साका ननकाना साहिब

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February 24, 2025

– बीबी अमरजीत कौर

सिक्ख धर्म की नींव श्री गुरु नानक देव जी ने रखी, जिसके सिद्धांत मर्यादा को गुरु साहिबान और उनके सिक्खों ने अमली जामा पहनाया। श्री गुरु नानक देव जी का फरमान है :
जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ ॥
सिरु धरि तली गली मेरी आउ ॥
इतु मारगि पैरु धरीजै ॥
सिरु दीजै काणि न कीजै ॥    ( पन्ना १४१२)

इस फरमान पर पूरे उतरते हुए अनेकों मरजीवड़ों ने इसे अपने खून से प्रफुल्लित किया। गुरु साहिब द्वारा निर्धारित मर्यादा को तोड़ने वालों के विरुद्ध डट कर मुकाबला किया, कुर्बानियां देते हुए हंस-हंस कर शहीदियां प्राप्त कीं ।

सिक्ख धर्म का इतिहास अपने गुरधामों की रक्षा के लिए साकों से भरा पड़ा है। इसमें गुरुद्वारा ननकाणा साहिब का साका सिक्ख इतिहास में अपनी मिसाल आप है ।

श्री ननकाणा साहिब वह पवित्र स्थान है जहां सिक्ख धर्म के बानी श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ। यह स्थान प्रत्येक सिक्ख धर्म को मानने वाले के दिल में बहुत पवित्र स्थान रखता है ।

सिक्ख धर्म के विकास में समय – मसय स्थापित हुई लहरों में गुरुद्वारा सुधार लहर का अपना योगदान है। २० वीं सदी के दूसरे दशक में पंथक जत्थों ने इस लहर के तहित गुरुद्वारों को आज़ाद करने के लिए जत्थे बनाए। इस लहर में गुरुद्वारा ननकाणा साहिब को महंतों से आज़ाद करवाने और उसमें पुनः स्वीकृत रहित मर्यादा स्थापित करने के लिए पंथ एकजुट हुआ ।

सिक्खों के जंगों, युद्धों में व्यस्त रहने के कारण गुरधामों की संभाल और सेवा उदासी साधु एवं परंपरागत महंत करते थे। समय के बीतने पर गुरधामों में सिक्ख मर्यादा के उलट पूजा-विधियां और अन्य गुरमति-विरोधी कार्यवाहियां शुरू हुईं। इन महंतों और डेरेदारों में सब से अधिक और सबसे अयाश ननकाणा साहिब का महंत नरैण दास था। वह और उसके चेले यात्रियों और जिज्ञासुओं का अपमान करने में भी संकोच नहीं करते थे ।

उसने गुरुद्वारे के वातावरण को अपनी अशलील और आचरणहीन कार्य करके अपवित्र कर रखा था। गुरुद्वारा साहिब के दर्शनों को आने वाली स्त्रियों की इज्जत महफूज़ नहीं थी। सिक्ख पंथ और खासकर ननकाणा साहिब के आस-पास रहते सिक्खों के मन में महंत नरैण दास के प्रति बहुत रोष था। उन दिनों भाई लक्षमण सिंघ धारोवाली ने समागम रखकर लोगों को महंत की हरकतों के प्रति जागरूक किया और उससे गुरधाम आज़ाद करवाने के लिए लोगों को तैयार किया। उधर बाद में कायम हुई शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने भी मार्च, १९२१ में ननकाणा साहिब में समागम करने का फैसला किया।

महंत नरैण दास को इन सब की जानकारी मिल चुकी थी और उसने इन सबसे निपटने के लिए अनेक गुंडों को अपने पास नौकर रख लिया और बहुत सारे हथियार भी इकट्ठे कर लिए।

उन दिनों भाई लछमण सिंघ का संपर्क जत्थेदार करतार सिंघ झब्बर के साथ हुआ। उन दोनों ने सलाह कर २० फरवरी, १९२१ को ननकाणा साहिब पहुंच कर गुरुद्वारा साहिब को आज़ाद करवाने का मन बना लिया ।

