
सिक्ख चिंतन : सर्वधर्म समभाव की दृष्टि
-डॉ. महीप सिंघ*
सम्पूर्ण सिक्ख चिंतन का आधार श्री गुरु ग्रंथ साहिब हैं। यह पावन ग्रंथ सर्वधर्म समभाव का एक अद्भुत उदाहरण है। संसार के सभी धर्म-ग्रंथों में जो संदेश और उपदेश संगृहीत हैं उनमें मानव मात्र के कल्याण, व्याधियों से मुक्ति और प्रभु – मिलन की कामना की गई है। सभी धर्म-ग्रंथों में उस धर्म के प्रवर्तक आदि के दैवी ज्ञान का संकलन होता है और उसके बताए प्रभु प्राप्ति के मार्ग का अनुसरण करने का आग्रह होता है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन-संपादन कुछ अलग प्रकार का है। इसमें छ: सिक्ख गुरु साहिबान द्वारा रचित बाणी के साथ देश भर में फैले हुए पंद्रह भक्त साहिबान की, ग्यारह भट्ट साहिबान की तथा गुरसिक्खों की बाणियां सम्मिलित हैं । इन बाणीकारों में सुदूर बंगाल के संस्कृत के भक्त जैदेव जी हैं; आज के उत्तर प्रदेश के भक्त कबीर जी, भक्त रविदास जी, भक्त भीखण जी, मध्य प्रदेश के भक्त सैण जी, राजस्थान के भक्त धंना जी, सिंध के भक्त सधना जी और महाराष्ट्र के भक्त नामदेव जी, भक्त परमानंद जी तथा मुलतान (पाकिस्तान) के शेख फरीद जी की बाणी भी संगृहीत है।
जिस युग में श्री गुरु ग्रंथ साहिब को लिपिबद्ध किया गया था वह युग धर्मों, वर्गों, जातियों में बंटा हुआ था। सत्ता पर मुस्लिम शासकों का अधिकार था, बहुसंख्यक हिंदू वर्ग जात-पात और ऊंच-नीच की व्यवस्था में बुरी तरह जकड़ा हुआ था। श्री गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन में चार बड़ी यात्राएं भी की थीं। इन यात्राओं में उन्होंने हिंदू – तीर्थों की यात्राएं कीं, मुसलमानों के पीरों की दरगाहों पर भी गए, मक्का, मदीना तथा बगदाद का भ्रमण किया, सभी धर्मों और उनके नेताओं, पुरोहितों एवं काजियों से संवाद किया ।
श्री गुरु नानक देव जी के जीवन भर के साथी और मित्र भाई मरदाना जी एक मिरासी मुसलमान थे। वे रबाब बहुत अच्छी बजाते थे। श्री गुरु नानक देव जी द्वारा प्रवर्तित मार्ग मानवीय एकता, सद्भाव, समता और संकीर्णताविहीन मार्ग था। उन्होंने अपने समय की राजनीतिक स्थिति, विदेशी आक्रमण, आम लोगों पर होने वाले अत्याचारों और सामाजिक विद्रूपताओं पर तीखी टिप्पणियां कीं; उस समय के राजाओं, शासकों, सरकारी कर्मचारियों, न्यायाधीशों के चरित्र को उजागर किया। अपनी बाणी में एक स्थान पर उन्होंने कहा है- “आज के शासक व्याघ्र के समान हो गए हैं। उनके कर्मचारी कुत्तों के समान हो गए हैं। वे आम लोगों को अपने तेज नाखूनों से घायल करते रहते हैं और उनके रिसते हुए खून को चाट जाते हैं। जब परमात्मा के सामने उन्हें लाया जाएगा तो इनकी नाक काट ली जाएगी।
“राजे सीह मुकदम कुते ॥
जाइ गाइन्हि बैठे ॥ चाकर नहदा पाइन्हि घाउ ॥
रतु पितु कुतिहो चटि हु ॥ जिथे जीओ होसी सार ॥
नंकी वंढी लाइतबार ॥ ( पन्ना १२८८ )
उस समय न्याय-व्यवस्था कितनी भ्रष्ट हो गई थी, श्री गुरु नानक देव जी ने इस विषय पर भी प्रकाश डाला है। काजी न्यायाधीश बनकर न्याय करने का दावा करता है। वह हाथ में न्याय की माला फेरते हुए ईश्वर का नाम लेता रहता है, किंतु व्यवहार में रिश्वत लेकर न्याय करते हुए अपने कर्त्तव्य को भूल जाता है। यदि कोई उसके ऐसे न्याय पर प्रश्न उठाता है तो वह न्याय संहिता की दुहाई देने लगता है :
काजी होइ के बहै निआइ ॥
फेरे तसबी करे खुदाइ ॥
वढी लै कै हकु गवाए ॥
जे को छै ता पड़ि सुणाए ॥ ( पन्ना ९५१)
रिश्वत लेकर झूठी गवाही देने वालों की भी कमी नहीं है। ऐसे लोग तो फांसी दिए जाने योग्य हैं :
लैकै वढी देन उगाही दुरमति का गलि फाहा हे ॥( पन्ना १०३२)
