-डॉ नवरत्न कपूर*
गुरु : साक्षात परमेश्वर : श्री गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु के लिए ‘गुर’ और ‘सतिगुरु’ का प्रयोग अनेक बार हुआ है। ‘गुरु’ वस्तुतः ‘गुरु’ संस्कृत वाचक शब्द ही है और संस्कृत शब्द ‘सद्गुरु’ का रूपांतरित अपभ्रंश रूप ‘सतिगुरु’ है। श्री गुरु अरजन देव जी ने ‘गुरु’ को साक्षात भगवान का स्वरूप माना है :
– गुरु परमेसरु गुरु गोबिंदु
गुरु करता गुरु सद बखसंदु ॥
गुरजपु जापि जपत फलु पाइआ गिआन दीपकु संत संगना ॥ (पन्ना १०८०)
-गुर गोबिंद गोपाल गुर गुर पूरन नाराइणह ॥
गुर दइआल समरथ गुर गुर नानक पतित उधारणह ॥ (पन्ना ७१० )
( भाग्यशाली) व्यक्ति को गुरु की प्राप्ति होना सचमुच ईश्वर की बख्शिश (देन ) होती है । एतदर्थ श्री
गुरु रामदास जी का मनोहर वचन है :
पूरै भागि सतिगुरु पाईए जे हरि प्रभु बखस करेइ ॥ (पन्ना ८५१)
परमेश्वर स्वरूप गुरुदेव की शरणागति का सुफल :
(क) नाम-सिमरन की शिक्षा : सिक्ख गुरु साहिबान निराकार प्रभु के उपासक थे। निराकार प्रभु के अनेकों नाम प्रचलित हैं। गुरु साहिबान ने प्रभु नाम सिमरन की महिमा का बखान इस प्रकार किया है:
जिस नो लाइ लए सो लागे ॥
गिआन रतनु अंतरि ति जागै ॥
दुरमति जाइ परम पदु पाए ॥
गुर परसादी नामु धिआए ॥ (पन्ना ७३७)
अर्थात् गुरु की कृपा से उसके मन में प्रभु का नाम अवस्था प्राप्त हो जाती है । जिसके हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, उसकी दुर्मति दूर हो जाती है। जपने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है, जिसके फलस्वरूप उसे उच्च आत्मिक मनुष्य की कुबुद्धि (दुरमति) दूर होने और ज्ञान -प्राप्ति के फलस्वरूप उसके मन के सारे दुख दूर हो जाते हैं और वह जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा लेता है :
कटीऐ जम फासी सिमरि अबिनासी सगल मंगल सुगिआना ॥
हरि हरि जपु जपीऐ दिनु राती लागै सहजि धिआना ॥
कलमल दुख जारे प्रभू चितारे मन की दुरमति नासी ॥
कहु नानक प्रभु किरपा कीजै हरि गुण सुणीअहि अविनासी ॥ ( पन्ना ७८१)
अर्थात् गुरुदेव के मुख-कमल से अविनाशी प्रभु के गुण सुनकर दिन-रात सहज ध्यान लगाकर ‘हरि- हरि’ का जाप करने से मनुष्य के मन के सारे कालुष्य और दुख जल जाते हैं और उसकी दुर्बुद्धि दूर होने पर, उसका मन ज्ञानवान हो जाने पर उसका सदैव भला ही होता है। जीवन के अंत काल में यमराज की यातना से बचकर वह मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। यही भाव निम्नलिखित पदों में भी सुशोभित हैं :
आपु तिआणि परीऐ नित सरनी गुर ते पाईए एहु निधानु ॥
जनम मरण की कटीऐ फासी साची दरगह का नीसानु ॥ (पन्ना ८२४)
अर्थात् मनुष्य को अपना अहं भाव त्यागकर गुरुदेव की शरण में रहकर नाम रूपी धन (निधानु) प्राप्त करना चाहिए। ऐसा करने से वह जन्म-मरण के चक्कर से छूटकर प्रभु के समक्ष पहुंच जाता है ।
सुख सोहिलड़ा हरि धिआवहु ॥
गुरमुखि हरि फलु पावहु ॥
गुरमुखि फलु पावहु हरि नामु धिआवहु जनम जनम के दूख निवारे ॥
बलिहारी गुर अपणे विहु जिनि कारज सभि सवारे ॥ (पन्ना ७६७)
अर्थात् सभी प्रकार के सुख प्रदान करने वाले हरि का गुणगान करने से भक्त को भक्ति का संपूर्ण फल प्राप्त हो जाता है। इसके फलस्वरूप वह जन्म-मरण के चक्कर के दुख से छूटकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है । अत: मैं स्वयं को गुरुदेव पर न्यौछावर करता हूं जो कि मेरे सभी कार्य भली प्रकार संपन्न करता है।