अकाली अगुओं को पता लगने पर उन्होंने भाई दलीप सिंघ को जत्थेदार भाई करतार सिंघ झब्बर की ओर भेजा और कहा कि पार्टी के अनुशासन को कायम रखते हुए ननकाणा साहिब की ओर न जाया जाए। भाई दलीप सिंघ ने भाई झब्बर को जैसे-तैसे मना लिया और वहां से पांच सिंघों का हुक्मनामा लेकर भाई लछमण सिंघ की ओर रवाना हुआ। बहुत ढूंढने के बाद भी भाई लछमण सिंघ जी के साथ उसका संपर्क न हो पाया तो भाई लछमण सिंघ को सूचित करने के लिए यह जिम्मेदारी भाई वरियाम सिंघ की लगा दी गई और आप गुरधाम से थोड़ी दूर भाई उत्तम सिंघ के कारखाने में चला गया। भाई वरियाम सिंघ ने २० फरवरी की सुबह भाई लछमण सिंघ को ढूंढा । वे पहले ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब के सम्मुख अपने जत्थे सहित ननकाणा साहिब की पवित्र धरती को महंत नरैण दास जैसे नीचों से आज़ाद करवाने के लिए निकल चुके थे और ननकाणा साहिब के पास पहुंच चुके थे। उन्होंने अरदासा सोधा जाने के बाद अपना फैसला बदलने से इन्कार कर दिया। इस बात की खबर भाई दलीप सिंघ को देने के लिए भाई वरियाम सिंघ उनके पास चले गए ।

भाई लछमण सिंघ २० फरवरी, १९२१ ई की सुबह अपने जत्थे सहित गुरुद्वारा साहिब में दाखिल हुए और खुद श्री गुरु ग्रंथ साहिब की ताबिआ में बैठ गए और अन्य सिंघ जिनकी गिनती लगभग १५० के लगभग बताई जाती है, दीवान हाल में बैठ गए और शब्द गायन करने में मग्न हो गए।

एकदम गोलियों की बौछाड़ होनी शुरू हो गई, फिर तलवारों, कुलहाड़ियों, गंडासों के साथ गुंडों ने निहत्थे सिंघों पर हमला कर दिया और सिंघों को शहीद कर दिया। लाशों और जख़्मी हालत में पड़े सिंघों को इकटठा कर उन पर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा दी गई। भाई लछमण सिंघ को भी गोलियां लगीं और जख़्मी स्थिति में जिंदा पकड़कर जंड के वृक्ष के साथ उलटा बांध कर आग लगाकर शहीद कर दिया गया। महंत नरैणू यह साका वरताकर भाग निकला। इस तरह भाई लछमण सिंघ ने अपने जत्थे के साथ गुरुद्वारा ननकाणा साहिब को आज़ाद करवाने के लिए की गई अरदास की मर्यादा को कायम रखते हुए अपना आपा न्योछावर कर दिया ।

अगले दिन इस घटना की खबर भाई उत्तम सिंघ ने सभी संबंधित अधिकारियों को भेजी और लाहौर और श्री अमृतसर के सिक्ख लीडरों को सूचित किया । सांयाकाल तक सभी उच्च अधिकारी पहुंच गए। जब भाई करतार सिंघ झब्बर को पता चला तो वह भी अपने जत्थे सहित वहां पहुंच गए। कमिश्नर किंग ने २१ अक्तूबर को शाम तक गुरुद्वारा साहिब की चाबियां देने का फैसला कर लिया और शिरोमणि गु प्र कमेटी के सदस्यों के सहित गुरुद्वारे का कब्ज़ा लिया गया। इस तरह गुरुद्वारा साहिब को आज़ाद करवाने के लिए सिंघों की शहीदियां गुरु- स्थानों पर प्रवान हुईं। महंत नरैण दास को बाद में पकड़कर सज़ा दी गई।