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ऐसे अनेक संकेत हैं कि राजा कैसा होना चाहिए, बादशाह में क्या गुण होने चाहिए, उसका अपनी प्रजा के प्रति रवैया कैसा होना चाहिए, उसी व्यक्ति को शासक बनना चाहिए जो उसके योग्य हो :
तखत राजा सो बहै जि तखतै लाइक होई ॥
जिनी सचु पछाणिआ सचु राजे सेई ॥ ( पन्ना १०८८)
गुरबाणी में शासक, शासन-तंत्र, न्याय-पद्धति, राजनीतिक भ्रष्टाचार, आर्थिक घोटालों जैसे सामाजिक सरोकारों पर तीखी टिप्पणियां हैं और इनसे उभरने के सूत्रों की गहरी चर्चा है। राजनीति में नैतिकता होना और राजनीतिज्ञों द्वारा साधारण जनता की सेवा करने के पक्ष पर बार-बार आग्रह किया गया है । सम्पूर्ण सिक्ख परंपरा सभी धर्मों का आदर करती है और आचरण की शुद्धता पर बल देती है। शासक कोई भी हो, उसका धर्म कोई भी हो, उसकी सार्थकता उसकी पारदर्शिता में है ।
यह भी इतिहास की विडंबना ही है कि पांच सौ वर्ष पूर्व जिस शांति- पथ का प्रवर्तन हुआ था और जिसने असमानता, अन्याय और पाखंड के विरुद्ध सामाजिक क्रांति का उद्घोष किया था, उसका तत्कालीन सरकार से टकराव उत्पन्न हो गया। श्री गुरु नानक देव जी से लगभग एक सौ वर्ष बाद पांचवें गुरु श्री गुरु अरजन देव जी को तत्कालीन मुगल शासक जहांगीर ने बंदी बनाकर, अनेक यातनाएं देकर शहीद कर दिया। जहांगीर ने अपनी आत्म – कथा ‘तुजक-ए-जहांगीरी’ में श्री गुरु अरजन देव जी पर अनेक निराधार आरोप लगाते हुए यह भी लिखा है कि “असंख्य लोग उनके अनुयायी थे, जिनमें बहुत से मुसलमान भी थे।” श्री गुरु अरजन देव जी के बाद गुरु के शिष्यों और मुगल शासकों में टकराव कई सदियों तक बना रहा। दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी के समय से यह टकराव सशस्त्र होकर हो गया। यह दृष्टव्य है कि टकराव सदैव सिक्खों और शासकों के मध्य रहा। सिक्खों और मुसलमान जनता के बीच सद्भाव सदैव बना रहा। सिक्खों ने कभी धार्मिक विश्वासों और आस्थाओं को राजनीति पर हावी नहीं होने दिया ।
अठारहवीं शती के अंतिम वर्षों से उन्नीसवीं शती के मध्य तक पंजाब, सीमाप्रांत और कशमीर पर सिक्खों की राजनीतिक सत्ता का वर्चस्व छा गया था । उस समय महाराजा रणजीत सिंघ की राजनीतिक प्रभुता की दुंदुभी गूंज रही थी । महाराजा रणजीत सिंघ ने कभी सर्वधर्म समभाव और धर्म निर्पेक्षता के आदर्श को खंडित नहीं होने दिया। महाराजा रणजीत सिंघ के शासन- तंत्र में जम्मू का डोगरा राजपूत धिआन सिंघ प्रधानमंत्री था । लाहौर के सम्मानित फकीर खानदान के तीन भाई अजीजुद्दीन, नूरुद्दीन और इमामुद्दीन में से एक विदेश मंत्री था, एक गृह मंत्री था और एक शाही खजाने का प्रबंधक था । वित्त मंत्रालय का सारा काम काजी दीवान दीनानाथ, अयोध्या प्रसाद, भवानी प्रसाद संभालते थे। दीवान मोहकम चंद एक वणिक परिवार से था, जो महाराजा रणजीत सिंघ की प्रारंभिक विजयों का सेनानायक था। आगे चलकर सरदार हरी सिंघ नलूआ ने सेना की कमान संभाली थी और अपने पराक्रम से अफगानिस्तान तक अपने नाम की दहशत फैला दी थी ।
महाराजा रणजीत सिंघ का शासन काल सही अर्थों में श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आदर्शों के अनुसार सर्वधर्म-समभाव का उदाहरण था। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि विभिन्न धर्मों के सह-अस्तित्व की भावना को यह धर्म-ग्रंथ न केवल पुष्ट करता है बल्कि बल भी देता है।
पिछली शती में धर्म और राजनीति का घालमेल इतना बढ़ा कि वह इस देश के विभाजन में प्रतिफलित हुआ। परिणाम हमारे सामने है । सिक्ख धर्म में धर्म और राजनीति का सुमेल गुरु नानक साहिब के समय से ही रहा है। इस सुमेल को संतुलित अवस्था में बनाए रखते हुए हमें राजनीति का प्रयोग धर्म की सलामती के लिए तथा धर्म का प्रयोग आदर्श राजनीति करने के लिए करते रहना चाहिए।