(ख) सद्गुरु की सेवा का फल :
सद्गुरु की सेवा के बारे में श्री गुरु नानक देव जी के अनमोल वचन प्रस्तुत हैं :
गुर की सेवा चाकरी मनु निरमलु गुर सुखु होइ ॥
गुर का सबदु मनि सिआ उमै हु खोइ ॥ (पन्ना ६१)
अर्थात् गुरु की शरण में जाकर नाम सिमरन ( सबदि) का उपदेश मन में धारण करने वाले श्रद्धालु के हृदय में विद्यमान अहंकार नष्ट हो जाता है । गुरु की सेवा में जुड़ जाने वाले मनुष्य का मन निर्मल जो जाने पर उसे सुख की प्राप्ति होने लगती है।
इसी बात की पुष्टि श्री गुरु रामदास जी ने की है:
नानक गुरमुखि आपु बीचारीऐ विचहु आपु गवाइ ॥
आपे आपि पारब्रहमु है पारब्रहमु वसिआ मनि आइ ॥
जंमणु मरणा कटिआ जोती जोति मिलाइ ॥
( पन्ना ८४९)
अर्थात् मनुष्य को अपने मन से अभिमान (रूपी अपनापन ) त्यागकर, गुरु की शरण में आकर आत्मिक चिंतन करते हुए यह निश्चय करना चाहिए कि गुरु ही साक्षात भगवान है जो कि ईश्वर ज्योति से मिलाकर मनुष्य को चौरासी लाख योनि (जंमणु मरणा) के चक्कर से छुटकारा दिलवा देता है।
जो लोग सद्गुरु की शरण में न आकर उसकी सेवा नहीं करते, उनकी कैसी दुर्दशा होती है इसके बारे में श्री गुरु अमरदास जी के मनोहर वचन पेश हैं :
सतिगुरु न सेवहि मूरख अंध वारा ॥
फिरि ओइ किथहु पाइनि मोख दुआरा ॥
मरि मरि जंमहि फिरि फिरि आवहि जम दरि चोटा खावणिआ ॥
(पन्ना ११५)
अर्थात् जो व्यक्ति सद्गुरु की सेवा नहीं करता वह मूर्ख और अत्यंत गंवार है । ( गुरुदेव के नाम – सिमरन के उपदेश के बिना) वह व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है और मृत्यु के पश्चात् यमराज द्वारा दंडित होता है । उसे मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती ।
श्री गुरु अरजन देव जी ने ऐसे मंदभागी प्राणियों की स्थिति ताड़ना भरपूर शब्दावली में प्रकट की है:
गुर मंत्र हीणस्य जो प्राणी विगंत जनम भ्रसटणह ॥
कूकरह सूकरह गरधभह काकह सरपनह तुलि खलह ॥
( पन्ना १३५६ )
अर्थात् जो प्राणी गुरुदेव की शरण में जाकर नाम सिमरन का उपदेश नहीं लेता उसका जन्म भ्रष्ट होता है और उसे धिक्कार है । ऐसा व्यक्ति मनुष्य जीवन के पश्चात कभी कुत्ते, कभी सूअर, कभी गधे, कभी कौए और कभी सांप के रूप में जन्म लेता है। ऐसा मनुष्य (गुरु – भक्तों को ) बुरा लगता है ।
निष्कर्ष : श्री गुरु नानक देव जी ने गुरु की महिमा को इस प्रकार दृढ़मूल किया है।:
गुर महि आपु रखिआ करतारे ॥
गुरमुखि कोटि असंख उधारे ॥ (पन्ना १०२४)
-गुर महि आपु समोइ सबदु वताइआ ॥
सचे ही पतीआइ सचि समाइआ ॥ ( पन्ना १२७९ )
अर्थात् भगवान ने गुरु के माध्यम से अपना स्वरूप प्रकट किया है। साक्षात परमेश्वर रूप गुरु के नाम-सिमरन (सबदु वरताइआ ) के प्रचार से ही यह भाव प्रकट होता है, जिसके फलस्वरूप करोड़ों ही नहीं बल्कि असंख्य भक्तों (गुरमुख ) का उद्धार होता है। यह सत्य वचन अत्यंत विश्वसनीय है।
श्री गुरु अरजन देव जी ने भी गुरुदेव को भक्त का संरक्षक बताया है
पवन झुलारे माइआ देइ ॥
हरि के भगत सदा थिरु सेइ ॥
हरख सोग ते रहहि निरारा ॥
सिर ऊपरि आपि गुरू रखवारा ॥ ( पन्ना ८०१ )
अर्थात् माया के प्रभाव के कारण आम मनुष्य चिंता और प्रसन्नता के आवेग में डांवांडोल हो जाते हैं किंतु
भगवान के भक्त ऐसी स्थिति में भी स्थिर रहते हैं । वस्तुत: यह गुरमति – प्रेमियों के संरक्षक गुरु की कृपा का ही फल होता है।