्होंने अपनी शक्ति का एहसास भली प्रकार से करा दिया था। अंग्रेज भी सिक्खों को खत्म करना चाहते थे। उन्होंने भी बड़े-बड़े सिक्खों को ईसाई बनाकर सिक्खों को अपने धर्म से अलग करने का यत्न किया । नाबालिग महाराजा दलीप सिंघ को केशहीन करने के लिए सरकारी सुपुर्ददारी में विलायत भेज दिया। यह तो अंग्रेजों को बाद में एहसास हुआ कि सिक्ख बड़े शूरवीर फौजी हैं और उनकी शूरवीरता का राज मुख्यतः उनके केशधारी होने में है । तब उन्होंने एक सरकारी आदेश के द्वारा सिक्ख सरकारी कर्मचारियों को दाढ़ी – केश काटने से मना कर दिया ।
आज़ाद भारत में भी केश वालों पर आक्रमण हुआ, जो १९८४ ई में प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हुआ । फिर से सिक्खों में घल्लूघारों की याद ताज़ा हो गई। फिर से सिक्खों ने यह एहसास करवा दिया कि केश उनके कौमी-स्वाभिमान का चिन्ह हैं । केशों का अपमान करने वाला पुनः समूह पंथ को बदनाम करता प्रतीत होने लगा। धैर्यवान सिक्ख अपने इरादे पर दृढ़ रहते हुए शहीदियां प्राप्त कर गए। बहुतों के स्वाभिमान को नई ललकार लगी और उन्होंने कौम के स्वाभिमान को बहाल करने का प्रण लिया ।
सिक्ख कौम का इतिहास आज़ादी के संघर्ष का अद्वितीय इतिहास है । इस संघर्ष में उनकी पहचान का कौमी चिन्ह उनके केश उनकी आज़ादी की लालसा के प्रतीक हो गए । सिक्ख रोज़ाना की अरदास में ‘केश दान’ के लिए भी याचना करने लगे।
-डॉ. जसवंत सिंघ नेकी*